मुहम्मद उमर कैरानवी: खालिद बिन वलीद (अल्लाह की तलवार) पर एक दृष्टि

Monday, July 1, 2019

खालिद बिन वलीद (अल्लाह की तलवार) पर एक दृष्टि

हमें अपने शानदार माज़ी को जानना चाहिए ,आज जानिए इस्लाम के सबसे बड़े और ताक़तवर दुश्मन के बारे में जो दोस्त बन कर हमारी शानदार तारीख़ बना गया। सैकड़ों जंगें लड़ीं  और एक भी जंग नहीं हारी। तारीख़ में ऐसी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती।
हज़रत ख़ालिद बिन वलीद रज़ी अल्लाह अन्हु , सैफुल्लाह यानी अल्लाह की तलवार के नाम से मशहूर सहाबी , तक़रीबन सवा सौ जंगों लड़ाईयों में विजय फातेह  रहने वाला ये फ़ौजी जनरल कमांडर ख़ालिद बिस्तर पर अपनी मौत का इंतिज़ार करते हुए अक्सर कहता था कि मेरे जिस्म का कोई हिस्सा ऐसा नहीं जहां ज़ख़म ना लगा हो मगर फिर भी मुझे जंगी मैदान में शहीद होना नसीब नहीं हुआ। आज भी जंगी बहादुरों की शान होती है जंगी मैदान में शहीद हो जाना।बहादुर सिपाही के लिये बिस्तर की मौत आज भी बदकिस्मती होती है। जवाब में दोस्त कहते थाई तुम अल्लाह की तलवार थे जो कभी नहीं हार सकती थी,
मुख़्तसर तआरुफ़ के शुरू में ही ये ज़िक्र कर देना भी ज़रूरी है कि इस्लामी तारीख़ में बेशुमार शख़्सियात काबिल-ए-ज़िक्र हैं सबकी अपनी एहमीयत-ओ-इन्फ़िरादियत है, नुमायां ख़िदमात हैं। हज़रत ख़ालिद मुल्क फ़तह करते थे तो हज़रत उम्र इस मुल्क को सँभालते थे। नज़म-ओ-नसक़ का ऐसा मज़बूत उनका तरीक़ा होता थाकि अब तक वो मुल्क मुस्लमानों के क़बज़े में चले आरहे हैं,सैंकड़ों लड़ाईयों के फ़ातिह इस बहादुर जनरल को हज़रत उमर  ने घर बैठा दिया था। कहा जाता है कि क्योंकि ये हर जंग में जीत जाते थे इस लिये लोगों की ये सोच बनती जा रही थी कि वो ख़ालिद की वजह से जीत जाते हैं। हज़रत उमर  का ये फ़ैसला भी अच्छा रहा क्योंकि हज़रत ख़ालिद बिन वलीद के बग़ैर भी जंगें जीती जाती रहीं। मैं कहना चाहता हूँ किसी एक की नहीं बल्कि उन सबकी ख़िदमात को एक दूसरे की ख़िदमात से इस्लाम को मज़बूती मिली थी।

बैन-उल-अक़वामी तारीख़ में महान सिप्पा सालार  फ़ौजी कमांडर के तौर पर तस्लीम हज़रत ख़ालिद २९५ ई में मक्का के रईस वलीद के यहां पैदा,उन के ख़ानदानी बाग़ात मक्का से ताइफ शहर तक थे। जंगी तर्बीयती माहौल में परवरिश पाई। इस्लाम दुश्मनी में भी आपने नुमायां पहचान बनाई थी। इस्लाम अमन-ओ-शांति का मज़हब है मगर मुख़्तलिफ़ वजूहात की बिना पर जंग भी लड़नी पड़ती है। पैग़ंबर इस्लाम मुहम्मद  सल्लल्लाहु  अलैहि वसल्लम की सरपरस्ती में लड़ी जाने वाली नौ जंगों में बाक़ौल मौलाना असलम क़ासिमी १०० से ज़्यादा क़तल नहीं हुए और एक देश अरब नाम से वजूद में आगया। उन की सरपरस्ती वाली ९  जंगों में दूसरी जंग, जंग उहद जो जीती जा चुकी थी। कुछ देर बाद ही ख़ालिद बिन वलीद के वापिस पलट कर हमला करने से बहुत नुक़्सान पहुंचाने से हार में बदल गई।अल्लाह ने कुछ सबक़ और नसीहत के लिये भी जीत को हार में बदलवा दिया। कुछ कहते हैं कोई नहीं जीता बस दोनों तरफ़ का नुक़्सान हुआ। मगर देखा जाये तो उधर से भी जब अल्लाह की तलवार चली तो लाजवाब थी।


पैग़ंबर इस्लाम का ये सबसे ताक़तवर दुश्मन भी माने जाते थे। इन की शक्ल तक सबसे ज़्यादा नफ़रत करने वाला ये चालाक बहादुर मुस्लमानों के साथ जंगों, लड़ाईयों या झड़पों में लगातार उन की जीत को वो ग़ौर से देख रहे थे सोच विचार और जांच परख रहे थे कि मुस्लमान हक़ पर हैं, सच्चे हैं, ईमानदार हैं या नहीं। सुलह हुदैबिया जो जंग को रोकने की कोशिश पैग़ंबर इस्लाम की तरफ़ से हो रही थी उसे देखकर, उन में मुस्लमानों के ज़रीये मानी गई शर्तों पर ग़ौर करने पर तो वो ख़ुद को मुस्लमानों की तरफ़ जाने से ना रोक सके। और ख़ुद पैग़ंबर इस्लाम मुहम्मद सल्लल्लाहु अल्लाह अलैहि वसल्लम के पास पहुंच गए। मुस्लमान हो कर अपने गुनाहों की माफ़ी मांगी, और मुहम्मद से अपनी बख़शिश की दुआ भी कराई। हज़रत मुहम्मद ने कहा था कि मुझे तुम्हारे तौर-तरीक़े,उसूल-ए-ज़िंदगी को देखते हुए पता था कि तुम एक दिन मुस्लमान हो जाओगे। पैग़ंबर के इस्लाम के लिए जंगें लड़कर एक मुल्क अरब बनाया, तो ख़ुलफ़ा राशिदीन में हज़रत अबू बकर और उमर  के साथ मिलकर १० मुल्क फ़तह कराए।

मुस्लमान सिपाही बन कर पहली बड़ी जंग, जंग मौता में सभी बड़े कमांडरों के मारे जाने पर उन्हें फ़ौज की ज़िम्मेदारी सौंपी गई तो दुश्मन पर ९ तलवारें तोड़ दें। ये बात जब पैग़ंबर इस्लाम को पता चली तो उन्होंने ख़ालिद बिन वलीद को सैफुल्लाह  यानी अल्लाह की तलवार कहा। जब से आप सैफुल्लाह  के नाम से भी मशहूर हैं।
जंग में तादाद कोई मअनी नहीं रखती ये मिसाल उन्होंने सैंकड़ों जंगों में पेश की। स्लामी फ़ौज ने ख़ालिद बिन वलीद को अपना अमीर चुना। ख़ालिद बिन वलीद हाल ही में इस्लाम लाए थे और आला दर्जा के सिपाही और जंगजू थे। उन्होंने भाँप लिया था कि मुस्लमानों के जंग जीतने के इमकानात बहुत कम हैं। रात हो गई। उन्होंने अपनी अफ़्वाज को पीछे हटा लिया। उन्होंने एक ज़बरदस्त जंगी हर्बा इख़तियार किया। उन्होंने बेशुमार सिपाहीयों को पहाड़ की ओट में भेज दिया और उनसे कहा कि अगली सुबह नए झंडों के साथ गुर्दो ग़ुबार उड़ाते हुए पीछे से इस्लामी फ़ौज में शामिल हो जाएं। इस तदबीर से रूमी समझे कि मदीना से मुस्लमानों के लिए नई इमदाद आ गई है। रोमीयों ने अपनी फ़ौज को पीछे हटा लिया और जंग रुक गई। इस तरह दोनों अफ़्वाज वापिस चली गईं और मुस्लमानों को दो लाख की रूमी फ़ौज से बचा कर मदीना वापिस लाया गया

जंग मौता में तीन हज़ार फ़ौजीयों से एक लाख की फ़ौज को हराना जंगी तजुर्बा और पैग़ंबर इस्लाम की दुआ का नतीजा कहा जा सकता है। जब रहनुमा जर्नल फ़ौजी कमांडर की बहादुरी का ये आलम-ए-हू कि वो बहादुरी दिखाते हुए ९ तलवारें तोड़ दे तो यक़ीनन मुस्लिम सिपाहीयों का हौसला-ओ-हिम्मत बढ़ कर उरूज पर पहुंच जाता होगा।

 जंगी माहिरीन नेपोलियन बोनापार्ट, सिकन्दर, हिटलर या दुनिया की तारीख़ का कोई भी फ़ौजी जरनैल कमांडर उन के मुक़ाबले में नहीं ठहरता। ख़ालिद के ज़रीये किये गए फ़तह मुल़्क आज भी मुस्लमानों के क़बज़े में हैं जबकि नामवर किसी जनरल को याद कीजिये के इस के फ़तह किये गए मुल्कों में अब कितने उस की क़ौम के पास हैं।

इन की जंगी दास्तानों में जंग यरमौक में साठ हज़ार फ़ौज से ६०  इस्लामी सिपाही, मुजाहिद को जाकर फ़तह करना भी जंगी सलाहीयत की बेहद लाजवाब मिसाल है।

जंग ए यरमौक  का किताब "मर्दान-ए-अरब" और "फ़तह अलशाम" में  ज़िक्र यूं आया है
अरदुन में यरमौक नाम का एक दरिया है जहां पर मुस्लमानों और रूमी फ़ौजों के दरमयान शदीद जंग छिड़ गई थी, रोमीयों ने चूँकि मुस्लमानों के हाथों लगातार शिकस्तें खाईं थी इसलिए इस कोशिश में लगे हुए थे कि मुस्लमानों के ख़िलाफ़ एक अज़ीम जंग लड़ कर इंतिक़ाम लें और इस बार एक लाख फ़ौजी क़ुव्वत को इकट्ठा कर के और एक रिवायत के मुताबिक़ तीन लाख नफ़ूस पर मुश्तमिल लश्कर को यरमौक की मैदान में मुस्लमानों के साथ मुक़ाबला हुआ।
यरमौक की जंग उम्र बिन ख़िताब की ख़िलाफ़त के दौर में 5 रजब सन 15 हिज्री को वाक़्य हुई।
यरमौक का मैदान में  इतलाह मिली के रोमीयों का साठ हज़ार नसरानी अरब का लश्कर जंग के लिए आ गया है अब्बू उबैदा बिन जर्राह ने लश्कर को तैयारी का हुक्म दिया पर ख़ालिद बिन वलीद ने पुकारा ए मुस्लमानों ठहर जाऐ तवक़्क़ुफ़ करो रोमीयों ने साठ हज़ार अरब भेजे हैं में आज उनकी नाक ख़ाकआलूद करूँगा में तीस 30 आदमीयों के साथ उस का मुक़ाबला करूँगा ये बात सुनकर सब मुजाहिद ताज्जुब में पड़ गए कि शायद ख़ालिद ख़ुशतबई के तौर पर बात कर रहे हैं अब्बू सुफ़ियान ने पूछा क्या वाक़ई आप 30 आदमी लेकर जाऐंगे तो ख़ालिद ने कहा हाँ वाक़ई मेरा यही इरादा है
अब्बू सुफ़ियान ने कहा मुजाहिदों से मेरी मुहब्बत की वजह से मेरी दरख़ास्त है तुम 30 की बजाय 60 आदमी ले जा अब्बू उबैदा ने भी ताईद की तो ख़ालिद मान गए अब ये 60 का लश्कर 60000 के लश्कर से जंग करने जा रहा है,
 जब्ला बिन ऐहम ग़स्सानी ने जब देखा के मुस्लमानों का एक गिरोह आ रहा है तो समझा मुस्लमान डर के सुलह करने आ रहे हैं और ख़ालिद बिन वलीद को बोलता है कि मैं अपनी शरायत पर सुलह करूँगा मगर ख़ालिद ने जवाब दिया हम तुझसे जंग करने आए हैं
सुलह नहीं जब्ला बिन ऐहम बोला जा अपना लश्कर लेकर आ,
 ख़ालिद ने मुजाहिदों की तरफ़ इशारा कर के फ़रमाया ये है मेरा 60 अफ़राद का लश्कर,
 जब्ला बिन ऐहम ने कहा में नहीं चाहता अरब की माएं ताना दें कि जब्ला बिन ऐहम ने 60000 के लश्कर से 60 आदमीयों पर चढ़ाई कर दी,
 ख़ालिद बिन वलीद ने कहा हमारा एक मर्द तेरे एक हज़ार के बराबर है तो हमला कर फिर देख तेरा क्या हश्र होता अल्लाह हमारे साथ है ये बात सुनकर जब्ला आग बगूला हो गया और उसने लश्कर को हमले का हुक्म दिया 60000 का लश्कर 60 अफ़राद पर टूट पड़ा और चारों तरफ़ से घेर लिया लगता था
ये समुंद्र उनको बहा कर ले जाएगा लेकिन इस्लाम के ये शेर दल बहादुर मुजाहिद इस सेलाब के सामने डटे रहे और तेज़-रफ़्तार तलवार ज़नी कर के दुश्मन को पास ना आने दिया मुजाहिदीन नारा-ए-तकबीर बुलंद कर के साथियों  को जोश दिलाते मगर इस रूमी लश्कर के शोर में ये आवाज़ दब जाती ख़ालिद बिन वलीद और उनके साथीयों ने हिसार की सूरत घोड़े मिला लिए इस तरह एक दूसरी की हिफ़ाज़त करते ख़ुद को और अपने साथी को दुश्मन के वार से बचाते और दुश्मन को क़तल करते रहे सुबह से शाम हो गई रूमी सिपाही निढाल हो गए मगर मुजाहिदीन ताज़ा-दम लग रहे थे
जब शाम तक अब्बू उबैदा को कुछ ख़बर ना आई तो लश्कर को हमले का हुक्म देने लगे तो अब्बू सुफ़ियान ने कहा ए अब्बू उबैदा अब रुक जा और अल्लाह के फ़ैसले का इंतिज़ार कर इनशा अल्लाह  वो दुश्मन पर ग़लबा पा लेंगे थोड़ी देर बाद जब्ला का लश्कर पीठ दिखा कर भागा, ये लश्कर यूं डर के भागा गोया किसी आसमानी मख़लूक़ ने डराया हो और जब्ला बिन ऐहम सबसे आगे था इस लड़ाई में में 10 मुस्लमान शहीद हुए 5 मुस्लमान क़ैदी हुए रोमीयों के 5000 लोग क़तल हुए,,
यह तफ्सील लिखी है किताब "मर्दान-ए-अरब" जिल्द  2 सहफ़ा 56, "फ़तह अलशाम" अज़ अल्लामा वाक़दी सहफ़ा 209
यरमौक में मुस्लमानों की क़ियादत अब्बू उबैदा इबन अलजराह ओ कर रहे थे, जिसने मुस्लमानों की पहली फ़ौजी दस्ते को यरमौक रवाना किया था उस के बाद सईद बिन आमिर की क़ियादत में मुस्लमान मुजाहिदीन का दूसरा दस्ता उनकी मदद के लिए रवाना किया, दोनों फ़ौजों में शदीद जंग छिड़ गई, रूमी फ़ौज हज़ारों में हलाक हुए या क़ैदी बनाए गए और कामयाबी मुस्लमानों को हासिल हुई और रूमी फ़ौज पीछे हटने पर मजबूर हो गई, जब उस की ख़बर रूमी बादशाह हिरक़्ल को दी गई जो अनिताकिया के शहर में बैठ कर अपनी फ़ौज की सरबराही कर रहा था, ख़बर सुनते ही वो वहां से भाग कर क़ुस्तुनतुनिया (इस्तंबोल, तुर्की) चला गया और बड़ी हसरत के साथ कहा:
अल-विदा ए सरज़मीन शाम, कितनी खूबसूरत सरज़मीन दुश्मनों के हाथ लग गई।

हज़रत ख़ालिद बिन वलीद की जंगी दास्तानों में मुस्लमानों की मदद के लिए पहुंच जाने का जज़बा भी उन की शायाँ-ए-शान मिलता है। सीरिया में अपने भाईयों की मदद के लिये फ़ौरन जल्द पहुंचने के लिये ऐसा रास्ता चुनते हैं जिस रास्ते में पाँच दिन रास्ते में पानी नहीं होता। वो ऊंटों  से सफ़र करते हैं।  ऊंट काफ़ी पानी पी कर कई दिन प्यासा रह सकता है,और इस के पेट में जमा पानी ख़राब भी नहीं होता, रास्ते में ऊंटों के पेट में जो पानी महफ़ूज़ स्टाक रहता है इस से काम चलाते मदद को पहुंच जाते हैं। उनका पहुंचना ही जंग का का नक़्शा बदल देता था, किसी जंग में सिपाहीयों का जोश-ओ-वलवला बढ़ने के लिये काफ़ी होता थाकि अल्लाह की तलवार साथ आगई।
हज़रत अबूबकर की हज़रत ख़ालिद को खुली छूट और हज़रत उम्र के रिश्तेदार होने जैसी कई वजूहात की बिना पर शीया हज़रात उनको पसंद नहींकरते थे।
तक़रीबन ५ साल सुबकदोशी की ज़िंदगी गुज़ारने वाला ये सैंकड़ों जंगों का फ़ातिह ६४२  ईसवी में अल्लाह को प्यारे होजाने वाले इस बहादुर जनरल का मज़ार शाम यानी सीरिया में है। इसी शाम को फ़तह करने वाले फ़ौजी कमनडर को ६३७  ईसवी में गवर्नर भी बनाया गया था। इस अज़ीम बहादुर और सैंकड़ों जंगों के फ़ातिह गवर्नर ने अपने वारिसों के लिए एक घोड़ा, एक ग़ुलाम और कुछ हथियार छोड़े थे। इस फ़ातिह रोमन और सीरिया की लाजवाब ख़िदमात को लफ़्ज़ों में हक़ अदा हो जाए ऐसे बयान नहीं किया जा सकता। फिर भी एक कोशिश थी कि कुछ मेरे ज़रीये भी इस अज़ीम शख़्सियत से लोग वाक़िफ़ होजाएं। इंटरनैट पर इस अज़ीम बहादुर सिपाही पर काफ़ी जानकारी मिल जाती है। मज़ीद जानकारी के लिए तक़रीबन सभी ज़बानों में इंटरनैट में मौजूद किताबें और नावल पढ़ने चाहीए।
उमीद है आपको सैफुल्लाह की ये मुख़्तसर बातें पसंद आई होंगी। अपनी पसंद नापसंद का इज़हार कीजिए। शुक्रिया

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