मुहम्मद उमर कैरानवी: हैरत अंगेज़ क़ुरआन ।।। प्रोफेसर गैरी मिलर Amazing Quran in Hindi 🌿

Wednesday, March 27, 2019

हैरत अंगेज़ क़ुरआन ।।। प्रोफेसर गैरी मिलर Amazing Quran in Hindi 🌿

हैरत अंगेज़ क़ुरआन ।।। प्रोफेसर गैरी मिलर, इसाक यूनीवर्सिटी, तुर्की💔
حیرت انگیز قرآن  ۔۔۔ پروفیسرگیری ملر، اساک یونی ورسٹی، ترکی



गणितिज्ञ और धर्म शास्त्री डॉ गेरी मिलर इसाई मिशिनरी के लिए काम किया करते थे,जाकिर नायक के गुरू अहमद दीदात  Ahmed Deedat के साथ भी लेक्‍चर दे चुके  प्रोफेसर गेरी मिल्लर ने 1978 में इस्‍लाम कुबूल किया, ये इस्लामी दुनिया में अज़ीम वाक़िआ क़रार पाया, वो अपनी पिछली जिंदगी बारे में बताते हैं कि उन्‍होंने एक आइडिया सोचा था कि कुरआन में वैज्ञानिक और एतिहासिक कमियां निकालेंगे जिससे इसाईयत को लाभ हो मगर हुआ उलटा, अपने गणित के अनुभव और धर्म शास्त्रों के ज्ञान से फिर अरबी भाषा सीख कर खूब रिसर्च करने के बाद वो मुसलमान हो गए और उस समय के सफल माध्यम रेडिओ और टेलीविज़न से इस्‍लाम को दूसरों तक पहुचाने में समय देने लगे, उन्होंने अपना नाम अब्दुल अहद उमर पसंद किया, आपकी बहुत सी किताबें अमेज़न ऑनलाइन शाप पर भी उपलब्ध हैं, अपनी रिसर्च में क़ुरआन को डॉ गेरी मिलर ने अद्भुत पाया, कुछ अलग तरह  तरीके से क़ुरआन से बातें लिखीं  इस लिए बेहद पसंद की गयीं, नेट में उनकी 'अमेजिंग क़ुरआन' किताब उर्दू  में मिल रही थी, हिंदी पाठकों को उनकी भाषा में समझने के लिए ये उर्दू से हिंदी मशीनी रूपान्तर या लिपियान्तर कहें वो किया गया है, जो अनुवाद तो नहीं है लेकिन, लेकिन बात समझी जा सकती है, उम्मीद है पसंद की जाएगी, 💞

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The Amazing Quran انگلش PDF 
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कुरआन की आयतों पर  'हैरत अंगेज कुरआन' में तफसील से बहुत बातें लिखी हैं,  जैसा की 

(१) क़ुरआन का चैलेंज की कोई एक सूरत बना दो  
(२) अबू लहब के पास दस साल थे इस्लाम को चोट पहुँचाने के लिए   
(३) यहूदी के पास हमेशा मौक़ा हे इस्लाम को चोट पहुँचाने का मगर अल्लाह का चैलेंज है वो नहीं कर सकते,  इसाई कुछ मुसलमानों  हैं, जैसे विष्यों पर इस किताब में हैरत कर देने वाली बातें पढ़ने को मिलती हैं,



Introduction
क़ुरआन हैरत-अंगेज़ किताब है । इस बात का एतराफ़ सिर्फ़ मुस्लमान ही नहीं बल्कि ग़ैरमुस्लिम हज़रात हत्ता कि इस्लाम के खुले दुश्मन भी करते हैं। उमूमन इस किताब को पहली बार बारीकी से मुताला करने वालों को इस वक़्त गहिरा ताज्जुब होता है जब उन पर मुनकशिफ़ होता है कि ये किताब फ़िल-हक़ीक़त उनके तमाम साबिक़ा मफ़रूज़ात और तवक़्क़ुआत के बरअक्स है। ये लोग फ़र्ज़ किए होते हैं कि चूँकि ये किताब चौदह सदी क़बल के अरबी सहरा-ए-की है इसलिए लाज़िमन उस का इलमी और अदबी मयार किसी सहरा-ए-में लिखी गई क़दीम, मुबहम और नाक़ाबिल-ए-फ़हम तहरीर का सा होगा। लेकिन इस किताब को अपनी तवक़्क़ुआत के ख़िलाफ़ पा कर उनको गहिरा ताज्जुब होता है। ऐसे लोगों के पहले से तैयार मफ़रूज़ा के मुताबिक़ ऐसी किताब के तमाम मौज़ूआत और मज़ामीन का बुनियादी ख़्याल या अमूद सहरा-ए-और इस की मुख़्तलिफ़ तफ़सीलात मसलन सहराई मुनाज़िर की मंज़र कुशी, सहराई नबातात का बयान, सहराई जानवरों की ख़सुसीआत वग़ैरा होना चाहिए। लेकिन क़ुरआन इस बाब में भी मुस्तसना है। यक़ीनन क़ुरआन में बाअज़ मवाक़े पर सहराॱएॱ और इस के मुख़्तलिफ़ हालात से तार्रुज़ किया गया है, लेकिन इस से ज़्यादा बार इस में समुंद्र की मुख़्तलिफ़ हालतों का तज़किरा वारिद हुआ है, खासतौर से इस वक़्त जब समुंद्र आंधी, तूफ़ान, भंवर वग़ैरा अपनी सारी तबाह कारीयों के साथ जल्वा-नुमा होता है।
Merchant Marine
अब से कुछ साल पहले हमने टोरंटो में मुक़ीम एक जहाज़रां ताजिर(Marine Merchant) का क़िस्सा सुना। इस ताजिर ने अपनी उम्र का बेशतर हिस्सा समुंद्र में गुज़ारा था, किसी मुस्लमान साथी ने इस को क़ुरआन-ए-मजीद का तर्जुमा पढ़ने के लिए दिया। इस जहाज़रां ताजिर को इस्लाम या इस्लामी तारीख़ से कुछ वाक़फ़ीयत ना थी, लेकिन इस को ये तर्जुमा बहुत पसंद आया। क़ुरआन लौटाते हुए उसने मुस्लमान दोस्त से पूछा :ये मुहम्मद कोई जहाज़रां थे ?गोया उस को क़ुरआन की जिस चीज़ ने सबसे ज़्यादा मुतास्सिर क्या वो समुंद्र और इस के तूफ़ानी हालात से मुताल्लिक़ क़ुरआन का सच्चा और बारीकबीं तबसरा और मुस्लमान का ये बता देना कि दर-हक़ीक़त मुहम्मद एक सहरा-नशीं इन्सान थे इस ताजिर के इस्लाम लाने के लिए काफ़ी साबित हुआ। इस जहाज़रां का बयान था कि वो बज़ात-ए-ख़ुद अपनी ज़िंदगी में बारहा समुंद्र के ना मुसाइद हालात का सामना कर चुका है और उसे का मिल यक़ीन है कि क़ुरआन में मज़कूर समुंद्र के तूफ़ानी हालात की मंज़र कुशी सिर्फ वही शख़्स कर सकता है जो बराह-ए-रास्त उस का मुशाहिदा कर चुका हो। वर्ना इन हालात का ऐसा ख़ाका खींचना इन्सानी तख़य्युल के बस की बात नहीं :
 उस की मिसाल ऐसी है जैसे एक गहरे समुंद्र में अंधेरा, कि ऊपर एक मौज छाई हुई है, इस पर एक और मौज, और इस के ऊपर बादल, तारीकी पर तारीकी मुसल्लत है, आदमी अपना हाथ निकाले तो उसे भी ना देखने पाए। (क़ुरआन 24:40)
मज़कूर बाला क़ुरआनी नक़्शा किसी ऐसे ज़हन की पैदावार नहीं हो सकता जो अमली तौर पर इन हालात को बरत ना चुका हो और जिसको तजुर्बा ना हो कि समुंद्री तूफ़ान के गिर्दाब में फंसे इन्सानों के एहसासात और जज़बात क्या होते हैं। ये एक वाक़िया इस बात को साबित करता है कि क़ुरआन को किसी ख़ास ज़माना या मुक़ाम से मुक़य्यद-ओ-मरबूत नहीं किया जा सकता है। खासतौर पर उस के इलमी मज़ामीन और आफ़ाक़ी सच्चाईयां चौदह सौ साल पहले के किसी सहरा-नशीं ज़हन की तख़लीक़ हरगिज़ नहीं हो सकती हैं।
The Smallest Thing
मुहम्मद साह्ब से बहुत पहले दुनिया में ऐटम(ज़र्रा) के मुताल्लिक़ एक मारूफ़ नज़रिया (Theory of Atom) मौजूद था। इस नज़रिया की तशकील में यूनानी फ़िलासफ़ा ख़ुसूसन डीमोकराईटस (Democritus) की काविशों का बड़ा हाथ रहा है। ता आंका बाद में आने वाली नसलों में इस नज़रिया की हैसियत हासिल हो गई। वो नज़रिया किया था ?
यूनानी फ़लसफ़ा की रो से हर माद्दी शैय कुछ छोटे छोटे अजज़ा पर मुश्तमिल होती है। ये अजज़ा (जर्रात) इतने छोटे होते हैं कि हमारी क़ुव्वत-ए-बीनाई उनका इदराक नहीं कर पाती, और ये नाक़ाबिल-ए-तक़सीम होते हैं। अरबों के यहां भी ऐटम का यही तसव्वुर राइज था, और हक़ीक़त ये है कि आज भी अरबी ज़बान में ज़र्रा के लफ़्ज़ का किसी भी माद्दी शैय के अदना तरीन जुज़ पर इतलाक़ किया जाता है। लेकिन जदीद साईंस की रो से किसी भी शैय का छोटे से छोटा जुज़ (ज़र्रा)भी अंसरी ख़सुसीआत का हामिल हुआ करता है। ये जदीद नज़रिया जिसके वाक़ाती शवाहिद मौजूद हैं दौर-ए-हाज़िर की पैदावार है, और असर-ए-हाज़िर से पहले उस का वजूद इलमी दुनिया में नापैद था। लेकिन हैरत-अंगेज़ बात ये है कि मौजूदा दौर की इस दरयाफ़त(Discovery) का तज़किरा चौदह सदी क़बल नाज़िल शूदा क़ुरआन-ए-मजीद में पाया जाता है :
कोई ज़र्रा बराबर चीज़ आसमान और ज़मीन में ऐसी नहीं है, ना इस से छोटी ना बड़ी, जो तेरे रब की नज़र से पोशीदा हो और एक साफ़ दफ़्तर में दर्ज ना हो। (क़ुरआन 34:3)
इस में शक नहीं कि चौदह सदी क़बल के अरब बाशिंदे जो कि किसी शैय के अदना तरीन जुज़ को ज़र्रा के नाम से जानते थे, उनको क़ुरआन की ये तसरीह बड़ी ग़ैर फ़ित्री और ग़ैर मानूस मालूम हुई होगी। लेकिन दर-हक़ीक़त ये इस बात की खुली दलील है कि ज़माना अपनी तेज़ रफ़्तारी के बावजूद क़ुरआन पर सबक़त नहीं ले जा सकता।
Honey
आम तौर पर किसी क़दीम तारीख़ी किताब का मुताला करने वाला इस बात की बजा तौर पर तवक़्क़ो रखता है कि इस के मज़ामीन-ओ-फर्मो दात के ज़रीया वो इस ज़माने की सहित-ए-आम्मा और मुतदाविल तरीक़ा हाय ईलाज के मुताल्लिक़ काफ़ी मालूमात इकट्ठा कर सकेगा। दूसरी तारीख़ी किताबों मसलन बाइबल, वेद, अवस्था वग़ैरा में वाक़ान ऐसा है भी, लेकिन क़ुरआन यहां भी यकता-ओ-मुनफ़रद है। यक़ीनन मुतअद्दिद तारीख़ी मुसादिर में हमें इस बात का तज़किरा मिलता है कि अल्लाह के रसूलने सेहत-ओ-सफ़ाई की बाअज़ हिदायतें और नसीहतें इनायत फ़रमाई हैं। लेकिन उनका तफ़सीली तज़किरा क़ुरआन में कहीं दिखाई नहीं देता। बादियुन्नज़र में ग़ैर मुस्लिमों को ये बात अजीब मालूम होती है कि अल्लाह ताला ने इन मुफ़ीद तिब्बी मालूमात को किताब-ए-महफ़ूज़ में क्यों शामिल नहीं फ़र्मा दिया?

बाअज़ मुस्लिम दानिशवरों ने इस मसले की इस तरह तशरीह की है :अगरचे तिब्ब से मुताल्लिक़ अल्लाह के रसूल के इर्शादात और हिदायतें मबनी बर सेहत और काबिल-ए-अमल हैं, लेकिन अल्लाह ताला के लामहदूद इलम-ओ-हिक्मत में ये बात थी कि आइन्दा ज़मानों में साईंस और मैडीसन (Medicine)के मैदानों में बेमिसाल तरक़्क़ी होगी जिसके नतीजे में रिवायती तिब्बी हिदायतें पुरानी और फ़र्सूदा (Outdated) समझी जाने लगेंगी। इसलिए अल्लाह ताला ने क़ुरआन में सिर्फ उसी किस्म की मालूमात को दर्ज फ़रमाया जो तग़य्युर-ए-ज़माना से मुतास्सिर ना हो सकें। मेरी नाक़िस राय में अगर हम करानी हक़ायक़ को वही इलाही मान कर चलें तो जे़रे बेहस मौज़ू दरुस्त तरीक़े से समझा जा सकेगा और मज़कूरा बाला बेहस और मुनाक़शे की ग़लती भी वाज़िह हो जाएगी
Prophet Muhammad and the Quran
सबसे पहले हमें ये जान लेना चाहिए कि क़ुरआन अल्लाह की वही है, इसलिए इस में वारिद तमाम मालूमात का सरचश्मा भी वही ज़ात-ए-बरहक़ है। अल्लाह ताला ने इस क़ुरआन को अपने पास से वही किया और ये इस कलाम-ए-इलाही में से है जो तख़लीक़-ए-कायनात से पहले भी मौजूद था। इसलिए इस में कोई इज़ाफ़ा, कमी और तबदीली मुम्किन नहीं। असल बात ये है कि क़ुरआन-ए-करीम तो मुहम्मद की ज़ात और आपकी हिदायात-ओ-नसाएह के वक़ूअ पज़ीर होने से बहुत पहले वजूद में आकर मुकम्मल हो चुका था। और ऐसी तमाम मालूमात जो किसी मुतय्यन अह्द या मुक़ाम के ख़ास तर्ज़-ए-फ़िक्र-ओ-तर्ज़-ए-हयात से मुताल्लिक़ हूँ कलाम-ए-इलाही में दाख़िला नहीं बना सकतीं। क्योंकि ऐसा होना वाज़िह तौर पर क़ुरआन के मकसद-ए-वजूद के मुनाफ़ी है और ये चीज़ उस की हक़्क़ानियत, रहती दुनिया तक के लिए उस की रहनुमाई की सलाहीयत, बल्कि उस के ख़ालिस वही इलाही (Pure Divine Revelation)होने पर भी सवालिया निशान खड़ा कर सकती है। इसी लिए हम देखते हैं कि क़ुरआन ऐसा कोई नुस्ख़ा-ए-ईलाज (Home Remedies)तजवीज़ नहीं करता जो मुरूर-ए-अय्याम के साथ अपनी इफ़ादीयत खो दे, और ना इस में इस टाइप की कोई राय ज़िक्र की जाती है कि फ़ुलां ग़िज़ा अफ़ज़ल है या फ़ुलां दवा एस एस मर्ज़ में शिफ़ा बख़श है। हक़ीक़त ये है कि क़ुरआन ने सिर्फ एक चीज़ को तिब्बी ईलाज के ज़िमन में ज़िक्र किया है और मेरी मालूमात की हद तक आज तक किसी ने इस की मुख़ालिफ़त भी नहीं की है। क़ुरआन ने सराहत के साथ शहद(Honey) को शिफ़ा क़रार दिया है और मेरी मालूमात की हद तक किसी ने आज तक उस का इनकार भी नहीं किया। अगर कोई ये मफ़रूज़ा रखता है कि क़ुरआन, किसी इन्सानी अक़ल का कारनामा है, तो बजा तौर पर हमें उम्मीद रखनी चाहिए कि हम इस किताब के तालीफ़ करने वाले के फ़िक्री-ओ-अकली रुजहानात का कुछ ना कुछ पर तो (Reflection) इस में ज़रूर ढूंढ निकालेंगे। वाक़िया ये है कि मुतअद्दिद इन्साईक्लो पीडीयाज़ (Encyclopedias) और नाम निहाद इलमी किताबों में भी क़ुरआन को मुहम्मद सिल्ली अल्लाह अलैहि-ओ-सल्लम पर वारिद होने वाले ख़्यालात-ओ-तुहमात (Hallucinations)की पैदावार बताया गया है। (अलईआज़ बिल्लाह) चुनांचे ज़रूरी है कि हम ख़ुद क़ुरआन में इस दावे की सेहत-ओ-अदम-ए-सेहत के सबूत-ओ-दलायल तलाश करें। लेकिन क्या क़ुरआन में ऐसे दलायल या इशारे मौजूद हैं ?ये जानने से पहले ये जानना भी ज़रूरी होता है कि वो मुअय्यना इश्याय क्या हैं जो साहब-ए-किताब के ज़हन-ओ-दिमाग़ में हर-आन गर्दिश करती रहती थीं ?इस के बाद ही हम फ़ैसला कर सकेंगे कि मुहम्मद सिल्ली अल्लाह अलैहि-ओ-सल्लम के किन किन अफ़्क़ार ने क़ुरआन में अपने असरात छोड़े हैं।

तारीख़ इस्लामी के हर तालिब-इल्म को ये बात मालूम है कि आपकी ज़िंदगी मशक़्क़तों और परेशानीयों से भरी थी। आपकी हयात में ही देखते देखते आपके कई बच्चे वफ़ात पा गए। हज़रत ख़दीजहओ आपकी महबूब-ओ-वफ़ादार शरीक-ए-हयात थीं, वो आपका बेहद ख़्याल फ़रमातीं और हर मुश्किल घड़ी में आपका सहारा बनती थीं। आज़माईश-ओ-इबतिला के तारीक दौर में हर ग़म की शरीक बीवी भी इंतिक़ाल फ़र्मा जाती हैं। ये बात मलहूज़ ख़ातिर रहनी चाहिए कि एम अलममनीन हज़रत ख़दीजहओ फ़ौलादी किरदार की मालिक और बड़ी दानिशमंद ख़ातून थीं। अहादीस में आया है कि आप पहली वही के नुज़ूल पर सरासीमगी में तेज़ी से घर वापिस लौटे और सारा माजरा हज़रत ख़दीजहओ को सुनाया। इस ज़माने को छोड़ यए, आज भी हमें कोई एसाअरब बाशिंदा नहीं मिल सकेगा जो ये एतराफ़ करे कि मैं फ़ुलां मौके़ पर इस दर्जा ख़ौफ़-ज़दा हुआ कि भाग कर अपनी अहलिया के पास जा पहुँचा अरब हज़रात आम तौर पर ऐसा नहीं करते। लेकिन ये वाक़िया हज़रत ख़दीजहओ की असर आफ़रीं (Influential)और ताक़तवर शख़्सियत की दलील है। ये उन मौज़ूआत में से कुछ की मिसालें हैं जिनके बारे में क़वी अंदाज़ा है कि उन्होंने बतक़ाज़ाए बशरियत, मुहम्मद के शफ़ीक़ दिल में अपने असरात ज़रूर छोड़े होंगे। लेकिन ये चंद मिसालें ही मेरे नुक़्ता-ए-नज़र की भरपूर ताईद करती नज़र आती हैं। मेरा नुक़्ता-ए-नज़र ये है कि अगर क़ुरआन-ए-करीम मुहम्मद के ला शऊर इन्सानी ज़हन की इख़तिरा और ईजाद है, तो इस में ज़रूर बालज़रोर इन जांगुसिल वाक़ियात का तज़किरा या उनकी तरफ़ थोड़ा बहुत इशारा दिखाई पड़ना चाहिए, लेकिन हक़ीक़त-ए-वाक़िया उस के बरअक्स है। क़ुरआन कहीं पर भी मुहम्मद के बच्चों की मौत, प्यारी शरीक-ए-हयात की जुदाई और अव्वल वही के नतीजे में पैदा होने वाला ख़ौफ़, जिसको आपने बाहसन तरीक़ अपनी ज़ौजा मुहतरमा के साथ बाँटा था, क़ुरआन कहीं भी तफ़सीलन या इजमालन इन बशरी एहसासात-ओ-जज़बात का तज़किरा करता दिखाई नहीं पड़ता। नफ़सियाती नुक़्ता-ए-नज़र से भी ये बात मुस्तबइद है कि इन चीज़ों ने मुहम्मद सिल्ली अल्लाह अलैहि-ओ-सल्लम के दिल-ओ-दिमाग़ पर गहरे असरात मुर्तसिम ना किए होंगे। अब अगर ये क़ुरआन मुहम्मद सिल्ली अल्लाह अलैहि-ओ-सल्लम के बशरी ज़हन की ईजाद है तो इस में इन वाक़ियात के गहरे असरात, या कम अज़ कम उनके मुताल्लिक़ अदना इशारा तो होना ही चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है, और ये ना होना क़ुरआन के कलाम-ए-इलाही होने का अटल सबूत है।

क़ुरआन को इलमी तौर पर देखने की भी ज़रूरत है। क़ुरआन इलमी सतह पर हमें ऐसे खज़ाने अता कर सकता है जिनके उश्र-ए-अशीर से भी दीगर सहाइफ़ के औराक़ ख़ाली हैं। आज दुनिया को क़ुरआन के लाज़वाल इलमी सरचश्मा की तलाश है और वो जितना जल्द उस को पाले उस के लिए बेहतर होगा। दुनिया में आज भी ऐसे लोगों की बड़ी तादाद मौजूद है जो कायनाती निज़ाम के बारे में अपने मुनफ़रद अफ़्क़ार-ओ-नज़रियात रखते हैं। ऐसे लोग हर जगह पाए जाते हैं, लेकिन संजीदा इलमी हलक़ों में उनकी गुफ़्तगु सुनना तक गवारा नहीं किया जाता। ऐसा क्यों है ?इस का सबब ये है कि गुज़श्ता सदी के अवाख़िर से इलमी हलक़ों में किसी भी मफ़रूज़ा या तजुर्बा के दरुस्त होने, ना होने के लिए एक उसूल तनक़ीअ बर बनाए तग़लीत (Falsificaion Test) मुतय्यन कर दिया गया। अहल-ए-इलम के अलफ़ाज़ में वो ज़रीं उसूल ये है :अगर तुम्हारे पास सिर्फ कोई थियूरी है तो बराहे मेहरबानी उसे समझाने में हमारा वक़्त ज़ाएअ ना करो, अलबत्ता अगर तुम्हारे पास इस थियूरी की सेहत वाद म-ए-सेहत को साबित करने का कोई अमली तरीक़ा मौजूद है तो हम सुनने के लिए तैयार हैं। इसी मयार के इत्तिबा में इलमी हलक़ों ने सदी के आग़ाज़ में आइन्स्टाइन(Einstein) की पज़ीराई की, आइन्स्टाइन ने एक नई थियूरी (Theory of Relativity)पेश की और कहा:मेरा मानना है कि कायनात इस तर्तीब पर चल रही है, तुम्हारे पास मेरे नज़रिया को ग़लत या सही जांचने के तीन रास्ते हैं। और फिर छः साल की मुख़्तसर मुद्दत में इस के नज़रिए ने तीनों रास्तों को कामयाबी के साथ उबूर कर लिया। इस से ये साबित नहीं होता कि फ़िलवाक़े आइन्स्टाइन कोई अज़ीम इन्सान था, अलबत्ता इतना ज़रूर साबित होता है कि वो इस लायक़ था कि इस की बात को बग़ौर सुना जाये।

क़ुरआन अपनी हक़्क़ानियत के सबूत में इन्सानों के सामने ईसी नौईयत का मईआर-ए-तफ़तीश पेश करता है। इस मयार की रोशनी में क़ुरआन के बाअज़ हक़ायक़ ने माज़ी में अपनी सेहत का लोहा मनवाया है, जबकि इस में कुछ हक़ायक़ अभी ज़माने से अपनी तसदीक़ के मुंतज़िर हैं। क़ुरआन इस बात की सराहत करता है कि अगर ये किताब अपने कलाम-ए-इलाही होने के दावे में झूटी है तो तुम फ़ुलां तरीक़े से उसे ग़लत साबित कर के दिखाओ। हैरतनाक बात ये है कि चौदह सदीयां गुज़र जाने के बाद भी आज तक किसी ने इस के दावे के मुताबिक़ उस के तजवीज़ करदा तरीक़े से उसे बातिल साबित नहीं किया। ये इस बात की खुली दलील है कि मुख़ालिफ़ीन की हज़ार जुज़ बुज़ के बावजूद ये किताब अपने दावे में सद फ़ीसद सच्ची और काबिल-ए-एतिमाद है। मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि औरों के पास इस क़बील की कोई चीज़ नहीं। उनके पास झूट और सच्च साबित करने वाला ऐसा कोई मयार, कोई बुरहान नहीं। बल्कि उन बेचारों की अक्सरीयत को इस बात का एहसास तक नहीं कि हमें अपने अक़ाइद-ओ-नज़रियात को पेश करने के पहलू बह पहलू मुख़ातब को उनकी तरदीद-ओ-तग़लीत का मौक़ा भी देना चाहिए। बहरहाल इस्लाम ऐसा करता है, क़ुरआन अपने मुख़ातबों को इस बात की दावत देता है कि आओ और मुझको ग़लत साबित कर के दिखाओ। ये क़ुरआन की चौथी सूरत में है, मैं आपको बयान नहीं कर सकता कि पहली बार इस आयत को पढ़ कर मेरी क्या कैफ़ीयत हुई थी। क़ुरआन का चैलेंज ये है :
क्या ये लोग क़ुरआन पर ग़ौर नहीं करते ?अगर ये अल्लाह के सिवा किसी और की तरफ़ से होता तो इस में बहुत कुछ इखतिलाफ़ बयानी पाई जाती। (क़ुरआन 4:82):
ये क़ुरआन का सीधा और खुला चैलेंज है। ये असलन मुनकरीन को सीधी दावत देता है कि वो इस में कोई ख़ता या ग़लती निकाल कर दिखाएंगे। इस नौईयत की दावत-ए-मुबारिज़त देना किसी इन्सान के बस का रोग नहीं हो सकता। दुनिया में कोई आख़िरी दर्जा का आलम-ओ-फ़ाज़िल शख़्स भी इस बात की जुर्रत नहीं कर सकता कि इमतिहान गाह से उठते हुए अपनी कापी के पहले सफ़े पर ये नोट आवेज़ां कर दे कि इस कापी में मुंदरज जुमला जवाबात दरुस्त हैं और अगर किसी जांचने वाले को अपनी क़ाबिलीयत का ग़र्रा हो तो इस दावे को ग़लत साबित कर के दिखाए। ऐसा कोई नहीं कर सकता क्योंकि वो जानता है कि इस को पढ़ कर कोई भी मुम्तहिन इस में ग़लती को ढ़ूंढ़े बग़ैर सारी रात सो ना सकेगा। लेकिन यक़ीन जानिए कि क़ुरआन अपना पहला तआरुफ़ उसी हैसियत से कराता है। अपने पढ़ने वाले के साथ क़ुरआन का एक और रवैय्या भी इंतिहाई हैरतनाक है। वो क़ारईन के सामने गूना गो मौज़ूआत पर बड़ी शरह वबसत के साथ अपनी मालूमात पेश करता है और चलते चलते कुछ इस किस्म की नसीहत कर देता है कि अगर तुम्हें मज़ीद मालूमात दरकार हूँ या मेरी बताई बातों से तुम मुतमइन ना हुए हो तो ऐसा करो कि मुताल्लिक़ा मौज़ू के माहिरीन से इस्तिफ़सार कर के देख लू। ये भी एक ग़ैर मानूस और अजीब बात है। ऐसा तक़रीबन नामुमकिन है कि कोई शख़्स जो जुग़राफ़िया (Geography), नबातीयात(Botany), हयातयात(Biology) जैसे उलूम परा थारटी ना होने के बावजूद मुताल्लिक़ा मौज़ूआत पर क़लम उठाए। और फिर उस का दावे भी हो कि अगर कोई मेरी किताब के मशमूलात से मुत्तफ़िक़ नहीं है तो उसे इख़तियार है कि वो इन मौज़ूआत से उनका तजज़िया करा ले कि आया इस किताब में फ़िलवाक़े कोई ग़लत बात कही गई है या नहीं ?

मज़ीद हैरत की बात ये है कि बेशुमार दानिशवरों ने साईंसी मौज़ूआत पर बयान करदा करानी तफ़सीलात को अपनी तहक़ीक़ वजसतजो का मैदान बनाया और इस के नतीजे में हैरत-अंगेज़ अकतशाफ़ात अंजाम दिए। माज़ी में लिखी गई मुस्लमान अहल-ए-इलम-ओ-हिक्मत की किताबों में मौजूद करानी आयात के हवाले इस बात का खुला सबूत हैं कि ये हज़रात अपने इलम-ओ-तहक़ीक़ मैं किस दर्जा क़ुरआन की रोशनी से मुस्तफ़ीज़ होते रहे थे। इस्लाफ़ की ये किताबें इशारा करती हैं कि इन बुज़ुर्गों को मज़कूरा बाला इलमी मैदानों में किसी मख़सूस शैय की तलाश होती थी जिसको क़ुरआन ने क़तई हक़ीक़त की हैसियत से बयान कर दिया था। उनके एतराफ़ात से मालूम होता है कि करानी तसरीहात ने उन्हें इस रुख में चलने पर आमादा किया था, क्योंकि क़ुरआन का अंदाज़ इस मारज़ में भी सबसे निराला है। वो किसी भी मौज़ू पर बात करते हुए आख़िरी और कली हक़ायक़ बयान कर देता है। उबूरी मराहिल की तफ़सीलात से तार्रुज़ ना करते हुए वो सिर्फ इतना इशारा कर देता है कि ये चीज़ें अपनी तमाम-तर तफ़सीलात के साथ कहाँ कहाँ मिल सकती हैं। साथ ही वो हर इन्सान को बेहस-ओ-तहक़ीक़ की दावत देता है और बुला दलील व जसतजो के अंधी तक़लीद के रवी्ये को काबिल-ए-मुज़म्मत क़रार देता है :
وَالَّذِیْنَ اِذَا ذُکِّرُوا بِآیَاتِ رَبِّہِمْ لَمْ یَخِرُّوا عَلَیْْہَا صُمّاً وَعُمْیَاناً (الفرقان:۷۳)
जिन्हें अगर उनके रब की आयात सुना कर नसीहत की जाती है तो वो इस पर अंधे और बहरे बन कर नहीं गिर जाते ।
http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/25:73
हालिया दिनों में मुस्लमानों ने इस तरफ़ ख़ातिर-ख़्वाह तवज्जा दी है। चंद साल क़बल सऊदी हुकूमत ने अपने दार-उल-सलतनत रियाज़ में मुतअद्दिद मतख़सस अहल-ए-इलम को इस बात की दावत दी कि वो रहम-ए-मादर में बच्चे के इर्तिक़ाई मराहिल का जायज़ा क़ुरआन के बयान करदा हक़ायक़ की रोशनी में लें। इस इलमी इजतिमा को मुनाक़िद करने में सऊदी अरबाब-ए-हुकूमत के पेश-ए-नज़र दर्ज-ए-जे़ल करानी हुक्म था:
فَاسْأَلُواْ أَہْلَ الذِّکْرِ اِن کُنتُمْ لاَ تَعْلَمُونَ (الانبیاء :۷)
फ़अस॒णलूवा॒ णह॒ल अलज़ी-ए-एन कुनतुम॒ ला तअ॒लमूओन (अलानबया-ए-:७
तुम लोग अगर इलम नहीं रखते तो अहल-ए-इलम से पूछ लू।http://tanzil.net/#trans/hi.hindi/21:7 
हाज़िरीन में टोरंटो यूनीवर्सिटी के शोबा-ए-इलम अलजनीन (Embryology)के सदर प्रोफ़ैसर कैथ मोर(Keith Moore) भी थे। मौसूफ़ ने इस मौज़ू पर दर्सी किताबें तैयार की हैं और उनका शुमार इस मौज़ू पर दुनिया के मादूद-ए-चंद नुमायां अहल-ए-इलम में होता है। सऊदी हुकूमत ने उनसे मुतालिबा किया था कि वो अपने इख़तिसास की रोशनी में इस मौज़ू पर क़ुरआन के बयान करदा हक़ायक़ का जायज़ा लें और उनकी सेहत-ओ-अदम-ए-सेहत पर अपनी बेलाग राय का इज़हार करें। रियाज़ में क़ियाम के दौरान उनको तमाम मतलूबा आलात वो साइल बहम पहुंचाए गए और हर किस्म की मदद फ़राहम की गई। यक़ीन जानिए कि वो अपने इस तजुर्बा से इस दर्जा मुतास्सिर हुए कि बाद में उन्होंने अपनी तसनीफ़ करदा किताबों में कई बड़ी तबदीलीयां कीं। उन्होंने अपनी मशहूर-ए-ज़माना किताब हम विलादत से पहले (Before We are Born) के दूसरे ऐडीशन में इज़ाफ़ा करते हुए, इलम अलजनीन (Embryology) पर करानी तफ़सीलात को बड़े मुदल्लिल अंदाज़ में दरुस्त क़रार दिया। इस से जहां ये साबित होता है कि क़ुरआन हर एतबार से ज़माना से साबिक़ है, वहीं ये भी मालूम होता है कि क़ुरआन के पैरोकारों का इलम उस के ना मानने वालों से कहीं ज़्यादा होता है।
मेरी ख़ुशनसीबी थी कि मैंने प्रोफ़ैसर के टीवी प्रोग्राम को मुसलसल देखा। इस प्रोग्राम में प्रोफ़ैसर ने अपने तजुर्बात के नताइज पेश किए थे। इन दिनों इस प्रोग्राम का बड़ा चर्चा था, प्रोफ़ैसर मौसूफ़ ने अपने प्रोग्राम में चंद सिलाईड तस्वीरें भी दिखाई थीं। उन्होंने कहा था कि रहम-ए-मादर में जनीन के नशो-ओ-नुमा के बारे में क़ुरआन ने जो मालूमात ज़िक्र की हैं वो अब से तीस साल पहले तक भी इलमी दुनिया में ग़ैर-मारूफ़ थीं। उन्होंने बताया कि वो बज़ात-ए-ख़ुद क़ुरआन की बयान करदा मालूमात में एक चीज़ से आज तक क़तई नावाक़िफ़ थे। वो ये कि जनीन (Embryo) अपने इर्तिक़ाई मराहिल में से एक मरहला में अलका(जोंक, Leech) से मुशाबहत रखता है और ये तशबीया सद फ़ीसद मुताबिक-ए-वाक़िया है। अपनी किताब में इस वाक़े में उन्होंने मज़ीद इज़ाफ़ा करते हुए लिखा है कि दर-हक़ीक़त मैंने कभी इस से पहले जोंक को नहीं देखा था। इस करानी तशबीया की सच्चाई जानने के लिए मैंने टोरंटो यूनीवर्सिटी के शोबा-ए-हैव इनयात (Zoology)से रुजू किया और वहां से जोंक की फ़ोटो हासिल की। अपने तक़ाबुली मुताला को मबनी बर सेहत पा कर उन्होंने इस मौज़ू पर तहरीर की हुई अपनी दर्सी किताबों में जनीन और जोंक की तसावीर को शाय किया। इस के बाद प्रोफ़ैसर मौसूफ़ ने एक किताब इलम अलाजना अलसरीरी(Clinical Embryology ) के नाम से तहरीर की और इस में क़ुरआन की बताई हुई मालूमात की रोशनी में अपने इलमी नताइज पेश किए। इस किताब की इशाअत से कैन्डा के इलमी हलक़ों में हंगामा बपा हो गया। तूल-ओ-अर्ज़ में अख़बारात की सुर्ख़ियाँ इस किताब की नज़र हो गईं। बाअज़ अख़बारात का रवैय्या क़दरे मुज़हका ना भी था, मसलन एक अख़बार की सुर्ख़ी ये थी: Surprising things found in Ancient Book (हैरत-अंगेज़ चीज़ें एक क़दीम किताब में पाई गईं )।

इस मिसाल से मालूम होता है कि ज़्यादा-तर आम लोगों को वाक़िया की हक़ीक़त का इलम नहीं था। एक प्रैस रिपोर्टर ने प्रोफ़ैसर कैथ मोर से सवाल करते हुए पूछा था:क्या इस बात का इमकान नहीं है कि क़दीम अरबों को इन मालूमात का इलम रहा हो और क़ुरआन के मुअल्लफ़ ने उनको किताबी शक्ल में महफ़ूज़ कर दिया हो?हो सकता है कि अरबों ने माज़ी में अमल-ए-जर्राहत की इबतिदाई शक्ल ईजाद कर ली हो और चंद औरतों के पेट फाड़ कर इस किस्म की चीज़ें जान ली हूँ ?सवाल का जवाब देते हुए प्रोफ़ैसर मौसूफ़ ने कहा था :आप यहां एक अहम नुक्ता फ़रामोश कर रहे हैं। वो ये कि जनीन के इबतिदाई मराहिल की तसावीर जो आज हर जगह आसानी से मिल जाती हैं उनको सिर्फ और सिर्फ ख़ूओरद बैन (Microscope) के ज़रीया से लिया जा सकता है और ख़ूओरद बैन कब वजूद में आई ये आपकी जनरल नॉलिज में होगा ही। ये कहना फ़ुज़ूल है कि चौदह सौ साल पहले किसी ने जनीन के इर्तिक़ाई मराहिल जानने की कोशिश की थी। क्योंकि इस ज़माने में लोग इस को देख भी नहीं सकते थे। क़ुरआन में मज़कूरा जनीन के इबतिदाई मराहिल की मालूमात को मुजर्रिद आँख से देखना मुम्किन ही नहीं और ख़ूओरद बेन का आला महिज़ दो सदी क़बल तक दुनिया में नापैद था। ये सवाल पूछे जाने पर कि अब आप उस की क्या तवज्जीया करेंगे, उन्होंने साफ़ अलफ़ाज़ में कहा था:उस की तवज्जीया उस के सिवा मुम्किन नहीं कि क़ुरआन अल्लाह रब अलालमीन का नाज़िल करदा कलाम है।

मज़कूर बाला मिसाल में क़ुरआन के इलमी बयानात की तसदीक़ करने वाला शख़्स अगरचे ग़ैर मुस्लिम था, लेकिन इस बात से कोई उसूली फ़र्क़ नहीं पड़ता। अगर कोई आम आदमी इस नौईयत के करानी बयानात की वकालत करे तो ज़रूरी नहीं कि हम उस की बात क़बूल कर लें। लेकिन अस्हाब-ए-इलम को हासिल एतबार-ओ-एहतिराम के पेश-ए-नज़र अगर कोई मुतबह्हिर आलिम, जिसकी अपने इख़तिसास पर क़ुदरत और कमाल मुस्लिम-ओ-मक़बूल हो, इस बात का दावे करे कि मेरे मुताल्लिक़ा मौज़ू पर वारिद करानी बयानात सद फ़ीसद दरुस्त हैं तो कोई वजह नहीं कि हम उस के नताइज को सही ना मानें। प्रोफ़ैसर कैथ मोर के तजुर्बा से सबक़ लेते हुए उनके एक हमपेशा साथी ने भी इस क़िस्म कोशिश की। प्रोफ़ैसर मार्शल जोनसन(Marshal Johnson)जो टोरंटो यूनीवर्सिटी के शोबा-ए-इलम तबक़ात-उल-अरज़((Geologyमें उस्ताद थे, उन्होंने अपने मुस्लिम दोस्तों से इस बात का मुतालिबा किया कि वो उनके मैदान-ए-इख़तिसास से मुताल्लिक़ क़ुरआन में वारिद मालूमात को इकट्ठा कर के उन्हें दें। और फिर उनके इलमी नताइज ने दूसरी बार लोगों को हैरत वासताजाब में मुबतला कर दिया क्योंकि इस मौज़ू पर भी करानी बयानात से जदीद साईंसी इन्किशाफ़ात मुकम्मल हम-आहंग हैं। मुख़्तलिफ़ इलमी मौज़ूआत पर करानी बयानात की रंगा-रंगी को देखते हुए हर इलमी मौज़ू पर बेहस-ओ-तहक़ीक़ करना एक मुस्तक़िल किताब का तालिब है और इस के लिए तवील मुद्दत भी दरकार होगी जो इस मुख़्तसर से मक़ाला में मुम्किन नहीं।

मज़कूर बाला तहक़ीक़ी बयानात के तज़किरे से मेरा मक़सूद ये कहना है कि क़ुरआन-ए-करीम मुख़्तलिफ़ मौज़ूआत पर अपनी राय बड़े नपे तुले लेकिन वाज़िह उस्लूब में पेश कर देता है और अपने क़ारी को वसीयत करता है कि वो इन मौज़ूआत के मतख़सस उल्मा-ओ-माहिरीन की तहक़ीक़ात की रोशनी में करानी बयानात को जांचे और अहल-ए-इलम-ओ-फ़ज़ल से मुराजअत-ओ-मुशावरत के बाद ही क़ुरआन की हक़्क़ानियत प्रसाद करे। बला-शुबा क़ुरआन का अपनाया हुआ ये जुर्रत मंदाना मौक़िफ़ हमें दुनिया की किसी दूसरी किताब में नहीं मिलता। इस से ज़्यादा हैरतनाक बात ये है कि क़ुरआन जहां कहीं भी अपनी मालूमात पेश करता है वो बेशतर औक़ात अपने क़ारी से ताकीद करता जाता है कि इन बातों को इस से पहले तुम नहीं जानते थे। वाक़िया ये है कि दुनिया में आज कोई ऐसी मुक़द्दस किताब मौजूद नहीं है जो इस तरह की सराहत करती हो। मिसाल के तौर पर अह्दनामा क़दीम (Old Testament)में बहुत सी ऐसी तारीख़ी मालूमात मिलती हैं कि फ़ुलां बादशाह का ज़माना ये था और उसने फ़ुलां बादशाह से जंग की थी, या फ़ुलां फ़ुलां बादशाह के इतने और इतने बेटे थे वग़ैरा वग़ैरा। लेकिन इस के साथ साथ हमेशा ये शर्त भी मिलती है कि अगर तुम्हें मज़ीद मालूमात दरकार हैं तो फ़ुलां फ़ुलां किताब से रुजू करो, यानी साबिक़ अलज़कर मालूमात का मुसद्दिर कुछ किताबें हैं जिनकी तरफ़ बह वक़्त-ए-ज़रूरत रुजू किया जा सकता है। लेकिन क़ुरआन का मुआमला उस के बिलकुल बरअकस है, वो अपने पढ़ने वाले को मालूमात फ़राहम करते हुए सराहत कर देता है कि ये बातें अपने आप में तुम्हारे लिए नई हैं और किसी ख़ारिजी मुसद्दिर से नहीं ली गई हैं। और क़ुरआन की ये नसीहत तो बरक़रार रहती ही है कि इस दावे पर शक करने वाले अगर चाहें तो बेहस-ओ-तहक़ीक़ कर के इस को ग़लत साबित करने की कोशिश कर लें।

हैरत-अंगेज़ बात ये है कि चौदह सदीयों के तवील अरसा में कोई एक शख़्स भी इस दावे को चैलेंज नहीं कर सका। हती्या कि कुफ़्फ़ार मक्का जो इस्लाम दुश्मनी में कोई दक़ीक़ा फ़िरोगुज़ाश्त नहीं रखते थे, वो भी क़ुरआन के इस दावे की तरदीद ना कर सके। कोई एक मुतनफ़्फ़िस भी ये अदा-ए-ना कर सका कि क़ुरआन की मुबय्यना मालूमात सैकिण्ड हैंड हैं और मुझे मालूम है कि मुहम्मद ने उनको कहाँ से चुराया है। इस किस्म का दावे ना किए जाने की वजह ये थी कि वाक़ातन ये हक़ायक़ अपने आप में जदीद थे। चुनांचे बेहस वजसतजो पर आमादा करने वाली करानी हिदायत की पैरवी में ख़लीफ़ा-ए-राशिद सानी हज़रत उम्र बिन अलख़ताबओ ने अपने अहद-ए-ख़िलाफ़त में एक वफ़द को सद-ए-(दीवार)ज़ुलक़ुरनैन की तलाश में भेजा। करानी वही से पहले अरबों ने इस दीवार के बारे में कुछ नहीं सुना था, लेकिन चूँकि क़ुरआन ने इस की अलामात-ओ-क़राइन वाज़िह कर दिए थे इसलिए उन्होंने इस दीवार को ढूंढ निकाला। और दर-हक़ीक़त ये दीवार आज भी मौजूदा रूस के डरबनड ((Durbendनामी मुक़ाम पर वाक़्य है। यहां एक बात ज़हन नशीं कर लीजिए कि अगरचे क़ुरआन में मुतअद्द चीज़ें बड़ी सेहत और दिक़्क़त रस्सी के साथ बयान की गई हैं लेकिन इस का ये मतलब नहीं कि हर वो किताब जो चीज़ों को दरूस्तगी और बारीकी से बयान कर दे वो मंज़िल मन अल्लाह क़रार पाएगी। सही बात ये है कि सेहत-ओ-बारीकी, वह्य-ए-इलाही होने की शर्तों में से सिर्फ एक शर्त है। मिसाल के तौर पर टेलीफ़ोन डायरेक्टरी अपनी मालूमात में सही-ओ-दकी़क़ होती है लेकिन इस का ये मतलब नहीं कि वो मंज़िल मन अल्लाह है। फ़ैसलाकुन बात ये है कि करानी मालूमात के असल मंबा-ओ-मुसद्दिर को दलायल-ओ-बराहीन के ज़रीया साबित किया जाये, और ये ज़िम्मेदारी क़ुरआन के मुख़ातब की है। लिहाज़ा सूरत-ए-मसला कुछ इस तरह बनती है कि क़ुरआन अपने आप में एक अटल सच्चाई है, अब जिसको इस दावा में तरद्दुद हो वो क़तई दलीलों से इस की तरदीद कर के दिखाए। और ख़ुद क़ुरआन इस किस्म की बेहस-ओ-तमहीस की हिम्मतअफ़्ज़ाई करता है।
यहां ये इलमी हक़ीक़त भी हमारे ज़हनों से ओझल ना हो कि अगर कोई इन्सान किसी कायनाती मज़हरा ((Phenomenon की इलमी तवज्जीया ना कर सके तो उसे लाज़िमन दूसरों की तवज्जीहात की सदाक़त का एतराफ़ करना ही चाहिए। हम ऐसा नहीं कहते, लेकिन इस सूरत में इस शख़्स की ज़िम्मेदारी होगी कि बज़ात-ए-ख़ुद उस की कोई माक़ूल तवज्जीया बरामद कर के दिखाए। ये इलमी नज़रिया हमारी ज़िंदगी के बेशुमार तसव्वुरात पुर सादिक़ आता है लेकिन हैरत-अंगेज़ तौर पर ये करानी तहदी से मुकम्मल हम-आहंग होता दिखाई पड़ता है। क़ुरआन अपने मुनकरीन के सामने बड़ी परेशानियाँ खड़ी कर देता है, वो आग़ाज़-ए-गुफ़्तगु ही में अपने मुख़ालिफ़ से इस किस्म का अह्द ले लेता है कि अगर आप किसी हक़ीक़त को सही तस्लीम नहीं करते तो इस को ग़लत साबित कर के যब दिखाएंगे।
क़ुरआन की मुतअद्दिद आयतों में अल्लाह ताला ने ऐसे लोगों की शनाअत बयान की है जो हक़ायक़ सुनने के बावजूद अपनी सलाहीयतों के ज़रीये से उनको नहीं आज़माते और अक़ल के अंधे हो कर अपने इनाद-ओ-इनकार पर अड़े रहते हैं :
وَلَقَدْ ذَرَأْنَا لِجَہَنَّمَ کَثِیْراً مِّنَ الْجِنِّ وَالاِنسِ لَہُمْ قُلُوبٌ لآَ یَفْقَہُونَ بِہَا وَلَہُمْ أَعْیُنٌ لآَ یُبْصِرُونَ بِہَا وَلَہُمْ آذَانٌ لآَ یَسْمَعُونَ بِہَا أُوْلَ ئِکَ کَالأَنْعَامِ بَلْ ہُمْ أَضَلُّ أُوْلَ ئِکَ ہُمُ الْغَافِلُونَ (الاعراف:۹۷۱)
और ये हक़ीक़त है कि बहुत से जिन और इन्सान ऐसे हैं जिनको हमने जहन्नुम ही के लिए पैदा किया है। उनके पास दिल हैं मगर वो उनसे सोचते नहीं। उनके पास आँखें हैं मगर वो उनसे देखते नहीं। उनके पास कान हैं मगर वो उनसे सुनते नहीं। वो जानवरों की तरह हैं, बल्कि उनसे भी ज़्यादा गए गुज़रे, ये वो लोग हैं जो ग़फ़लत में खोए होई हैं।http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/7:179
 गोया क़ुरआन के अलफ़ाज़ में ऐसा शख़्स काबिल-ए-मलामत है जो मालूमात को सुनकर रद्द-ओ-क़बूल के लिए अपनी अकली सलाहीयतों को रूबा अमल नहीं लाता है।
क़ुरआन की सेहत-ओ-सदाक़त जांचने के और भी तरीक़े पाए जाते हैं। उनमें एक मुस्लिमा तरीक़ा असतनफ़ाद-ए-बदील (Exhausting the Alternatives)का है। बुनियादी तौर पर हम क़ुरआन का ये दावा देखते हैं कि वो वह्य-ए-इलाही है, और अगर ऐसा नहीं है तो किया है ?दूसरे अलफ़ाज़ में क़ुरआन अपने क़ारी को चैलेंज करता है कि इस के इलावा कोई तवज्जीया पेश करे, वर्क़ और स्याही से तैयार शूदा ये किताब कहाँ से आई है ?अगर ये अल्लाह की वही नहीं है तो इस का मुसद्दिर किया है ?हैरत-अंगेज़ बात ये है कि आज तक कोई इस मज़हरा की इतमीनान बख़श मुतबादिल तवज्जीया पेश नहीं कर सका है
ग़ैर मुस्लिमों की तरफ़ से क़ुरआन के मंज़िल मन अल्लाह ना होने के सिलसिले में जो तवज्जीहात अर्ज़ की गई हैं उनको दो बड़े अनवानों में तक़सीम किया जा सकता है। मुख़ालिफ़ीन की तमाम हर्ज़ा सराईआं इन दायरों से बाहर कम ही निकलती हैं। मुख़ालिफ़ीन का एक गिरोह जो मुतअद्दिद अस्हाब-ए-इलम, साईंसदानों और ताक़्क़ुल ज़दा लोगों पर मुश्तमिल है, कहता है कि बड़े तवील अरसा तक क़ुरआन और मुहम्मद की सीरत का मुताला कर के हम इस नतीजे पर पहूंचे हैं कि दर-हक़ीक़त मुहम्मद एक अबक़री (Genius)इन्सान थे, जिनको अपने बारे में (नऊज़-बिल-लाह) ये वहम हो गया था कि वो एक नबी हैं। इस की वजह उनकी अक़ल में फ़ुतूर और ना मुसाइद हालात में उनकी परवरिश-ओ-पर्दाख़्त है। एक जुमला में इस का मतलब ये है कि मुहम्मद हक़ीक़तन एक फ़रेब-ख़ुर्दा(Fooled) इन्सान थे। इस ग्रुप के बिलमुक़ाबिल मुख़ालिफ़ीन का दूसरा गिरोह है जिसका कहना है कि दर असल मुहम्मद एक झूटे इन्सान थे। तुर्फ़ा-तमाशा ये है कि ये दोनों गिरोह आपस में भी कभी क़ुरआन के मुताल्लिक़ इत्तिफ़ाक़-ए-राय नहीं कर सके हैं। इस्लाम और इस्लामी तारीख़ पर लिखे गए बहुत सारे मग़रिबी मुसादिर-ओ-मराजे में इन दोनों मफ़रूज़ात का तज़किरा मिलता है। वो पहले पैराग्राफ़ में मुहम्मद को एक फ़रेब-ख़ुर्दा, मुख़्तल उल-हवास इन्सान की शक्ल में पेश करेंगे और मअन अगले इक़तिबास में उन्हें झूटा, कज़्ज़ाब के अलक़ाब से नवाज़ते दिखाई देंगे। हालाँकि अंधी मुख़ालिफ़त के ज़ोर में ये हज़रात इल्म-ए-नफ़सियात की अबजदी हक़ीक़त को भी दानिस्ता या नादानिस्ता फ़रामोश कर जाते हैं कि कोई इन्सान बैयकवक़त महबूस उल-अक़ल और झूटा शातिर(Imposter) नहीं हो सकता है।
मिसाल के तौर पर अगर कोई शख़्स मख़बूत उल-अक़ल है और अपने आपको नबी समझ बैठा है तो इस का मामूल ये नहीं होगा कि वो रात के आख़िरी पहर में जाग कर अगले दिन के लिए लायेहा-ए-अमल तैयार करे ताकि उस की नबुव्वत का ढोंग जारी रह सके। अगर वो मुख़्तल उल-अक़ल है तो वो हरगिज़ ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि वो अपनी दानिस्त में सच्चा नबी होगा और उसे कामिल यक़ीन होगा कि आइन्दा कल जो भी नागहानी सचवीशन रौनुमा होगी, वह्य-ए-इलाही हर मौक़ा पर इस की दादरसी कर देगी। और वाक़िया है भी कि क़ुरआन-ए-क्रीम का एक बड़ा हिस्सा कुफ़्फ़ार-ओ-मुशरिकीन के सवालात-ओ-एतराज़ात के जवाब में नाज़िल हुआ है। मुख़्तलिफ़ ख़लफ़ियों (Back Grounds) के हामिल मुख़ालिफ़ीन अलग अलग सतहों पर आपसे सवालात दरयाफ़त करते थे और अल्लाह की जानिब से वही के ज़रीये आपको इस से बाख़बर किया जाता था। लिहाज़ा अगर आंहुज़ूर को दिमाग़ी ख़लल(Mind Delusion) का शिकार बावर कर भी लिया जाये तो फ़ित्री तौर पर उनका रवैय्या झूटे शख़्स का सा नहीं हो सकता। ग़ैर मुस्लिम मुख़ालिफ़ीन इलमी सतह पर कभी इस बात का इक़रार नहीं कर सकते कि ये दोनों अज़ कबील-ए-अज़्दाद सिफ़तें किसी एक आदमी में यकजा हो सकती हैं। कोई भी इन्सान या तो फ़रेब-ख़ुर्दा होगा या झूटा, बैयकवक़त दोनों हरगिज़ नहीं हो सकता। जिस चीज़ पर मैं ज़ोर देना चाहता हूँ वो ये कि मुताल्लिक़ा दोनों सिफ़ात दो मुतज़ाद शख़्सियतों का मज़हर हैं और एक शख़्स में उनका पाया जाना सिर्फ ख़ाबों की दुनिया में मुम्किन है।
आने वाले मंज़र नामे के ज़रीया आप जान लेंगे कि किस तरह ग़ैरमुस्लिम मुख़ालिफ़ीन, कोल्हू के बैल की मानिंद एक दायरे में घूमते घूमते ख़ुद अपने खोदे हुए एतराज़ात के गड्ढों में आ गिरते हैं। अगर आप उनमें से किसी से पूछें कि तुम्हारे फ़हम के मुताबिक़ ये क़ुरआन कहाँ से आया है ?वो जवाब देगा कि ये एक मख़बूत उल-अक़ल इन्सान की ख़्याल आफ़रीनी का करिश्मा है। अब आप इस से पूछें : अगर ये किसी पागल ज़हन की पैदावार है तो इस में ये इलमी बातें कहाँ से आ गईं ?इस को तो तुम भी मानोगे कि क़ुरआन में ऐसी मालूमात का तज़किरा है जो उस वक़्त अरबों को नहीं मालूम थीं , अब वो लाशऊरी तौर पर अपने जवाब में तबदीली करते हुए कहेगा: हो सकता है कि मुहम्मद मख़बूत उल-अक़ल ना हूँ, और इन्होंने ये मालूमात बाअज़ ग़ैर मुल्की अजनबियों से सुनकर उनको अपनी तरफ़ मंसूब कर दिया हो, और इस बहाने झूट-मूट नबुव्वत का दावे भी कर दिया हो। इस नुक़्ता पर आकर आप इस से पूछें : अगर तुम्हारे मुताबिक़ मुहम्मद झूटे नबी थे तो क्या वजह है कि उन्हें अपने आप पर इस दर्जा एतिमाद क्यों था?क्यों उनके तमाम तसर्रुफ़ात से फ़ी अलबदीहा झलकता है कि वो अपने आपको सच्चा नबी मुतसव्वर करते थे ?इस नुक़्ता पर पहूंच कुरोह तंगनाए में फंसी बिल्ली की तरह अपने साबिक़ा मौक़िफ़ की तरफ़ पलटी मारते हुए कहेगा : मुम्किन है कि वो फ़िलवाक़े झूटा ना हो, बल्कि मख़बूत उल-अक़ल हो जो कि ख़ुद की नबुव्वत में यक़ीन करता था यहां आकर बेहस-ओ-तमहीस का दायरा घूम कर फिर वहीं आ रुकता है जहां से इस की इबतिदा हुई थी।
जैसा कि मैं पीछे ज़िक्र कर चुका हूँ कि कुरान-ए-करीम में ऐसे बहुत सारे इलमी हक़ायक़ मज़कूर हैं कि जिनको अल्लाह आलिमुलगै़ब के इलावा किसी और की तरफ़ मंसूब नहीं किया जा सकता है। अली सबील उल-मिसाल: कौन था जिसने मुहम्मद को सद-ए-ज़ी अलक़रनीन के मुताल्लिक़ बताया जबकि वो जज़ीरৃ अलारब की हदूद से बाहर शुमाल मैं हज़ारों केलो मीटर की दूरी पर वाक़्य है, ?कौन था जिसने इल्म-ए-जनीन के बारे में बिलकुल दरुस्त मालूमात से मुहम्मद को आगाह किया था?इन हक़ायक़ की कसरत को देखते हुए भी जो लोग उनको ज़ात-ए-इलाही का फ़ैज़ान नहीं मानना चाहते, आटोमीटीकली उनके पास सिर्फ एक ऑपशन बाक़ी रह जाता है। यानी किसी गुमनाम और मजहूल शख़्स ने ये बेश-बहा मालूमात का ख़ज़ाना, मुहम्मद की झोली में डाल दिया था, जिसका ख़ातिर-ख़्वाह इस्तिहसाल करते हुए मुहम्मद ने नबुव्वत का दावे कर दिया। लेकिन इस ग़लत मफ़रूज़ा को बड़ी आसानी के साथ महिज़ एक मुख़्तसर से सवाल के ज़रीया रद्द किया जा सकता है :अगर बमूजब इस मफ़रूज़ा के मुहम्मद एक झूटे नबी थे, तो आख़िर उन्हें अपने झूट पर इतना भरोसा क्यों था?क्यूँ-कर इन्होंने एक बुत पुरसताना माहौल में राइज मज़हबी अक़ाइद वरसोम परइस दर्जा बेबाकी-ओ-शुजाअत के साथ तेज़-ओ-तुंद तन्क़ीदें कीं, जिसका तसव्वुर भी किसी नफ़ाक़ परस्त झूटे मुद्दई-ए-नबुव्वत से नहीं किया जा सकता?। ये बेमिसाल ख़ुद-एधतिमादी-ओ-बेबाक शुजाअत सिर्फ और सिर्फ सच्ची वह्य-ए-इलाही की सरपरस्ती में मयस्सर आ सकती है।
यहां में आपको एक मिसाल देता हूँ, इस्लामी तारीख़ के अदना तालिब-इल्म को भी ये बात मालूम होगी कि आँहज़रत का एक चचा अबूलहब दीन-ए-इस्लाम की दावत का कट्टर मुख़ालिफ़ था। इस्लाम से इस की दुश्मनी का अंदाज़ा इस बात से किया जा सकता है कि वो मलऊन रास्ता चलते आपका पीछा किया करता था, जहां आप रुक कर किसी को वाज़-ओ-तब्लीग़ फ़रमाते ये फ़ौरन जा पहुंचता और बड़ी शद-ओ-मद की साथ आपकी तरदीद करने लगता। उल-ग़र्ज़ ज़िंदगी के हर हर शोबे में मुहम्मद की लाई हुई तालीमात के बरअक्स करना उस की ज़िंदगी का शेवा था। इसी अब्बू लहब की मौत से तक़रीबन दस साल पहले आँहज़रत पर एक छोटी सूरत नाज़िल हुई। ये मुकम्मल सूरत अब्बू लहब से मुताल्लिक़ थी और यही उस का नाम भी पड़ा। इस सूरत ने पूरी वज़ाहत और क़तईयत के साथ अब्बू लहब को जहन्नुमी या दोज़ख़ी क़रार दिया है। दूसरे अलफ़ाज़ में मालूम तारीख़ में पहली बार किसी इन्सान को मुद्दत-ए-इमतिहान ख़त्म होने से पहले ही नतीजा बता दिया गया। क़ुरआन जो कलाम-ए-रब्बानी है इस में अगर किसी के बारे में सराहत के साथ अहल-ए-जहन्नुम होने का तज़किरा आ जाये तो इस का सीधा मफ़हूम ये होगा कि अब ऐसे शख़्स को क़बूल-ए-ईमान की तौफ़ीक़ नहीं होगी और हमेशा हिमेश के लिए वो मलऊन-ओ-मर्दूद ही रहेगा।
अब्बू लहब इस सूरत के नुज़ूल के बाद दस साल तक ज़िंदा रहता है और इस तवील मुद्दत में वो इस्लाम की बेख़कुनी के लिए कोई दक़ीक़ा फ़िरोगुज़ाश्त नहीं रखता। इस क़दर इस्लाम दुश्मनी के बावजूद इस से कभी ये ना बन सका कि वो बर सर-ए-आम ये ऐलान कर देता:
लोगो!हम सबने सुना है कि मुहम्मद की वही के दावे के मुताबिक़, में कभी इस्लाम क़बूल नहीं करूँगा और मेरा अंजाम दोज़ख़ मुक़द्दर हो चुका है, लेकिन देखो में आज इस्लाम में दाख़िला का ऐलान करता हूँ और जान लू कि मेरा मुस्लमान हो जाना मुहम्मद के लाए हुए क़ुरआन की रोशनी में नामुमकिन था, अब तुम लोग फ़ैसला करो कि ऐसी ख़ुदाई वही के बारे में क्या कहोगे ?
वो अगर ऐसा ऐलान कर देता तो यक़ीन मानिए ना सिर्फ क़ुरआन की सदाक़त मशकूक हो जाती, बल्कि इस्लाम की बेख़कुनी का उस का देरीना ख़ाब भी शर्मिंदा-ए-ताबीर हो जाता। लेकिन वो ऐसा ना कर सका, हालाँकि उस की शर पसंद तबीयत से ऐसे रद्द-ए-अमल की बजा तौर पर-उम्मीद की जा सकती है, लेकिन ऐसा नहीं होता, पूरे दस साल गुज़र जाते हैं और वो अपनी तिब्बी मौत मर कर हमेशा के लिए वासिल-ए-जहन्नुम हो जाता है लेकिन इस पूरी मुद्दत में इस के अंदर क़बूल-ए-इस्लाम का कोई दाया पैदा नहीं हो पाता। अब सवाल ये पैदा होता है कि अगर मुहम्मद अल्लाह के सच्चे रसूल नहीं थे तो उन्हें यक़ीनी तौर पर कैसे मालूम हुआ कि अब्बू लहब क़ुरआन की पीशीनगोई को हर्फ़ बह हर्फ़ दरुस्त क़रार देते हुए बिलआख़िर कुफ़्र पर ही मरेगा?मुहम्मद को ये ख़ुद-एधतिमादी कहाँ से हासिल हो गई कि वो अपने मिशन के कट्टर मुख़ालिफ़ को कामिल दस साल इस बात का मौक़ा दिए रहें कि अगर वो चाहे तो उनके दावे-ए-नबुव्वत को झूटा साबित कर दिखाए ?इस का बस यही जवाब है कि आप फ़िलवाक़े अल्लाह के सच्चे रसूल थे। इन्सान वह्य-ए-इलाही के फ़ैज़ान से सरशार हो कर ही इस किस्म का पुरख़तर चैलेंज पेश कर पाता है।
मुहम्मद का अपनी सदाक़त पर यक़ीन और इस की तबईत में अल्लाह की नुसरत-ओ-हिफ़ाज़त पर एतिमाद किस बुलंदी को पहुंचा हुआ था, हम उस की दूसरी मिसाल पेश करते हैं। हिज्रत के मौके़ पर आपने मक्का को ख़ैर बाद कह कर हज़रत अबोबकरओ के साथ मशहूर पहाड़ सौर के एक ग़ार में पनाह ली थी। कुफ़्फ़ार-ए-मक्का आपके ख़ून के प्यासे बन कर पूरी ताक़त के साथ आपकी तलाश में सरगर्दां थे। ऐसी होलनाक सूरत-ए-हालात में ये होता है कि तलाश करने वाली एक पार्टी क़दमों के निशानात का पीछा करते हुए ठीक उसी ग़ार के बिलमुक़ाबिल पहुंच जाती है जिसमें आप पनाह गज़ीं थे। बस लम्हा की देर थी कि कोई इस ग़ार में झांक कर देख ले और इस्लामी तारीख़ कोई दूसरा रुख इख़तियार करने पर मजबूर हो जाती। हज़रत अब्बू बकरओ भी हालात की संगीनी से ख़ौफ़-ज़दा हो जाते हैं। यक़ीन जानिए अगर मुहम्मद अपने दावे में झूटे होते और आपकी रिसालत महिज़ एक धोका होती, तो ऐसी सूरत में आपका फ़ित्री रद्द-ए-अमल ये होना चाहिए था कि आप अपने साथी से कहते :
ए अबोबकरओ ज़रा ग़ार के पिछली तरफ़ जा कर तो देखो, क्या वहां कोई जाये फ़रार है ?या फ़रमाते :अब्बू बकरओ! वहां कोने में दुबक के बैठ जाओ और बिलकुल आवाज़ ना करो।
आपने ऐसा कुछ नहीं फ़रमाया, उस वक़्त आपने हज़रत अबोबकरओ से जो कहा वो आपके तवक्कुल अली अल्लाह का ग़म्माज़ और अपनी नबुव्वत की सच्चाई पर कामिल यक़ीन का मज़हर था। क़ुरआन ने इस वक़्त की नाज़ुक सूरत-ए-हाल में आपका रद्द-ए-अमल (Reaction)इस तरह ज़िक्र किया है :
सुइनी अस॒नय॒॒न-ए-ज़॒ हुमअ फ़ी॒ अल॒ग़अर-ए-इज़॒ यक़ूओलु लिसअहिबिह-ए-ला तह॒ज़न॒ इन उल़्ला मअनअ(अलतोबा: ४०)
ثَانِیَ اثْنَیْْنِ ذْ ہُمَا فِیْ الْغَارِ اِذْ یَقُولُ لِصَاحِبِہِ لاَ تَحْزَنْ اِنَّ اللّہَ مَعَنَا(التوبہ: ۴۰)
जब वो सिर्फ दो में का दूसरा था, जब वो दोनों ग़ार में थे, जब वो अपने साथी से कह रहा था कि ग़म ना कर, अल्लाह हमारे साथ है।
http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/9:40

अब मज़कूरा बाला मिसालों की रोशनी में फ़ैसला कीजीए कि क्या किसी झूटे, धोके बाज़ मुद्दई-ए-नबुव्वत को ऐसी पुरख़तर सूरत-ए-हाल में अपने झूट पर इस दर्जा एतिमाद हो सकता है ?हक़ीक़त ये है कि यक़ीन-ओ-तवक्कुल की ये कैफ़ीयत किसी काज़िब फ़रेबी को मयस्सर आ ही नहीं सकती। जैसा कि पीछे ज़िक्र आया था कि यही वजह है कि क़ुरआन को वह्य-ए-इलाही ना मानने वाले अपने आपको एक ख़ाली दायरा (Vacant Circle )में घिरा पाते हैं और उनसे कोई माक़ूल जवाब नहीं बन पाता। कभी वो मुहम्मद को एक दीवाना शख़्स गरदानते हैं और कभी झूटा धोका बाज़। उनकी अक़ल में इतनी मोटी बात भी नहीं आती कि दीवानगी और मक्कारी मुतज़ाद सिफ़ात हैं और किसी एक आदमी में उनके इजतिमा की बात कहना बज़ात-ए-ख़ुद पागलपन की अलामत है

सात साल पहले की बात है, मेरे एक वज़ीर दोस्त मेरे घर तशरीफ़ लाए थे। हम जिस कमरे में गुफ़्तगु कर रहे थे, वहां क़रीब मेज़ पर क़ुरआन-ए-मजीद रखा हुआ था, जिसके बारे में वज़ीर मौसूफ़ को इलम नहीं था। दौरान-ए-गुफ़्तगु मैंने क़ुरआन की जानिब इशारा करते हुए कहा: में इस किताब पर ईमान रखता हूँ। वज़ीर साहिब ने अज़राह-ए-तफ़न्नुन किताब पर एक उचटती सी नज़र डाल कर फ़रमाया: में आपको बता सकता हूँ कि अगर ये किताब बाइबल नहीं है तो ज़रूर बालज़रोर किसी इन्सान की तसनीफ़ करदा है। मैंने उनके दावे के जवाब में सिर्फ इतना कहा: चलिए मैं आपसे इस किताब में मौजूद चंद बातों का तज़किरा करता हूँ। और तीन या चार मिनटों में, मैंने उनके सामने क़ुरआन के चंद इलमी हक़ायक़ पेश कर दिए। इन चंद मिनटों ने इस किताब के ताल्लुक़ से उनके नज़रिया में बड़ी तबदीली पैदा कर दी, इन्होंने कहा: आपकी बात सच्च है, इस किताब को किसी इन्सान ने नहीं बल्कि शैतान ने लिखा है।
मेरी नज़र में इस किस्म का अहमक़ाना लेकिन अफ़सोसनाक मौक़िफ़ इख़तियार करने की कुछ वजूहात हैं : अव्वलन ये एक जल्दी में तराशा हुआ सस्ता उज़्र है, इस के ज़रीया किसी भी लाजवाब कर देने वाली सचवीशन से छुटकारा पाया जा सकता है। बाइबल के अह्दनामा में भी इसी किस्म का एक वाक़िया दर्ज है। किसे का ख़ुलासा ये है कि हज़रत-ए-ईसा अपनी मोजज़ाती क़ुव्वत से एक मुर्दा आदमी को ज़िंदा कर देते हैं। इस आदमी की मौत चार दिन पहले वाक़्य हो चुकी थी, लेकिन हज़रत-ए-ईसा के क़ुम कह देने से वो उठ खड़ा होता है। इस हैरतनाक मंज़र का मुशाहिदा बाअज़ यहूदी भी कर रहे थे, इस वाज़िह मोजिज़ा को सर की आँखों से देखकर भी उनका जो तबसरा था वो काबिल-ए-इबरत है। इन्होंने कहा: या तो ये शख़्स (हज़रत ईसयाऑ ) बज़ात-ए-ख़ुद शैतान है या शैतान उस की मदद कर रहा है। इस क़िस्से को दुनिया-भर के ईसाई कलीसाओं में बार-बार ज़िक्र किया जाता है और ईसाई हज़रात मोटे मोटे अशक बहाते हुए इस क़िस्से को सुनते हैं और कहते हैं : अगर हम इस जगह होते तो यहूदीयों की सी हमाक़त हमसे सरज़द ना हुई होती। लेकिन रोने का मुक़ाम है कि बईना यही लोग तीन चार मिनट में चंद करानी इलमी मोजज़ात को जान लेने के बाद वही तर्ज़-ए-अमल इख़तियार करते हैं जो उनके नबी के ताल्लुक़ से यहूदीयों ने किया था, यानी ये शैतान का काम है या उस किताब की तैयारी में शैतान का तआवुन शामिल रहा है वग़ैरा वग़ैरा। इस की वजह ये भी है कि ये हज़रात जब मुबाहिसा के दौरान किसी तंग ज़ाविए में फंस जाते हैं और कोई माक़ूल-ओ-मक़बूल जवाब उऩ्हें सुझाई नहीं देता तो फिर उनकी जानिब से इसी तरह के सस्ते और रीडीमनड आज़ार का सहारा लिया जाता है।
इस किस्म के कमज़ोर फ़िक्री मौक़िफ़ की दूसरी मिसाल हमें कुफ़्फ़ार-ए-मक्का के यहां भी दिखाई पड़ती है। इस्लामी दावत के सामने इलमी-ओ-अकली सतहों पर हज़ीमत उठाने के बाद इन्होंने भी इसी नौईयत के उज़्र तराशने शुरू कर दिए थे। उनका कहना था कि ये शैतान ही है जो मुहम्मद को क़ुरआन की तालीम देता है। लेकिन क़ुरआन-ए-करीम ने इस तरह की सारी अफ़्वाहों, उज़्र तराशियों और इल्ज़ामात की पर-ज़ोर तरदीद की है। इस सिलसिले की एक ख़ास आयत ये है

وَمَاھُوَ بِقَوْلِ شَیْطَانِ رَجِیْمٍoفَأَیْنَ تَذْھَبُوْنَoاِنْ ھُوَ اِلآَ ذِکْرٌ لِّلْعَالَمِیْنَo(التکویر۲۵-۲۷)
ये किसी शैतान मर्दूद का क़ौल नहीं है, फिर तुम लोग किधर चले जा रहे हो? ये तो सारे जहां वालों के लिए एक नसीहत है।
 http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/81:25

और इस तरीक़े से क़ुरआन ने, इन ख़्याली मफ़रूज़ात की क़लई खोली है। हक़ीक़त ये है कि क़ुरआन-ए-करीम में बेशुमार ऐसे दलायल-ओ-शवाहिद मौजूद हैं जो इस मफ़रुज़े की, पूरी वज़ाहत के साथ तरदीद करते हैं। मसलन क़ुरआन की छब्बीसवीं सूरत में इरशाद फ़रमाया गया है
وَمَا تَنَزَّلَتْ بِہِ الشَّیَاطِیْنُoوَمَایَنْبَغِیْ لھَُمْ وَمَا یَسْتَطِیْعُوْنَo اِنّھَُمْ عَنِ السَّمْعِ لَمَعْزُوْلُوْنَo (الشعراء:۲۱۰-۲۱۲)
इस (किताब मुबय्यन) को शयातीन लेकर नहीं उतरे हैं, ना ये काम उनको सजता है, और ना वो ऐसा कर ही सकते हैं, वो तो इस की समाअत तक से दूर रखे गए हैं। http://tanzil.net/#trans/ur.ahmedali/26:210
और एक दूसरी जगह ये तालीम दी जाती है
فَاِذَا قَرَأَتَ الْقُرْآنَ فَاسْتَعِذْبِاللّٰہِ مِنَ الشَّیْطَانِ الرَّجِیْمِ۔ (النحل:۹۸)
जब तुम क़ुरआन पढ़ने लगो तो शैतान-ए-रिजीम से ख़ुदा की पनाह मांग लिया करो।
http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/16:98

अब इन आयात पर ग़ौर कर के बताया जाये कि क्या शैतान इस तरह की किताब ख़ुद तैयार कर सकता है ? क्या शैतान इतना ही सादा-लौह है कि वो अपने क़ारईन से इलतिमास करेगा कि देखो मेरी किताब पढ़ने से पहले तुम अल्लाह से इस बात की दुआ ज़रूर करो कि वो मेरे केदो शर से तुम्हारी हिफ़ाज़त फ़रमाए। इस तरह की हरकत आख़िरी दर्जा की ख़ुद-फ़रेबी-ओ-हमाक़त है जिसकी तवक़्क़ो इन्सान से तो की जा सकती है मगर शैतान से नहीं।
मसला का दूसरा रुख़ ये हो सकता है कि शायद शैतान ही ने इन्सानों को गुमराह करने के लिए इस किस्म की हिदायत शामिल कर दी है, ताकि सादा-लौह सामईन इस पर-फ़रेब नसीहत के बाद उस की किताब के दजल-ओ-फ़रेब का आसानी के साथ शिकार होते रहीं। लेकिन यहां पर एक इंतिहाई ख़तरनाक सवाल रौनुमा हो जाता है कि क्या हिक्मत इलाही के तहत इस किस्म की आख़िरी दर्जा की फ़रेबदिही का इख़तियार शैतान को तफ़वीज़ किया गया है ? और क्या इस तरह के मफ़रुज़े को मान लेने के बाद किसी भी मौजूदा मज़हब-ओ-दीन की सदाक़त शुबहात के दायरा में नहीं आ जाती है ? बहुत से ईसाई दीनी रहनुमा इस बारे में सराहत के साथ तवक़्क़ुफ़ का पहलू इख़तियार कर लेते हैं। जब कि ईसाईयों की अक्सरीयत इस बात का एतिक़ाद रखती है कि शैतान ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि अगर वो करना भी चाहेगा तो अल्लाह ताला उस की इजाज़त नहीं देंगे। ये एक हक़ीक़त भी है कि अगर शैतान को इस किस्म की दर अंदाज़ियों और चालबाज़ियों पर क़ादिर मान लिया जाएगा तो दुनिया के तमाम अदयान-ओ-मज़ाहिब का नफ़स वजूद भी शक-ओ-इनकार के घेरे में आ जाता है। लेकिन क़ुरआन के सिलसिले में अक्सर ग़ैर मुस्लिम हज़रात का रवैय्या अमली तौर पर यही अक्कासी करता है कि उनके नज़दीक शैतान वो सभी कुछ कर सकता है। जो सिर्फ अल्लाह की क़ुदरत कामला से मुतवक़्क़े है। क्यों कि ये लोग करानी हक़ायक़ के तईं अपनी हैरत वपसनदीदगी का इक़रार करने के बावजूद, उस को शैतानी कारनामा क़रार देने पर मिस्र नज़र आते हैं।
अल्लाह का लाख शुक्र है कि मुस्लिम मुआशरा इस शैतानी मर्ज़ से महफ़ूज़ है। हमारे नज़दीक शैतान को कुछ इस्तिसनाय क़ुव्वतें हासिल तो हैं लेकिन इन कुव्वतों का तक़ाबुल, अल्लाह की क़ुदरत कामला से करना ऐसा ही है कि समुंद्र के मुक़ाबले पानी की चंद बूँदें, यही इस्लाम का अक़ीदा है और इस का एतराफ़ किए बग़ैर कोई शख़्स मुस्लमान नहीं रह सकता। अब एक दूसरे पहलू से ग़ौर कीजिए, आम आदमी तक के अहाता-ए-मालूमात में ये बात है कि शैतान से ग़लतीयों का सदूर होता है और ये कि वो मासूम एन उल-ख़ता नहीं है। इस आम मालूमात का लाज़िमी तक़ाज़ा बनता है कि वो अपनी तसनीफ़ करदा किताब को भी ग़लतीयों और तना क़ुज़ात से भर दे, जब कि क़ुरआन सराहत के साथ ऐलान करता है कि इस के अंदर किसी किस्म का तनाक़ुज़ नहीं क्योंकि वो मंज़िल मन अल्लाह है
اَفَلاَ یَتَدَبَّرُوْنَ الْقُرْآنَ وَلَوْ کَانَ مِنْ عِنْدِ غَیْرِ اللّٰہِ لَوَجَدُوْا فِیْہِ اخْتِلاَفاً کَثِیْراً۔ (النساء:۸۲)
क्या ये लोग क़ुरआन पर ग़ौर नहीं करते ? अगर ये अल्लाह के सिवा किसी और की तरफ़ से होता तो इस में बहुत कुछ इखतिलाफ़ बयानी पाई जाती है।http://tanzil.net/#trans/hi.hindi/4:82
आम तौरसे ग़ैर मुस्लिमों के पास और भी कुछ आज़ार हैं जिनकी बुनियाद पर, क़ुरआन को इन्सानी क़ुव्वत मुख़य्यला की इख़तिरा क़रार दिया जाता है। ग़ैर मुस्लिमों की जानिब से किए गए इस्लाम के गहरे मुताला और बेहस-ओ-तहक़ीक़ का जो हासिल उमूमन नज़र आता है वो चंद बाहम मतनाक़ज़ मफ़रूज़ात का पलंदा है। बेशतर मफ़रूज़ों का बुनियादी थीम यही होता है कि दर असल मुहम्मद को एक नफ़सियाती बीमारी लाहक़ थी, इस बीमारी का नाम असतोरी लम्स या ख़ुद-पसंदी का जुनून (Mythomania) है। इस बीमारी में मुबतला शख़्स अपने हर झूट को दिल की गहिराईयों से सच्च समझता है। ग़ैर मुस्लिमों का कहना है कि मुहम्मद भी दर असल एक ऐसे ही इन्सान थे, उनको अपने बारे में नबी होने का वाहिमा हो गया था। इन हज़रात के इस नज़रिया को बफ़रज़ मुहाल कुछ देर के लिए तस्लीम कर भी लिया जाये तो बड़ी दुशवारी ये पैदा हो जाती है कि इस मर्ज़ में मुबतला इन्सान कभी भी ज़िंदगी की सच्चाइयों और रोज़मर्रा के वाक़ियात से ख़ुद को एडजस्ट नहीं कर पाता, लेकिन मुहम्मद के केस में हम पाते हैं कि उनकी लाई हुई किताब पूरी की पूरी हक़ायक़ पर मबनी और वाक़ियात का मुरक़्क़ा है। और क़ुरआन का मबनी बर हक़ीक़त-ओ-सदाक़त होना, हर इन्सान ख़ुद बख़ुद बेहस-ओ-तहक़ीक़ कर के जान सकता है।
इस मर्ज़ में मुबतला इन्सान की सबसे बड़ी ख़ुसूसीयत ये होती है कि वो अपनी ख़्याली दुनिया में रहने वाला गोशा-नशीं बन जाता है। वो जीते जागते समाज की गहमा गहि का सामना नहीं कर पाता, इसलिए ख़ामोशी के साथ इस से किनारा-कशी इख़तियार कर लेता है। जदीद नफ़सियाती तिब्ब भी ऐसे शख़्स का ईलाज यही तजवीज़ करती है कि उसे तसलसुल के साथ हक़ायक़ की दुनिया से दो-चार किराया जाता रहे। मिसाल के तौर पर अगर ऐसा नफ़सियाती मरीज़ अपने आपको इंगलैंड का बादशाह ख़्याल करता है, तो इस का मुआलिज उस की तरदीद में ये नहीं कहेगा कि तुम बादशाह नहीं हो, बल्कि हक़ीक़त मैं तुम्हें दिमाग़ी शिकायत है । ऐसे मरीज़ के तरीक़ा-ए-ईलाज की रो से फ़ौरन तरदीद के बजाय उस के सामने हक़ायक़ पेश किए जाऐंगे। मसलन इस से कहा जाएगा: अगर तुम ही इंगलैंड के बादशाह हो तो बताओ आज मलिका कहाँ क़ियाम पज़ीर हूँ ? और तुम्हारे वज़ीर-ए-आज़म का असम-ए-गिरामी किया है ? और तुम्हारे शाही पहरेदार भी नहीं मालूम कहाँ हैं ? वग़ैरा वग़ैरा। इस किस्म का मरीज़ इन सवालों के जवाब में सऊबत महसूस करते हुए उल्टे सीधे जवाब देगा, मसलन आज मलिका अपने मायके गई हैं। वज़ीर-ए-आज़म का इंतिक़ाल हो गया है, वग़ैरा वग़ैरा। और आख़िर-ए-कार उन हक़ायक़ की कोई माक़ूल तवज्जीहा ना पा कर वो इस मज़हकाख़ेज़ मर्ज़ से शिफ़ा पा जाता है और जीते जागते वाक़ियात के सामने सिपर डालते हुए मान लेता है कि हक़ीक़त में वो इंगलैंड का बादशाह नहीं है।
क़ुरआन हकीम का अपने सरकश मुख़ालिफ़ीन के साथ तआमुल भी कम-ओ-बेश वही होता है, जो नफ़सियाती नुक़्ता-ए-नज़र से माउथो मेनिया में मुबतला शख़्स के साथ बरता जाता है। क़ुरआन-ए-करीम में एक मोजज़ा-नुमा आयत है

یَآأیُّہَا النَّّاسُ قَدْ جَائ تْکُمْ مَّوْعِظََۃٌ مِّن رَّبِّکُمْ وَ شِفَائ لَّمَا فِیْ الصُّدُوْرِ وَ ھُدَی وَّ رَحْمَۃٌ لِّلْمُؤْ مِنِیْنَ۔ (یونس: ۵۷)
लोगो! तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से नसीहत आ गई है, ये वो चीज़ है जो दलों के अमराज़ की शिफ़ा है और जो उसे क़बूल कर लें उनके लिए रहनुमाई और रहमत है । http://tanzil.net/#trans/hi.hindi/10:57
पहली नज़र में ये आयत बड़ी मुबहम और ग़ामज़ दिखाई पड़ती है लेकिन मज़कूरा बाला मिसाल की रोशनी में इस का मफ़हूम बिलकुल वाज़िह हो जाता है। इस की वजह ये है कि सिदक़-ए-नीयत के साथ क़ुरआन-ए-करीम को पढ़ने वाला यक़ीनी तौर पर ज़लालत-ओ-तारीकी से नजात पाता है। क़ुरआन हकीम नफ़सियाती तरीक़ा-ए-ईलाज इस्तिमाल करते हुए, स्रात मुस्तक़ीम से भटके हुए फ़रेब-ख़ुर्दा लोगों की मसीहाई करता है और ज़ुल्मतों के ख़ूगर मरीज़ों के सामने हक़ायक़ और वाक़ियात काँवर रोशन कर देता है। इस ज़िमन में क़ुरआन हकीम अक्सर-ओ-बेशतर लोगों से कहता है :
ए लोगो! तुम क़ुरआन के बारे में ऐसा ऐसा कहते हो, लेकिन फ़ुलां फ़ुलां चीज़ के बारे में तुम क्या कहोगे ? और तुम फ़ुलां बात कैसे कह सकते हो जब कि तुम जानते हो कि इस के लाज़िमी नताइज दूसरी तरफ़ इशारा कर रहे हैं ।
इस तरह क़ुरआन हकीम अपने क़ारईन को मजबूर कर देता है कि वो मसले की तमाम अबआद (Dimensions) और पहलूओं को मद्द-ए-नज़र रखते हुए किसी शए के बारे में अपनी राय का इज़हार करें और इस पूरे प्रोसैस (Process) में, वो इन्सान को गुमराही की तंग नाइयों से निकाल कर हिदायत की वसीअ शाहराह पर ला खड़ा करता है। इस पर हिक्मत लाइह-ए-अमल के ज़रीये से, लाशऊरी तौर पर इन्सान के हाशिया-ए-ख़्याल तक से ये अहमक़ाना एतिक़ाद ज़ाइल हो जाता है कि क़ुरआन-ए-करीम में बयान करदा हक़ायक़ किसी इन्सानी ज़हन की उपज या पीनक हैं।
क़ुरआन-ए-क्रीम का ये लोगों को हक़ायक़-ओ-वाक़ियात के ज़रीये क़ाइल करने वाला अंदाज़ ही मुतअद्दिद ग़ैर मुस्लिमों के इस्लाम की तरफ़ मुतवज्जा होने का बाइस बना है। अस्र-ए-हाज़िर के एक अहम इलमी मरज्जा जदीद कैथोलिक इन्साईक्लो पीडीया (New Catholic Encyclopedia) में क़ुरआन-ए-करीम से मुताल्लिक़ काबिल-ए-ज़िक्र तबसरा किया गया है। क़ुरआन-ए-करीम के मौज़ू पर बेहस करते हुए कैथोलिक चर्च ने सराहत के साथ ये एतराफ़ किया है : माज़ी के मुख़्तलिफ़ अदवार में क़ुरआन-ए-करीम के मुसद्दिर-ओ-मनबइ मालूमात के मुताल्लिक़ मुख़्तलिफ़ नज़रियात पेश किए गए हैं, लेकिन आज किसी एकल-ए-सलीम के हामिल इन्सान के लिए उनमें से किसी नज़रिए को मान लेना मुम्किन नहीं ।
तारीख़ में अपनी इस्लाम दुश्मनी में बदनाम कैथोलिक चर्च को भी मजबूरन क़ुरआन हकीम को इन्सानी दिमाग़ की पैदावार समझने वाले नज़रियात को ग़ैर माक़ूल क़रार देना पड़ा है। सच्ची बात तो ये है कि क़ुरआन हकीम तमाम ईसाई चर्चों के लिए हमेशा से बड़ा दर्द-ए-सर रहा है। उनकी हमेशा कोशिश रही है कि वो क़ुरआन हकीम से कोई ऐसी दलील ढूंढ निकालें, जिसके ज़रीये से क़ुरआन हकीम को इल्हामी कलाम के बजाय इन्सानी कलाम क़रार दिया जा सके, लेकिन अमलन ऐसा मुम्किन नहीं हो सका। इस सिलसिले में कैथोलिक चर्च दीगर चर्चों से इस बात में मुमताज़ है कि उसने अपनी नाकामी का एतराफ़ करते हुए मुरव्वजा तमाम अहमक़ाना तवज्जीहात को लगू क़रार दिया है। किनीसा (Church) की तसरीह के मुताबिक़ गुज़श्ता चौदह सदीयों में करानी मज़हरा (Phenomenon) की कोई मंतक़ी-ओ-माक़ूल तफ़सीर पेश नहीं की जा सकी है। बालफ़ाज़ दीगर उस को इक़रार है कि क़ुरआन हकीम का क़ज़ीया इतना आसान नहीं कि उसे दर खोर-ए-आतना-ए- ही ना समझा जाये। बिलाशुबा दूसरे लोग इतने इलमी एतराफ़-ओ-एहतिराम के भी रवादार नहीं होते, बल कि उनका आम रद्द-ए-अमल यही होता है कि ये क़ुरआन हकीम हो सकता है इस तरह तसनीफ़ दिया गया होगा या इस तरह। उन टामक टोईओं में सरगर्दां ये हज़रात बेशतर औक़ात ख़ुद अपने अक़्वाल की नामाक़ुलीयत और बाहमी तनाक़ुज़ का इदराक नहीं कर पाते हैं।
इस में शक नहीं कि कैथोलिक किनीसा की ये तसरीह ख़ुद आम ईसाई हज़रात के लिए दुशवारी पैदा कर देती है, क्यों कि इस तसरीह की मौजूदगी में उनका क़ुरआन-ए-करीम के तईं मुआनिदाना रवैय्या अपना मज़हबी एतबार खो देता है। चूँ कि हर ईसाई शख़्स के दीनी फ़राइज़ में ये भी शामिल है कि वो हर सूरत में अपने चर्च के अहकाम-ओ-फ़रामीन का पाबंद रहेगा। अब अगर कैथोलिक चर्च ऐलान करता है कि क़ुरआन हकीम के बशरी तख़लीक़ होने से मुताल्लिक़ बाज़ार इलम में जो भी नज़रियात फैले हुए हैं उन पर कान ना धरा जाये, तो एक आम ईसाई उस मख़मसे का शिकार हो जाता है कि अगर कोई दूसरी तवज्जीया मोतबर नहीं है तो आख़िर मुस्लिम नुक़्ता-ए-नज़र से इस पर ग़ौर क्यों ना किया जाये ? उस का एतराफ़ तो सभी करते हैं कि क़ुरआन हकीम में कुछ तो है, जिसको तस्लीम किया जाना चाहिए। लिहाज़ा जब किसी दूसरी तफ़सीर का एतबार नहीं तो आख़िर क्यों क़ुरआन हकीम से मुताल्लिक़ मुस्लिम अक़ीदे के लिए मुआनिदाना मौक़िफ़ को बरक़रार रखा जाये ? मुझे मालूम है कि मसले के इस पहलू पर वही ग़ैर मुस्लिम हज़रात ग़ौर-ओ-तदब्बुर कर सकेंगे जिनकी बसीरत को अंधे दीनी तास्सुब ने बिलकुल महव नहीं कर दिया है और जो हक़ायक़ को किसी ख़ास फ़िक्र-ओ-नज़रिए की ऐनक से देखने के आदी नहीं हुए हैं।
मौजूदा कैथोलिक चर्च के सफ़ अव्वल के मुमताज़ रहनुमाओं में एक नाम मिस्टर हांस (Hans) का आता है। मौसूफ़ ने एक मुद्दत दराज़ तक क़ुरआन हकीम पर रिसर्च किया है और इस सिलसिले में इन्होंने मुतअद्दिद इस्लामी ममालिक में लंबे अर्से तक क़ियाम भी किया है। कैथोलिक दुनिया में उनको काफ़ी एतबार हासिल है। अपने तवील रिसर्च के खुलासे के तौर पर इन्होंने एक रिपोर्ट मुरत्तिब की थी जो हालिया दिनों में शाय भी हो गई है। इस रिपोर्ट में इन्होंने लिखा है : अल्लाह रब अलाज़त ने मुहम्मद के वास्ते से इन्सान से हमकलामी की है । एक-बार फिर एक मुमताज़ ग़ैर मुस्लिम दीनी राहनुमा ने, जो अपने हलक़ों में मोतबर भी ख़्याल किया जाता है, इस बात की शहादत दी है कि क़ुरआन हकीम अल्लाह का कलाम है। मैं नहीं समझता कि कैथोलिक बाबा (Pope) ने इस राय को मान लिया होगा, लेकिन इस के बावजूद, अवामी मक़बूलियत के हामिल किसी मारूफ़ दीनी राहनुमा का क़ुरआन हकीम के तईं मुस्लिम नुक़्ता-ए-नज़र की ताईद करना अपने आप में काफ़ी से ज़्यादा वज़न रखता है। मिस्टर हांस इस नाहिए से भी तहसीन के मुस्तहिक़ हैं कि इन्होंने इस वाक़ई हक़ीक़त का एतराफ़ किया कि फ़िलवाक़े क़ुरआन-ए-करीम में ऐसा कुछ है जिसे आसानी से नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता और ऐसा इसलिए है कि दर-हक़ीक़त करानी कलिमात का मुसद्दिर-ओ-मंबा ख़ुद ज़ात-ए-बारी ताला है।
जैसा कि हम वाज़िह कर चुके हैं कि क़ुरआन हकीम से मुताल्लिक़ तमाम एहतिमालात ख़त्म हो जाते हैं। मज़ीद किसी ऐसे एहतिमाल का इमकान नहीं रह जाता जिसकी मौजूदगी में क़ुरआन हकीम का इनकार लाज़िम आता हो। क़ुरआन-ए-करीम अगर वही रब्बानी नहीं है तो वो एक धोका और फ़रेब है, और अगर वो धोका और फ़रेब है तो हर इन्सान को हक़ पहुंचता है कि वो मालूम करे कि इस अज़ीमुश्शान फ़रेब का मुसद्दिर किया है और किस-किस मुक़ाम पर ये किताब हमें धोका दे रही है ? सच्च बात तो ये है कि इन सवालात के सही जवाबों पर ही बड़ी हद तक क़ुरआन हकीम की सदाक़त-ओ-सेहत का इन्हिसार है और उन सवालात पर चुप साध लेना इशारा करता है कि दावेदारों के पास अपने मौक़िफ़ की ताईद में कुछ नहीं है। इतना सब कुछ जान लेने के बावजूद अगर मुख़ालिफ़ीन को इसरार है कि क़ुरआन हकीम महिज़ एक फ़रेब है, तो उन्हें इस दावे के कुछ दलायल भी पेश करने चाहिऐं। क्यों कि अब दलायल देने की ज़िम्मेदारी उनकी बनती है और ये कोई सहतमनद रवैय्या नहीं कि कोई भी शख़्स किसी माक़ूल दलील के बग़ैर अपने घुसे पट्टे नज़रिए को बस पेश करता रहे। मैं ऐसे लोगों से कहना चाहता हूँ : मुझे क़ुरआन हकीम में मौजूद कोई एक धोका या झूट ला कर दिखाओ। अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते तो इस को मकर-ओ-फ़रेब या झूट कहना बंद करो।
क़ुरआन हकीम की एक और नुमायां ख़ुसूसीयत ये है कि वो ग़ैर मुतवक़्क़े तौर पर रौनुमा होने वाले हादिसात को भी अलग और अनोखे अंदाज़ में पेश करता है। ये हवादिस सिर्फ़ ज़माना-ए-माज़ी पर मौक़ूफ़ नहीं होते, बल कि उनमें से कुछ दराज़ होते होते हमारे अह्द से भी मुताल्लिक़ हो जाते हैं। बालफ़ाज़ दीगर क़ुरआन हकीम अपने मुनकरीन के लिए जिस तरह कल एक मुहैय्यर-उल-उकूल मसला बना हुआ था इसी तरह आज भी है। क़ुरआन हकीम हर गुज़रते लम्हे के साथ अपनी ताईद में दलायल का इज़ाफ़ा करता जाता है जो इस बात का इशारा है कि क़ुरआन हकीम आज भी वो हैरत-अंगेज़ ताक़त है जिसके साथ आसानी से लोहा नहीं लिया जा सकता। में एक मिसाल देता हूँ, क़ुरआन-ए-करीम की एक आयत है
أَوَلَمْ یَرَالَّذِیْنَ کَفَرُوآأَنَّ السَّمَاوَاتِ وَالْا ٔرضَ کَانَتاَ رَتْقاً فَفَتَقْنَاہُمَا وَجَعَلْنَا مِنَ الْمَآءِ کُلَّ شَیْ ئِِ حَیِّ أَفَلَا یُوْمِنُوَْ) (الانبیآء: ۳۰)
क्या वो लोग जिन्होंने (नबी की बात मानने से ) इनकार कर दिया है ग़ौर नहीं करते कि ये सब आसमान और ज़मीन बाहम मिले हुए थे, फिर हमने उन्हें जुदा किया और पानी से हर ज़िंदा चीज़ पैदा की, क्या वो हमारी इस ख़ल्लाक़ी को नहीं मानते ? http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/21:30
मज़हकाख़ेज़ बात ये है कि आयत-ए-करीमा में मज़कूर बईना उन्ही मालूमात के नाम निहाद इन्किशाफ़ करने पर १९७३मैं इनकारॱएॱ ख़ुदा के क़ाइल दो मुल्हिदों को नोबल प्राइज़ (Nobel Prize) से नवाज़ा गया था। हालाँकि क़ुरआन हकीम ने सदीयों पहले इस कायनात की इब्तिदा-ए-के बारे में वज़ाहत फ़र्मा दी थी। लेकिन इन्सानियत आज तक क़ुरआन हकीम में मज़कूर इस कायनाती सच्चाई को साबित करने में लगी हुई है।
आज से चौदह सौ साल पहले के इन्सानी मुआशरे में इस हक़ीक़त का ऐलान आसान नहीं था कि कायनात में ज़िंदगी का आग़ाज़ पानी में हुआ था। आप तसव्वुर कर लें कि आप चौदह सौ साल पहले की दुनिया में किसी संगलाख़ सहरा के वस्त में खड़े हैं और अपनी तरफ़ इशारा करते हुए किसी से कह रहे हैं : ये जो कुछ तुम देख रहे हो, ये सब पानी से तशकील पाया है। यक़ीनन अगर आप ऐसा कहते तो कोई आपकी तसदीक़ ना करता। इस हक़ीक़त को साबित करने में इन्सानियत को ख़ूओरद बैन के ईजाद होने का इंतिज़ार करना पड़ा और इस तवील इंतिज़ार के बाद मालूम हुआ कि इन्सानी जिस्म जिन ख़लीयों (Cells) से तशकील पाता है उनकी हयात का बुनियादी माद्दा (Cytoplasm) पानी से बनता है। एक-बार फिर वाक़ियात ने साबित कर दिया कि गर्दिश-ए-अय्याम की रफ़्तार क़ुरआन हकीम के पाए इस्तिक़लाल को सुरमू नहीं हुलास की।
काबिल-ए-लिहाज़ बात ये है कि क़ुरआन-ए-करीम की सदाक़त की बाअज़ मिसालें वो हैं जो माज़ी में क़ुरआन हकीम के हक़ में शहादत दे चुकी हैं और कुछ ऐसी शहादतें भी हैं जो माज़ी-ओ-हाल दोनों को अपने हल्का-ए-असर में लिए हुए हैं। क़ुरआन हकीम की सदाक़त जांचने के बाअज़ पैमाने वो थे जो माज़ी में अल्लाह ताला की अज़मत-ए-कामला और इल्म-ए-मुतलक़ की गवाही देकर नापैद हो गए जब कि दूसरे कुछ पैमाने ऐसे हैं जो आज भी किसी नाक़ाबिल-ए-तसख़ीर चैलेंज की तरह हमारे दरमयान मौजूद हैं। पहली किस्म की मिसाल में क़ुरआन-ए-करीम की इस तसरीह को पेश किया जा सकता है जो अबूलहब के मुताल्लिक़ की गई थी। क़ुरआन हकीम में सूरा लहब में दावा किया गया था कि अल्लाह आलिमुलगै़ब है और वो जानता है कि अबूलहब अपनी शरपसंदी को छोड़कर इस्लाम नहीं ला सकता है, इसलिए उस का दोज़ख़ी होना मुक़द्दर है। इस सूरत के ज़रीये जहां अल्लाह के इलम मुतलक़ और इस की लामहदूद हिक्मत का इस्बात मक़सूद था, वहीं उस के वास्ते से अबूलहब और इस के हम शाकला लोगों को डरा भी मक़सूद था। सबने देखा कि क़ुरआन हकीम की ये पीशीनगोई हर्फ़ बह हर्फ़ सादिक़ आई। दूसरी किस्म की मिसाल में वो आयात पेश की जा सकती हैं जिनमें मुस्लमानों और क़ौम-ए-यहूद के बाहमी ताल्लुक़ात को ज़ेर-ए-बहस लाया गया है। इन आयात में क़ुरआन हकीम के पेश-ए-नज़र ये नहीं है कि वो दोनों दीनों के मुतबईन के बाहमी ताल्लुक़ात को कम से कमतर करना चाहता है, बल कि यहां उस का मक़सद वाक़ई ज़िंदगी में मौजूद दोनों जमातों के इजतिमाई ताल्लुक़ात का ख़ुलासा है। क़ुरआन-ए-करीम ने दो टोक अंदाज़ में इस बात की पीशीनगोई की है कि यहूदीयों के मुक़ाबले में ईसाई हज़रात का रवैय्या मुस्लमानों के तईं क़दरे बेहतर होगा
لَتَجِدَنَّ أَ شَدَّ النَّاسِ عَدَاوَۃً لِلَّذِیْنَ آمَنُوْالْیَہُوْدَ وَالَّذِیْنَ أَشْرَکُوْا وَلَتَجِدَنَّ أَقْرَبَہُمْ مَّوَدَّۃ لِلَّذِیْنَ آمَنُواْلَّذیْنَ قَالُوْا اِنَّا نَصَاریٰ۔ (المائدہ:۸۲)
तुम अहल ईमान की अदावत में सबसे ज़्यादा सख़्त यहूद और मुशरिकीन को पाओगे और ईमान लाने वालों के लिए दोस्ती में क़रीब-तर उन लोगों को पाओगे जिन्होंने कहा कि हम नसारा हैं ।  http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/5:82
इस तसरीह में छपी गहिरी हक़ीक़त का शऊर उसी वक़्त मुम्किन है जब हम उस के हक़ीक़ी मअनी का उस के जुमला अबआद (Dimensions)-ओ-अतराफ़ के साथ इदराक कर सकें। ये दरुस्त है कि तारीख़ में बहुत सारे ईसाई और यहूदी हज़रात ने इस्लाम क़बूल किया है, लेकिन अगर हम इस मौज़ू को एक क़ायदा कुल्लिया के तौर पर देखें तो हमें मालूम होगा कि यहूद अपनी कट्टर इस्लाम दुश्मनी में ज़्यादा मशहूर रहे हैं। मेरे ख़्याल में बहुत कम लोगों को एहसास होगा कि इस किस्म की आसमानी सराहत कितने दूर-रस अंदेशों को हुआ दे सकती है। हक़ीक़त तो ये है कि इस आयत के ज़रीये यहूदीयों के हाथ इस्लाम के इबताल और क़ुरआन हकीम को ग़ैर मंज़िल मन अल्लाह साबित करने का एक सुनहरा मौक़ा मयस्सर आ गया है। उनको सिर्फ इतना करना होगा कि वो आलमी सतह पर इत्तिफ़ाक़ कर के चंद बरसों के लिए मुस्लमानों के साथ हुस्न-ए-सुलूक का मुआमला कर लें क्यों कि इस के बाद वो बबानग दहल ऐलान कर सकते हैं कि अब तुम्हारा मुक़द्दस क़ुरआन हकीम तुम्हारे बेहतरीन करम फ़र्माओं के बारे में क्या कहता है ? वो यहूद हैं कि ईसाई? देखो तुम्हारा क़ुरआन हमारे बारे में क्या कहता है जब कि हमारा अमल तुम्हारे साथ उस के बरअक्स है, क्या अब भी ये क़ुरआन तुम्हारे नज़दीक कलाम इलाही है ?
जी हाँ ! क़ौम यहूद को क़ुरआन हकीम को ग़लत साबित करने के लिए सिर्फ इतना करने की ज़रूरत है, लेकिन मसले का हैरानकुन पहलू ये है कि वो गुज़श्ता चौदह सौ साल में ऐसा नहीं कर सके हैं और ये हैरत-अंगेज़ अर्ज़ (Offer) आज भी लामतनाही मुद्दत सलाहीयत (Validity) के साथ मौजूद है।
ऊपर जितनी भी मिसालें मज़कूर हुई हैं, वो दलायल की मारुज़ी (Subjective) कसम से ताल्लुक़ रखती हैं, आईए अब हम मोज़ूई (Objective) अंदाज़ में भी क़ुरआन हकीम की हक़ीक़त का जायज़ा लें। ये जानना हैरत से ख़ाली ना होगा कि क़ुरआन-ए-करीम की सदाक़त को रियाज़ी (Mathematics) के किसी फार्मूले (Rule of Probability) से भी साबित किया जा सकता है। मैं पहले उस की वज़ाहत के लिए एक मिसाल देता हूँ : अगर एक शख़्स के पास किसी सवाल के जवाब में दो ऑपशन हैं और वो अपने अंदाज़े से किसी एक को इख़तियार करता है तो मुम्किन है कि वो हर दोबार में एक मर्तबा दरुस्त हो, क्यों कि इस के पास दो एहतिमालात में एक क़तई तौर पर दरुस्त होगा। जैसे जैसे मसाइल की कसरत होती जाएगी अंदाज़े की इसाबत का एहतिमाल कम से कम होता जाएगा। अब हमास मिसाल को क़ुरआन-ए-करीम पर आज़माते हैं सबसे पहले हमें इन तमाम मौज़ूआत की तादाद शुमार करना होगी जिन पर तबसरा करते हुए क़ुरआन हकीम ने अपनी किसी राय का इज़हार किया है। वाज़िह रहे कि इन मौज़ूआत पर क़ुरआन-ए-करीम में मज़कूर बयानात की सेहत का एहतिमाल, रियाज़ी के साबिक़ अलज़कर उसूल की रोशनी में बेहद कम है। बिल कि क़ुरआन हकीम में मज़कूर मौज़ूआत की तादाद इस क़दर ज़्यादा और मुतनव्वे है कि अमली तौर पर इस क़ाएदे की रोशनी में उनकी सेहत का एहतिमाल सिफ़र से कम बचता है। अब अगर क़ुरआन हकीम के सामने लाखों एहतिमालात ग़लती के हैं और वो मुसलसल दरुस्त अंदाज़ा दिए जा रहा है तो इस का सीधा नतीजा यही मुम्किन है कि इस किताब के मुअल्लफ़ ने इस की तैयारी में ज़न-ओ-तख़मीन के बजाय क़तई हक़ायक़ से इस्तिफ़ादा किया है। मैं तीन मिसालें दूँगा, इंशाॱएॱ अल्लाह उनकी रोशनी में साबित हो जाएगा कि क़ुरआन हकीम अपने दरुस्त बयानात के ज़रीये किस तरह मुम्किना ग़लत एहतिमालात की तरदीद करता आया है। क़ुरआन-ए-करीम में तज़किरा मिलता है कि शहद की मक्खी अपने छत्ते को छोड़कर ग़िज़ा की तलाश में बाहर निकलती है
وَأَوْحَیٰ رَبُّکَ اِلَی النَّحْلِ أَنِ اتَََّخِذِیْ مِنَ الْجِبَالِ بُیُوْتاً وَّ مِنَ الشَّجَرِ وَ مِمَّا یَعْرِشُوْنَ۔ ثُمَّ کُلِیْ مِنْ کّلِّ الثَّمَرَاتِ فَاسْلُکِیْ سُبُلَ رَبِّکَ ذُلَلّایَّخْرُجُ مِنْ بُطُوْنِہَا شَرَابٌ مُّخْتَلِفٌ أَ لْوَانُہُ فِیَہِ شِفَائِ لِّلنَّاسِ اِنِّی فِیْ ذٰلِکَ لآیٰۃً لِّقَوْمِ یَّتَفَکَّرُوْنَ۔ (النحل: ۶۸، ۶۹)
और देखो तुम्हारे रब ने शहद की मक्खी पर ये बात वही कर दी कि पहाड़ों में और दरख़्तों में और टट्टियों पर चढ़ाई हुई बैलों में अपने छत्ते बना और हर तरह के फलों का रस चूस और अपने रब की हमवार की हुई राहों पर चलती रह। इस मक्खी के अंदर से रंग ब-रंग का एक शर्बत निकलता है जिसमें शिफ़ा है लोगों के लिए। यक़ीनन इस में भी एक निशानी है उन लोगों के लिए जो ग़ौर-ओ-फ़िक्र करते हैं ।  http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/16:68
अब कोई शख़्स अंदाज़े से कह सकता है : ये जो मक्खी तुम लोग अपने आस-पास उड़ती देखते हो, मुम्किन है कि वो मुज़क्कर (Male) हो और मुम्किन है कि वो मोअन्नस (Female) हो, में अपने अंदाज़े से कहता हूँ कि वो मोअन्नस है । यक़ीनन इस सूरत में इस के दो में से एक एहतिमाल क़तई दरुस्त होगा। ये कहने का इमकान रहता है कि इस जगह क़ुरआन हकीम ग़ैर इलमी बुनियाद पर अंदाज़े से दरुस्त बात ज़िक्र कर बैठा है। लेकिन सूरत वाक़िया ये है कि नुज़ूल क़ुरआन-ए-करीम के वक़्त लोगों का एतिक़ाद उस के बरअक्स था। क्या आप बता सकते हैं कि शहद की मक्खी के मुज़क्कर-ओ-मोअन्नस होने में क्या फ़र्क़ होता है ? बेहद बारीक फ़ुरुक़ तो कोई इस मैदान का मतख़सस (Specialist) ही बता पाएगा, यहां सिर्फ इतना जान लीजे कि हालिया तहक़ीक़ात ने ये इन्किशाफ़ किया है कि मुज़क्कर मक्खी कभी ग़िज़ा की तलाश में छत्ते से बाहर नहीं आती। हेनरी चहारुम (Henry the Fourth) लिखे गए शीकसपीइर के ड्रामे में बाअज़ किरदार, शहद की मक्खी पर अपनी क़ीमती आरा का इज़हार करते हुए अर्ज़ करते हैं : दर असल ये शहद की मक्खियां अफ़्वाज हैं और उनका एक बादशाह होता है । शीकसपीइर के अह्द में लोगों का ये अंदाज़ा था। ये मक्खियां जो इन्सान अपने आस-पास मुशाहिदा करता है वो मुज़क्कर मक्खीयों का लश्कर है, जो अपने बादशाह को जवाबदेह होता है। मगर जदीद साईंस की रो से ये नज़रिया दरुस्त नहीं हक़ीक़त ये है कि ये सब मक्खियां मोअन्नस होती हैं और उनकी ज़माम-ए-कार किसी मलिका के हाथ में होती है। बड़ी बेहस-ओ-तहक़ीक़ और तूल तवील रिसर्च के बाद इस हक़ीक़त का इदराक अस्र-ए-हाज़िर में हुआ। लेकिन क़ुरआन-ए-करीम ने जिस वक़्त इस हक़ीक़त का बरमला इज़हार किया था उस वक़्त तखमीनाती क़ाएदे की रो से इस की सेहत का एहतिमाल नसफ़ फ़ीसद था, लेकिन जदीद इलम ने क़ुरआन हकीम के बयान को सद फ़ीसद दरुस्त क़रार दिया है।
शहद की मक्खी के इलावा क़ुरआन-ए-करीम ने सूरज और ख़ला में इस की हरकाती कैफ़ीयत के मुताल्लिक़ भी तबसरा किया है। यहां फिर हमारे सामने दो ऑपशन आ जाते हैं, अव्वल: सूरज हवा में फेंके गए पत्थर के मानिंद हरकत करता है, दोम: सूरज की हरकत उस की अपनी होती है। क़ुरआन दूसरे एहतिमाल का ज़िक्र करता है, क़ुरआन हकीम की रो से सूरज अपनी ज़ाती हरकत की रो से चलता है। क़ुरआन-ए-करीम ने ख़ला में सूरज की हरकत को सुबह के लफ़्ज़ से ताबीर किया है
لَا الشَّمْسُ یَنبَغِیْ لَہَآ أَنْ تُدْرِکَ الْقَمَرَ وَلاَ اللَّیْلُ سَابِقُ النَّہَارِ وَ کُلٌّ فِیْ فَلَکٍ یَّسْبِحُوْنَ۔ (یٰسین:۴۰)
ना सूरज के बस में ये है कि वो चांद को जा पकड़े और ना रात-दिन पर सबक़त ले जा सकती है। सब एक एक फ़लक में तैर रहे हैं । http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/36:40
अरबी ज़बान में सुबह के मअनी तैरने के हैं। लेकिन इस में बाअतबार-ए- तज़म्मुन ये शामिल है कि तैरने वाला अपनी कोशिश-ओ-क़ुव्वत इस्तिमाल कर के तीर रहा हो। क्यों कि बे-जान तिनके की तरह पानी में तैरते रहने के लिए अरबी ज़बान में तफ़ाएतफ़वातफ़वन, का फे़अल आता है, जो कि यहां नहीं इस्तिमाल किया गया। क़ुरआन-ए-करीम ने सूरज की ख़लाई हरकत के लिए सुबह का लफ़्ज़ इस्तिमाल कर के आश्कारा किया है कि फ़िज़ा में सूरज की हरकत बेज़बत-ओ-क़ैद नहीं है। वो किसी फेंकी हुई चीज़ से मुशाबेह नहीं, बल कि वो अपनी हरकत और अपने सफ़र मैं ख़ुद भी घूम रहा है। ये तो करानी बयान है। लेकिन ज़रा सोचीए क्या इस चीज़ का जान लेना आसान बात है ? क्या कोई आम आदमी बता सकता है कि सूरज अपनी हरकत के दौरान मैं ख़ुद भी गर्दिश करता है ? सिर्फ असर-ए-हाज़िर में इस बात का इमकान पैदा हो सका है कि हम बीनाई खो देने का ख़तरा मोल लिए बग़ैर सूरज का बह ग़ौर मुताला कर सकें और इस की तस्वीरें उतार सकें। इन तसावीर के ज़रीये पहली बार हमारे इलम में ये बात आ सकी है कि सूरज की ज़ाहिरी परत पर तीन धब्बे (Spots) हैं जो रोज़ाना पच्चीस बार घूमते हैं। धब्बों की इस हरकत ने तारीख़ में पहली बार क़तई तौर से साबित कर दिया कि सूरज महवर पर घूमता रहता है। इस तरह क़ुरआन हकीम के एक और कायनाती बयान की तसदीक़, जो अब से चौदह सदीयों क़बल दिया गया था, नाक़ाबिल तरदीद बुनियादों पर हो गई।
अगर हम आज से चौदह सौ साल पहले की दुनिया में लौट जाएं तो हम पाएँगे कि इस वक़्त के तरक़्क़ी याफताह मुतमद्दिम मुआशरों को भी मनातिक़ ज़मनीह या बालफ़ाज़ दीगर टाइम ज़ोन (Time Zone) के मुताल्लिक़ कुछ ख़बर ना थी। लेकिन क़ुरआन-ए-करीम इस ज़िमन में जो इज़हार-ए-ख़याल करता है वो इंतिहाई हद तक हैरत-अंगेज़ है। ये तसव्वुर कि एक ख़ानदान के बाअज़ अफ़राद किसी मुल्क में सुबह का नाशतादान तनावुल फ़र्मा रहे होँ, दरीं असनाए इसी ख़ानदान के बाअज़ दूसरे अफ़राद किसी दूसरे मुल्क में डिनर टेबल पर तशरीफ़ रखते हूँ, अपने आप में बड़ा ताज्जुबख़ेज़ है और आज भी इस को आजूबा समझने वालों की कमी नहीं है। सच्ची बात ये है कि चौदह सौ साल पहले का इन्सान अपने कमज़ोर वसाइल सफ़र के बाइस इस क़ाबिल नहीं हो सका था कि आम हालात में वो एक दिन में तीस मेल से ज़्यादा मुसाफ़त तै कर सके। मिसाल के तौर पर सिर्फ हिंदुस्तान से मराक़श का सफ़र कई महीनों में होता था और गुमान ग़ालिब यही है कि मराक़श में मौजूद हिंदुस्तानी मुसाफ़िर दोपहर का खाना तनावुल करते हुए यही ख़्याल करते होंगे कि हिंदुस्तान में उनके अहिल-ए-ख़ाना भी इस वक़्त दोपहर का खाना खा रहे हैं।
क़ुरआन हकीम चूँ कि अल्लाह ताला का कलाम है, जिसका इलम मुतलक़ है और जिससे कायनात की कोई हक़ीक़त पोशीदा नहीं, इसी लिए हम देखते हैं कि क़ुरआन-ए-करीम जब क़ियामत की बात करता है और बताता है कि क़ियामत का मुआमला पलक झपकते वाक़्य होगा
وَمَآأَ مْرُالسَّاعَۃِ اِلَّا کَلَمْحِ الْبَصَرِأَوْھُوَ أَقْرَبُ۔ (النحل: ۷۷)
और क़ियामत के बरपा होने का मुआमला कुछ देर ना लेगा मगर बस इतनी कि जिसमें आदमी की पलक झपक जाये, बल कि इस से भी कुछ कम। http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/16:77
तो वो कहता है कि ये क़ियामत बाअज़ लोगों को दिन में आलेगी और बाज़ों को रात में आ दबोचेगी:

أَفَأَ مِنَ أھَْلُ الْقُرَیٰ أَنْ یَأتِیْہُمْ بَأْسُنَا بَیَاتاً وَّہُمْ نَآئِمُوْنَ۔ أَوْأَمِنَ أھَْلُ الْقُرَیٰ أَنْ یّأْتِیَہُمْ بِأْسُنَا ضُحیً وَّہُمْ یَلْعَبُوْنَ۔ أَفَأَمِنُوْا مَکْرَاللّٰہِ فَلاَ یَأْمَنُ مَکْرُاللّٰہِ اِلّا الْقَوْمُ الْخَاسِرُوْنَ۔ (الاعراف: ۹۷۔ ۹۹)
किया बस्तीयों के लोग इस से बे-ख़ौफ़ हो गए हैं कि हमारी गिरिफ़त कभी अचानक उन पर रात के वक़्त ना आ जाये जब वो सोते पड़े हूँ ?या उन्हें इतमीनान हो गया है कि हमारा मज़बूत हाथ कभी यकायक उन पर दिन के वक़्त ना पड़ेगा जब कि वो खेल रहे हूँ ? क्या ये लोग अल्लाह की चाल से बे-ख़ौफ़ हैं ? अल्लाह की चाल से वही क़ौम बे-ख़ौफ़ होती है जो तबाह होने वाली हो। http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/7:97
इन आयात से पता चलता है कि वक़्त के मुख़्तलिफ़ मनातिक़ का इलम कायनात के ख़ालिक़ के कलाम में मौजूद है, जब कि ये मालूमात चौदह सदीयों पहले किसी के हीता-ए-ख़्याल में नहीं थीं। टाइम ज़ोन की आफ़ाक़ी सच्चाई, क़दीम इन्सान की नज़रों से ओझल और इस के तजुर्बात के दायरे से ख़ारिज थी और तन्हा ये हक़ीक़त क़ुरआन को मंज़िल मन अल्लाह साबित करने के लिए काफ़ी है।
गुज़श्ता मिसालों की रोशनी में अगर आप मुतबादिल एहतिमालात का फ़ार्मूला इस्तिमाल करेंगे तो मालूम होगा कि हर मिसाल के ज़रीये क़ुरआन की सदाक़त कुछ और वाज़िह हो गई है। और भी ऐसी सैकड़ों मिसालें पेश की जा सकती हैं। उनके साथ सही एहतिमालात की फ़हरिस्त भी तवील होती जाएगी। हम इन तमाम करानी मौज़ूआत से सरदसत ना तार्रुज़ करते हुए सिर्फ ये अर्ज़ करेंगे कि ये एहतिमाल कि मुहम्मद जो एक नाख़्वान्दा इन्सान थे, इन्होंने बेशुमार मौज़ूआत पर बिलकुल दरुस्त अंदाज़े लगाए और अपने किसी भी अंदाज़े मैं उनसे ग़लती का इर्तिकाब ना हुआ, बज़ात-ए-ख़ुद इस एहतिमाल की सेहत का तनासुब इस दर्जे कम है कि अक़्ल-ए-सलीम का हामिल कोई इस्लाम का बदतरीन दुश्मन भी इस को ना मानेगा। लेकिन क़ुरआन हकीम इस एहतिमाल के चैलेंज को भी बड़े माक़ूल अंदाज़ में ख़त्म कर देता है।
यहां में एक मिसाल पर अपनी बात ख़त्म करूँगा, अगर कोई अजनबी शख़्स आपके इलम की हद तक पहली बार आपके मुल्क में दाख़िल होता है और आपसे कहता है : मैं तुम्हारे वालिद को जानता हूँ, मैं पहले उनसे मिल चुका हूँ तो यक़ीनन आप इस नौवारिद के बयान पर शक करेंगे और आपका सवाल होगा: तुम यहां अभी पहली बार आए हो, तुम्हें मेरे वालिद से तआरुफ़ कैसे हो गया? आप इस से मुताल्लिक़ चंद बातें भी दरयाफ़त करेंगे मसलन मेरे वालिद का क़द कैसा है ?या वो किस रंग के हैं ? अगर इस नौवारिद ने इन तमाम सवालात के सही जवाबात दे दिए तो आप मुतमइन हो जाऐंगे आप कहेंगे : मुझे यक़ीन है कि तुम मेरे वालिद को जानते हो वग़ैरा अलबत्ता मुझे नहीं मालूम कि तुमने उन्हें कैसे जाना? क़ुरआन हकीम का अपने मुख़ातबों के साथ भी कुछ यही मुआमला है, वो दावा करता है कि वो ख़ालिक़-ए-अर्ज़ वस्समाई की तरफ़ से नाज़िल शूदा है। सारे इन्सानों का हक़ है कि वो अपने तौर पर सवालात और मुबाहिसों के ज़रीये उस की सदाक़त के बारे में अपना इतमीनान कर लें, अगर ये ख़ालिक़ कौनैन का कलाम है तब ये फ़ुलां फ़ुलां चीज़ के बारे में सब कुछ जानता होगा। .. वग़ैरा। इस ज़िमन में यक़ीनी बात ये है कि जो भी ख़ुद से क़ुरआन में बेहस-ओ-तहक़ीक़ करेगा वो ख़ुद ही हक़ीक़त का इदराक कर लेगा। हम सबको मालूम होना चाहिए कि क़ुरआन हकीम एक ऐसा ख़ज़ाना है जो रहती दुनिया तक को अपने बेश-बहा लाल-ओ-जवाहर से नवाज़ता रहेगा और जो इन्सान जितना उस की गहराई में ग़व्वसी करेगा इतने ही क़ीमती मोती उस की झोली में आते जाऐंगे। चुनांचे हर साहिब अक़ल इन्सान पर लाज़िम है कि ज़िंदगी के हर मरहले में वो इस किताब-ए-हिदायत से मुस्तनीर होता रहे

ज़मीमा
टोरंटो यूनीवर्सिटी के एक फ़ाज़िल अनजीनर (Engineer) को इलम-ए-नफ़्सीयात में गहिरी दिलचस्पी थी और इस सिलसिले में इन्होंने काफ़ी कुछ मुताला भी किया था। अनजीनर मौसूफ़ ने मुसाहिबीन की एक जमात के साथ मिलकर इजतिमाई मुबाहिसों की क़ुव्वत-ए-तासीर (Efficiency of Group Discussions) के मौज़ू पर रिसर्च किया है। इस रिसर्च का मक़सद ये वाज़िह करना था कि मजमुए की वो क्या तादाद होती है जो बेहस-ओ- मनाक़श में ज़्यादा सूदमंद साबित हो सकती है। इस रिसर्च के जो नताइज सामने आए हैं वो काफ़ी चौंका देने वाले हैं। इस रिसर्च की रोसे किसी भी किस्म के मुबाहिसे या मुनाक़शे के लिए मौज़ूं तरीन तादाद दो अफ़राद की होती है। किसी को भी इस रिसर्च से ऐसे नतीजे की तवक़्क़ो नहीं थी, लेकिन इसी नसीहत को क़ुरआन-ए-करीम ने बहुत पहले दुनिया के सामने पेश कर दिया था:
قُلْ اِنَّمَا أَعْظُکُمْ بِوَاحِدَۃِِ أَنْ تَقُوُمُوْا لِلّٰہِ مَثْنَی وَفُرَادَی ثُمَّ تَتَفَکَّرُوْا مَا بِصَاحِبِکُمْ مِنْ جِنَّۃِِ اِنْ ھُوَ اِلّاَ نَذِیْرٌ لَّکُمْ بَیْنَ یَدَی عَذَابِِ شَدِیْدِِِ۔ (سبأ: ۴۶)
ए नबी ! उनसे कहो कि मैं तुमको बस एक बात की नसीहत करता हूँ। ख़ुदा के लिए तुम अकेले अकेले और दो दो मिलकर अपना दिमाग़ लड़ाओ और सोचो, तुम्हारे साहिब में आख़िर ऐसी कौन सी बात है जो जुनून की है ? वो तो एक सख़्त अज़ाब की आमद से पहले तुमको मुतनब्बा करने वाला है । http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/34:46
इस के इलावा क़ुरआन हकीम की सूरत उल-फ़जर में एक शहर का नाम इरम (Iram) आया है :
أَلَمْ تَرَکَیْفَ فَعَلَ رَبُّکَ بِعَادِِ۔ اِرَمَ ذَاتِ الْعِمَادِ۔ الَّتِیْ لَمْ یُخْلَقْ مِثْلَہَا فِی الْبِلَادِ۔ (الفجر: ۶۔ ۸)
तुमने देखा नहीं कि तुम्हारे रब ने किया बरताव किया ऊंचे सतूनों वाले आद-ए-इरम के साथ, जिनके मानिंद कोई क़ौम दुनिया के मुल्कों में पैदा नहीं की गई थी। http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/89:6
क़दीम तारीख़ में ये शहर ग़ैर-मारूफ़ था, बल कि मुअर्रिख़ीन के हलक़ों में भी इस का कोई तज़किरा नहीं पाया जाता था। नैशनल ज्योग्राफिक (National Geographic)मैगज़ीन ने १९७८-ए-के माह दिसंबर के अपने शुमारे में इस शहर के मुताल्लिक़ कुछ हैरतनाक इन्किशाफ़ात किए हैं। इस मैगज़ीन के मुताबिक़ १९७३-ए-में मलिक सूर्या (शाम) में आसार-ए-क़दीमा की खुदाई के ज़रीये एल्बा (Elba) नामी शहर का इन्किशाफ़ हुआ है। मालूम पड़ता है कि इस शहर की उम्र तक़रीबन चार हज़ार तीन सौ साल है, लेकिन इस से ज़्यादा हैरत-अंगेज़ बात ये है कि खुदाई करने वालों ने इस शहर में एक मुक़ाम से जो ग़ालिबन सरकारी इस्तिमाल में था, एक क़दीम ज़बान में लिखा रजिस्टर भी बरामद किया है। इस रजिस्टर में इन तमाम शहरों के नाम दर्ज हैं जिनके साथ अहल-ए-एल्बा के तिजारती ताल्लुक़ात क़ायम थे। अब आपको यक़ीन आए या ना आए इस रजिस्टर में इरम नामी एक शहर का नाम भी दर्ज है। एल्बा शहर के बाशिंदे के इरम नामी शहर के साथ तिजारती रवाबित रखते थे।
आख़िर में मुहतरम क़ारईन से इलतिमास है कि बराह-ए-करम इस आयत-ए-करीमा पर ज़रूर ग़ौर
फ़रमाएं :
وَقَالُوا لَوْلَا أُنْزِلَ عَلَیْہِ آیَاتٌ مِّنْ رَّبِّہ قُلْ اِنَّمَا اْلآیَاتُ عِنْدَاللّٰہِ وَاِنَّمَا أَنَا نَذِیْرٌمُّبِیْنٌ۔ أَوْلَمْ یَکْفِیْہِمْ أَنَا أَنْزَلْنَا عَلَیْکَ الْکِتَابَ یُتْلیٰ عَلَیْہِمْ اِنِّیْ فِیْ ذٰلِکَ لَرَحْمَۃً وَّذِکْریٰ لِقَوْمِِ یُّؤمِنُوْنَ۔ (العنکبوت: ۵۱)
ये लोग कहते हैं कि क्यों ना उतारी गईं उस शख़्स पर निशानीयां उस के रब की तरफ़ से, कहो निशानीयां तो अल्लाह के पास हैं, और मैं सिर्फ ख़बरदार करने वाला हूँ खोल खोल कर। और क्या उन लोगों के लिए ये (निशानी) काफ़ी नहीं है कि हमने तुम पर किताब नाज़िल की जो उन्हें पढ़ कर सुनाई जाती है ?दर-हक़ीक़त इस में रहमत है और नसीहत उन लोगों के लिए जो ईमान लाते हैं । http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/29:51
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Thanks for artilce in Urdu Unicode >> Aijaz Ubaid

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