मुहम्मद उमर कैरानवी: salahuddin ayyubi hindi Book

Wednesday, July 3, 2019

salahuddin ayyubi hindi Book

अय्यूबी की यलग़ारें in Urdu here

फ़ातिह बैतुल-मुक़द्दस सुलतान सलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह
urdu to hindi translitrated

by मुहम्मद ताहिर नक़्क़ाश


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अय्यूबी की यलग़ारें
फ़ातिह बैतुल-मुक़द्दस सुलतान सलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह
मुहम्मद ताहिर नक़्क़ाश
हर्फ़ आग़ाज़
अज़ीम मुजाहिद
1। तवाइफ़ अलमलोकी का दौर और सलीबियों की आमद आमद
2। पहली सलीबी जंग और सुकूत बैतुल-मुक़द्दस
3:एक साल में तीन सलीबी हुकूमतों का क़ियाम
4:बेदारी का ज़माना
5:इमादा उद्दीन ज़ंगी के हाथों सलीबियों की ठुकाई
6:नूरा लदेन महमूद रहिमा अल्लाह और इस के जिहादी अज़ाइम
7:सुलतान सलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह इलम जिहाद थामते हैं
हितेन में सलीबियों पर क़हर-ओ-ग़ज़ब
8:प्यास की शिद्दत का अज़ाब ऊपर से मुजाहिदीन की यलग़ारें
9:जोश जिहाद और तलब शहादत के ठाठें मारते समुंद्र
10:अचानक एक नौजवान बिजली की तरह तलवार लिए निकलता है
11:आग का बतौर जंगी हथियार इस्तिमाल
12:इबरतनाक और हसरतनाक मौत का यक़ीन
13:सलीब आज़म पर मुजाहिदीन का क़बज़ा
14:सलीबी बादशाह के खे़मे की तबाही और सजदा में शुक्राना के आँसू
15:मुस्लमानों के सबसे बड़े दुश्मन की गिरफ़्तारी
16:तीस हज़ार सलीबी फ़ौजी मुजाहिदीन के हाथों कटते हैं !
17:जब चालीस चालीस सलीबी क़ैदी खे़मे की एक रस्सी से बाँधे गए !
18:सुलतान के ख़ेमा में
19:वक़्त हिसाब आन पहुंचा
20:सलीबी गुस्ताख का कर्बनाक अंजाम
21:सलीबियों पर सलाह उद्दीन की मेहरबानीयां
22:दस हज़ार मुस्लमान क़ैदीयों की सलीबियों के ज़ुलम से रिहाई
23:जिहादी जज़्बों में आग लगा देने वाला शोला बयान ख़िताब
    फ़तह बैतुल-मुक़द्दस
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24:यक-बारगी ज़ोरदार हमला
25:जान बख़शी की दरख़ास्तें
26:माफियां जान बख़शीयाँ और जज़बा की थैलियां

27:सलीबियों को बैतुल-मुक़द्दस से निकालने के जिहादी मुनाज़िर
28:क़ैदीयों की रिहाई और रहमदलाना सुलूक
29:सुलतान सलाह उद्दीन बैतुल-मुक़द्दस में दाख़िल होता है
30:ईसाईयों के निशानात मिटाने का हुक्म होता है
31:महिराब की रौनक़ें वापिस लोटती हैं
32:सदाए अज़ान की गूंज और जमाৃ उल-मुबारक का रूह-परवर नज़ारा 
33:बैतुल-मुक़द्दस की फ़तह के बाद शुक्राने के आँसू और हिचकियाँ
34:सुलतान नूर उद्दीन का बनाया मिम्बर-ए-मेहराब बैतुल-मुक़द्दस की ज़ीनत बनता है
35:सलीबियों की दिलख़राश जसारतें
36:मुक़ाम कदम-ए-मसीह
37:बुत तोड़े जाते हैं
38:मसाजिद वमदारस का क़ियाम अमल में आता है
39:फ़तह बैतुल-मुक़द्दस के बाद फिर जिहादी मैदान सजते हैं
40:सुलतान की आमद का सुनकर हमला-आवर फ़रंगी भाग उठे
41:जिहादी मैदानों में फ़ुतूहात पर फ़ुतूहात
42:लाज़क़ीह में बुतों और तस्वीरों की शामत
43:हैबतनाक ख़ंदक़ वाले क़िला की फ़तह
44:मुस्लमान मज़लूम क़ैदीयों पर आज़ादी-ओ-रिहाई के दरवाज़े खुलते हैं
45:पहाड़ की चोटी पर वाक़्य मज़बूत क़िला की तसख़ीर
46:रमज़ान उल-मुबारक में सुलतान के जिहादी मार्के
47:मक्का और मदीना मुनव्वरा पर हमला करने के ख़ाहिशमंद पर जिहादी ज़रब
48:बारिशों कीचड़ दलदल और पानियों के दरमयान ख़ंदक़ों से घिरे क़िले की तरफ़ पेशक़दमी
49:चांद की मंज़िल फ़तह होती है
50:सुलतान की बैतुल-मुक़द्दस में ईद उलअज़हा की अदायगी
51:बैतुल-मुक़द्दस पर नसब सलीब आज़म की बग़दाद रवानगी
52:कुछ मज़ीद अज़ीम जिहादी कारनामे
53:सलाह उद्दीन रहिमा अल्लाह का मुजाहिदाना तर्ज़-ए-ज़िदंगी
54:मोहलिक बीमारी भी घोड़े की पुश्त से नीचे ना उतार सकी
55:सुलतान सलाह उद्दीन की वफ़ात
56:दुनिया से बे र्गुबती और क़िल्लत सरमाया
57:तारीख़ इस्लाम, सुन्नत अलाहीह की रोशनी में

हर्फ़ आग़ाज़
फ़ज़ीलৃ उल-शेख़ डाक्टर अहमद महमूद अलाहमद जो मदीना यूनीवर्सिटी के कुल्लिया उल-दावत वासोल उद्दीन में अस्सिटैंट प्रोफ़ैसर के ओहदे पर फ़ाइज़ हुए । उन्होंने सुलतान सलाह उद्दीन की जिहादी-ओ-कुत्ता ली ज़िंदगी पर एक लैक्चर दिया जो बाद में एक मुख़्तसर किताबचा की शक्ल में शाय हुआ।इस का मैंने मुताला किया तो मौजूदा हालात के तनाज़ुर में इसी मुख़्तसर किताबचा को बुनियाद बना कर सुलतान सलाह उद्दीन अय्यूबी की ज़िंदगी का मुख़्तलिफ़ पहलूओं से मुताला शुरू किया तो पता चला कि दुनिया में कुछ लोग हमेशा के लिए किसी बात की अलामत और निशान बन जाते हैं या कोई ख़ास चीज़ उनकी पहचान बन कर रह जाती है ।ऐसे ही अज़ीम मुजाहिद गोरीला कमांडर और सफ़ शिकन सिपहसालार सुलतान सलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह अपने कारनामों की बिना पर शुजाअत-ओ-बहादुरी, ग़ैरत-ओ-हमीयत और सलीबियों पर जिहादी-ओ-कुत्ता ली यल्ग़ारों की बिना पर हमेशा के लिए जिहाद-ओ-क़िताल का निशान बन गए ।अब जब भी कहीं दिलावरी बहादुरी शुजाअतऔर सलीबियों को नकेल डालने की बात की जाती है तो फ़ौरन सुलतान सलाह उद्दीन का ख़्याल ज़हनमें आता है ।जिन लोगों से मुस्तक़बिल में अल्लाह करीम ने कोई बड़ा और अज़ीम काम लेना होता है उनके बचपन में ही उनकी ग़ैरमामूली सलाहीयतों की किसी ना किसी क़रीने और किनाए से निशानदेही फ़र्मा देते हैं ।
सुलतान सलाह उद्दीन अय्यूबी जिसने इस्लामी तारीख़ पर अपनी अज़मत-ओ-शौकत के अनमिट नुक़ूशसब्त किए हैं की इस्लाम और मुस्लमानों के लिए ग़ैरत-ओ-हमीयत का आलम ये था कि अभी नौउम्र ही हैं , ईसाई फ़ौजें "रहा पर क़बज़ा कर के माल वासबाब लौट कर औरतों को पकड़ ले जाती हैं ।ये ज़ुलम देखकर ये नौउम्र सलाह उद्दीन एक तुर्की बूढ़े को लेकर सुलतान इमादा उद्दीन ज़ंगी के पास पहुंचते हैं ।ईसाईयों के मज़ालिम से बादशाह को आगाह करते हैं , इस की इस्लामी हमीयत और ग़ैरतको बेदार करते हैं और रो-रो कर मदद के लिए फ़र्याद करते हैं ।
नेक दिल बादशाह को इन हालात का इलम होता है तो वो तमाम फ़ौजें जमा करता है ।उन्हें "रिहा के हालात सुनाता और जिहाद पर उभारता है और ऐलान करता है कि "कल सुबह मेरी तलवार रहा के क़िले पर लहराएगी, तुम में से कौन मेरा साथ देगा ? ये ऐलान सुनकर तमाम फ़ौजी हैरान रह जाते हैं कि यहां से "रहा ९० मील की दूरी पर है , रातों रात वहां कैसे पहुंचा जा सकता है ?ये तो किसी तरह मुम्किन नहीं ।तमाम फ़ौजी अभी ग़ौर ही कर रहे थे कि एक नौ उम्र लड़के की आवाज़ गूँजती है "हम बादशाह का साथ देंगे । लोगों ने सराठा कर देखा तो एक नौउम्र लड़का खड़ा था, बाज़ों ने फ़िक़रे चुस्त किए कि "जाओ मियां खेलो कोदू!ये जंग है बच्चों का खेल नहीं । सुलतान ने ये फ़िक़रे सुने तो ग़ुस्से से चेहरा सुर्ख़ हो गया, बोला: ये बच्चा सच्च कहता है , इस की सूरत बताती है कि ये कल मेरा साथ देगा।यही वो बचा है जो "रहा से मेरे पास फ़र्याद लेकर आया है , इस का नाम सलाह उद्दीन है । ये सुनकर फ़ौजीयों को ग़ैरत आती है सब तैयार हो जाते हैं और अगले रोज़ दोपहर तक रहा पहुंच कर हमला कर दिया।घमसान की जंग हुई, ईसाई सिप्पा सालार बड़ी आन-ओ-बाण के साथ मुक़ाबले के लिए निकला, सुलतान ने इस पर कारी ज़रब लगाई मगर लोहे की ज़िरह ने वार को बे-असर बना दिया, ईसाई सिपहसालार ने पलट कर सुलतान पर हमला किया और नेज़ा तान कर सुलतान की तरफ़ फेंकना ही चाहता है कि सलाह उद्दीन की तलवार फ़िज़ा में बिजली की तरह चमक उठी और ज़िरह के कटे हुए हिस्सा पर गिर कर ईसाई सिपहसालार के दो टुकड़े कर के रुख दिए ।ईसाई सिपहसालार के मौत के घाट उतरते ही ईसाई फ़ौज भाग खड़ी हुई और "रहा पर मुस्लमानों का क़बज़ा हो गया।
आज हर शख़्स की ज़बान पर नौउम्र सलाह उद्दीन की शुजाअत के चर्चे हैं और ये वाक़िया तारीख़इस्लाम में सुनहरे अलफ़ाज़ में लिखा जाता है ।
इस मुख़्तसर से किताबचे में हमने सुलतान की ज़िंदगी के आख़िरी छः साल का अरसा मुंतख़ब किया है ।सुलतान की ज़िंदगी के ये आख़िरी ६ साल उस की ज़िंदगी के सबसे क़ीमती और यादगार अय्याम हैं कि जिनमें उसने मुसलसल सलीबियों से मार्के करते हुए , जिहाद-ओ-क़िताल के मैदान गर्म करते हुए , सलीबियों को हर तरफ़ से घेर घेर कर उनका शिकार करते हुए , बैतुल-मुक़द्दस को उनके नापाक अज़ाइम से बचाने के लिए , अल्लाह के इस बाबरकत घर की इज़्ज़त वनामोस की रखवाली के लिए , दिन रात अपनी जान हथेली पर लिए , शमशीरों की छाओं में , तीरों की बारिश में , नेज़ों की अनियों में , घोड़े की पुश्त पर बैठ कर, उस को दुश्मन की सफ़ों में सरपट दौड़ाते हुए , तलवार बुलंद करते हुए , अल्लाह के बाग़ीयों , काफ़िरों , ज़ालिमों की गर्दनें उड़ाते हुए ।मन दोन उल़्ला के इन पुजारियों को ख़ाक-ओ-ख़ून में तड़पाते हुए और ऐसे मार्के , वलवले , गुलगुले , बरपा करते हुए और दुश्मन पर घातें लगाते ।यलग़ारें करते , शाहीन की तरह ममोलों पर झपटते पलटते और फिर झपटते ।सुलतान की ज़िंदगी के आख़िरी छः सालों में इसी मुजाहिदाना रूप को दिखाया गया है ।इस जिहादी-ओ-कुत्ता ली तग-ओ-ताज़ में सुलतान की ज़िंदगी की आख़िरी सुब्हें और शामें गुज़रीं ।हत्ता कि उसने सलीबियों के सुरों की फ़सल को शमशीर जिहाद से काटते हुए मस्जिद उकसा को नापाक सलीबी क़बज़े से आज़ादकरवा लिया।सुलतान के उन्ही शुजाअत-ओ-दिलावरी बहादुरी-ओ-हमीयत से भरपूर कुत्ता ली अय्याम के चंद नज़ारों को हमने किताब का हिस्सा बनाया है कि जो ख़ालिस्तन सुलतान के जिहादी-ओ-कुत्ता ली किरदार के ग़म्माज़ हैं ।

अज़ीम मुजाहिद
सलाह उद्दीन अय्यूबी की ज़िंदगी के आख़िरी सालों के ये जिहादी लमहात हमें ये दावत मुबारिज़त दे रहे हैं कि ((हल मन मुबारिज़))कि तुम में कोई ऐसा दिलावर है जो मैदान में आ कुरान सलीब के पुजारियों का मुक़ाबला करे ।कि आज जब उम्मत मुस्लिमा सलीबियों के घेरों , उनकी मकरूह चालों और फ़रीबाना साज़िशों के जाल में फंस कर लहूलुहान है ।आह!आज अफ़्ग़ानिस्तान, कश्मीर जन्नत नज़ीर के मज़लूमीन, मक़हूर यन, मजबूर यन, मासूमीन कटे फटे ख़ून आलूद बारूद की बूओ में रचे बसे रो रोकर ये फ़र्याद कर रहे हैं कि नाम निहाद मुहज़्ज़ब योरपी दरिंदों ने हमें चीर फाड़ कर रख दिया।हमें घर से बे-घर।वतन से बेवतन कर दिया है ।हमारा ये हाल कर दिया है हम जाएं तो किस के पास शिकायत लेकर जाएं ।किस के पास फ़र्यादी बन कर जाएं ।हम किस को अपना दुखड़ा सुनाएँ कि कौन हमारे दुखों का मुदावा करसके ।ये दुखियारे आज किसी अय्यूबी और क़ासिम रहमहमा अल्लाह के मुंतज़िर हैं ।आसें लगाए कब से बैठे हैं ।आज फिर वही मस्जिद उकसा।वही बैतुल-मुक़द्दस जिसको सुलतान सलाह उद्दीन ने ग़ैरत मुस्लिम का सबूत देते हुए आज़ाद करवाया था, फिर सलीबियों और यहूदीयों के ख़ूँख़ार पंजों में फंसी हुई है और वहां मस्जिद अक़सयाससकती हुई, बिलकती हुई।कराहती हुई।आहें और सिसकियाँ भर्ती हुई, हमसे यूं फ़रियाद-कुनाँ है , हमसे कह रही है कि मैं (अल्लाह का घर)उकसा।ए ग़ैरतों , शुजाअतों के अमीन मुसलमानो!।तुम्हें पुकार रही हूँ ।कब से बिलक रही हूँ ।कि कुफ़्र के तीर मेरे सज्दों के लिए बे-ताब जिस्म को ज़ख़मी कर रहे हैं ।मेरा जिस्म ज़ख़मों से चूर चूर हो चुका है , लहूलुहान और वीरान हो चुका है , ।ए आख़िरी नबी मुहम्मद के कलिमा पढ़ने वाले अमतीव!तुम मेरी चीख़ों को सन भी रहे हो फिर भी मेरी मदद के लिए नहीं आरहे ? ।क्या हो गया है तुम्हें कब आकर मेरे ज़ख़मों पर मरहम रखोगे ।
इन हालात में क्या हम में कोई ऐसा है जो सलाह उद्दीन बन कर दुनिया-भर के सलीबियों को मुंहतोड़ जवाब देकर ये बता दे कि ग़ैरत मुस्लिम अभी ज़िंदा है , अय्यूबी की शुजाअत अभी ज़िंदा है ।हमारी रगों में अभी ग़ज़नवी ग़ौरी और इबन क़ासिम रहमৃ अल्लाह अलैहिम का ग़ैरतों और शुजाअतों का अमीन ख़ून गर्दिश कर रहा है ।अगर तुमने मुस्लमानों पर रवा मौजूदा मज़ालिम को सलीबी जंगों का बदला का नाम दे दिया है , तो फिर ऐसे ही सही।अब हर मैदान में दुबारा हिलाल और सलीब की जंग होगी।कुफ़्र और ईमान की जंग होगी।ज़ालिम और मज़लूम की जंग होगी।अब मैदान-ए-जिहाद-ओ-क़िताल सजेंगे ।अब मार्के होंगे अब अय्यूबी के रुहानी फ़र्ज़ंद जिहाद-ओ-क़िताल की शमशीर बेनियाम हाथों में थाम कर, मैदान-ए-कार-ज़ार में उतर आए हैं ।रब अलमसतज़ाफ़ीन की रहमत से ।अब हर उस सलीबी के हाथ और पांव काट दीए जाईगे जो ज़ुलम के लिए किसी मुस्लमान की तरफ़ बढ़ेंगे ।वो आँख निकाल देंगे जो उम्मत मुस्लिमा की किसी बेटी की तरफ़ बुरी नज़र से देखने की जुर्रत करेगी कि सलाह उद्दीन के रुहानी फ़र्ज़ंद अभी ज़िंदा सलामत हैं ।वो तुम्हें हर जगह ज़ुलम से रोकेंगे जिहाद-ओ-क़िताल की शाहराह पर चलते हुए तेरे पीछे पीछे आएँगे ।तुम्हें मज़लूम-ओ-मजबूर मुस्लमानों पर हरगिज़ ज़ुलम नहीं करने देंगे ज़ुलम से रोकने को।तुम हमारी दहश्तगर्दी कहो या सलीबी जंग के आग़ाज़ का बग़ल बजाओ हम हर-दम तैयार हैं ।अपने रब-ए-करीम की रहमत-ओ-नुसरत पर भरोसा करते हुए हम तुझे बावरकरवा देते हैं कि इंशाॱएॱ अल्लाह तेरी तरफ़ से शुरू की गई इस सलीबी जंग का नतीजा भी वही बरामद होगा जो सुलतान सलाह उद्दीन अय्यूबी के दौर में बरामद हुआ था।फिर तो आगे आगे होगा और हम तेरे पीछे पीछे तआक़ुब करते हुए यूरोप पहुँचेंगे ।और इस वक़्त तक इस जिहादी-ओ-कुत्ता ली शोले को सर्द ना होने देंगे कि जब तक यूरोप में जिहाद के शोले नहीं भड़क उठते आलाए कलमৃ अल्लाह का पर्चमलहरा नहीं जाता जब तक दीन ख़ालिस अल्लाह के लिए नहीं हो जाता और फ़ज़ाएँ "अल्लाहु-अकबर के दिलनवाज़ तरानों से नहीं गूंज जातीं इंशाॱएॱ अल्लाह वो दिन अनक़रीब आने वाला है ।
इंशाॱएॱ अल्लाह !अब अल्लाह ताला की रहमत से हर जवान दुनिया में मुख़्तलिफ़ जगह ज़ुलम-ओ-जौर पर मबनी रवा रखी गई इन सलीबी जंगों के लिए तैयार हो चुका है ।बस ज़रा सब्र कि जबर के दिन थोड़े हैं ।मुसर्रत की घड़ियाँ आई ही चाहती हैं । इंशाॱएॱ अल्लाह
1। तवाइफ़ अलमलोकी का दौर और सलीबियों की आमद आमद
सलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह के आख़िरी सालों पर गुफ़्तगु करने का, ये एक तक़ाज़ा है कि सलीबी जंगों के (४९१ह/१०९७-ए-)में शुरू होने और बढ़ने से क़बल आलम-ए-इस्लाम पर एक निगाह अगरचे ताइरा ना ही सही डाली जाये , और खासतौर परइस इलाक़े पर जो सलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह के प्रवान चढ़ने के लिए साज़गार साबित हुआ, और वो हैं जज़ीरा फ़र्र अतिया, शुमाली इराक़ और मिस्र के इलाक़े ।
सलीबी जंगों के हवाले से इस साबिक़ा दौर की "सयासी ज़िंदगी को एक नुमायां मुक़ाम हासिल है ।पूरे आलम-ए-इस्लाम में बेचैनी और इज़तिराब की कैफ़ीयत तारी थी, सिर्फ बग़दाद ही को लीजिए , ख़िलाफ़त अब्बासिया दगरगों और डांवां डोल थी, और हालत यहां तक पहुंच चुकी थी कि सलजूक़ी बादशाहों के इशारे पर काम चलाया जा रहा था।इसी लिए हम कह सकते हैं कि "हुकूमत बवीहीह की निसबत "हुकूमत सलजोक़ीह "ख़िलाफ़त अब्बासिया को क़दर की निगाह से देखती थी।इसलिए कि ये लोग "अहल सुन्नत "और वो "अहल-ए-तशीअ थे ।इस ख़िलाफ़त ने इन दूसरों के तसल्लुत से बचते हुए कठिन मराहिल में सांस लिया।और यक़ीनन हुकूमत सलजोक़ीह का इस इलाक़े में अहल संत अक़ाइदकी तरवीज वासतहकाम में और रूमी मारकों की रोक-थाम में अहम किरदार है ।ये वही हुकूमत है जिसने (४६३ह /१०७१म )में "मलाज़करद के फ़ैसलाकुन मार्का में बराबर का माप दिया था(यानी रोमीयों का डट कर मुक़ाबला किया था)
लेकिन अभी १०९७-ए-का बरस शुरू ना हुआ था कि ये हुकूमत टूट-फूट का शिकार हो गई और बाहममुतसादिम, एक दूसरे से दस्त गरीबां और एक दूसरे को ज़ेर करने वाली पाँच सलजूक़ी हुकूमतें बन बैठीं और फिर बतदरीज इन सलीबी हमला आवरों का मुक़ाबला करने से आजिज़ आती गईं जब कि मिस्र "ख़िलाफ़त फ़ातमीह "के ज़ेर-ए-असर था, जहां पर हंगामा-आराई ने अपने पंजे गाड़े हुए थे और फिर ये दिन-ब-दिन चारों तरफ़ फैलते ही चले गए ।बिलआख़िर नौबत ब-ईं जा रसीद कि हलीफ़ों वज़ीरों और सरदारोँ में ख़त्म ना होने वाले झगड़े तूल पकड़ गए ।
मज़कूरा हालात से बढ़कर "मुल्क-ए-शाम "तो फ़ातिमियों और सलजूक़ियों की खींचा-तानी में मैदान-ए-जंग बना हुआ था।इन दोनों कुव्वतों को इस बात की परवाह तक भी ना रही कि अपने मलिक और रियाया के लिए ज़रूरी हुक़ूक़ का ख़्याल ही रख सकें ।
तो उन हालात में छोटी छोटी और हक़ीर सी तवाइफ़ अलमलोकी पर मबनी गिरोही हुकूमतों ने जन्म लिया।कुछ तो ऐसी भी थीं कि जिनके पास एक क़िले से ज़्यादा और थोड़ी सी ज़मीन की टुकड़ी के सिवा कुछ भी ना था।ये अजीब-ओ-ग़रीब हुकमरान आपस में एक दूसरे के ख़िलाफ़ झगड़ने और ज़ुलम-ओ-ज़्यादती करने वाले बनते चले गए ।अब्बू शामा के बाक़ौल।किसी का अपने पेट और शर्मगाह से आगे कोई प्रोग्राम ना था।

2: पहली सलीबी जंग और सुकूत बैतुल-मुक़द्दस
पांचवें सदी हिज्री के आख़िर में जब कि ख़िलाफ़त अब्बासिया ज़वालपज़ीर थी और उम्मत मुस्लिमामुख़्तलिफ़ टुकड़ों में बट कर कमज़ोर हो चुकी थी मसीही अक़्वाम को अपनी नापाक आरज़ू की तकमील का मौक़ा मिल गया। मीडीया वार के तहत पतरस राहिब ने मुस्लमानों के मज़ालिम की फ़र्ज़ी दास्तानें सुना कर पूरे यूरोप में इश्तिआल पैदा कर दिया और मसीही दुनिया में एक सिरे से दूसरे सिरे तक आग लगा दी।पोप अर्बन दोम ने इस जंग को  सलीबी जंग का नाम दिया और इस में शिरकत करने वालों के गुनाहों की माफ़ी और उनके जन्नती होने का मुज़्दा सुनाया।ज़बरदस्त तैयारीयों के बाद फ़्रांस, इंगलैंड, इटली, जर्मनी और दीगर योरपी ममालिक की अफ़्वाज पर मुश्तमिल तेराह लाख अफ़राद का सेलाब आलम-ए-इस्लाम की सरहदों पर टूट पड़ा।रोबर्ट, नार मंडी, गॉड फ़्री और रेमोन अलतोलोज़ी जैसे मशहूर योरपी फ़रमांरवा इन बिफरी हुई अफ़्वाज की क़ियादत कर रहे थे ।शाम और फ़लस्तीन के साहिली शहरों पर क़बज़ा करने और वहां एक लाख से ज़ाइद अफ़राद का क़त्ल-ए-आम करने के बाद शाबान ४९२ह जुलाई १०९९-ए-में सलीबी अफ़्वाज ने बयालिस दिन के मुहासिरे के बाद बैतुल-मुक़द्दस पर क़बज़ा कर लिया और वहां ख़ून की नदियाँ बहा दें ।फ़्रांसीसी मुअर्रिख़ "मैशू के बाक़ौल सलीबियों ने ऐसे तास्सुब का सबूत दिया जिसकी मिसाल नहीं मिलती, अरबों को ऊंचे ऊंचे बुर्जों और मकानों की छत से गिराया गया, आग में ज़िंदा जलाया गया, घरों से निकाल कर मैदान में जानवरों की तरह घसीटा गया, सलीबी जंगजू, मुस्लमानों को मक़्तूल मुस्लमानों की लाशों पर ले जा कर क़तल करते , कई हफ़्तों तक क़त्ल-ए-आम का ये सिलसिला जारी रहा, सत्तर हज़ार से ज़ाइद मुस्लमान (सिर्फ उकसा में )तह-ए-तेग़ किए गए ।आलम-ए-इस्लाम पर नसरानी हुकमरानों की ये वहशयाना यलग़ारतारीख़ में पहली सलीबी जंग के नाम से मशहूर है ।
ईसाई कमांडरों ने फ़तह के बाद यूरोप को ख़ुशख़बरी का पैग़ाम भिजवाया और इस में लिखा : अगर आप अपने दुश्मनों के साथ हमारा सुलूक मालूम करना चाहें तो मुख़्तसिरन उतना लिख देना काफ़ी है कि जब हमारे सिपाही हज़रत सुलेमान अलैहिस-सलाम के माबद (मस्जिद उकसा)में दाख़िल हुए तो उनके घुटनों तक मुस्लमानों का ख़ून था। )तारीख़ यूरोप ए जे ग्रांट स २५७)
बैतुल-मुक़द्दस के सुकूत के बाद मसीही अक़्वाम ने मक़बूज़ा शाम वफ़लसतीन को तक़सीम कर के अल-क़ूदस, तरह बुल्स, अनिता किया और याफ़ा की चार मुस्तक़िल सलीबी रियास्तें क़ायम कर लें , हालात निहायत पुरख़तर थे , आलम-ए-इस्लाम के अक्सर हुकमरान ख़ाना जंगियों में मस्त थे , बाअज़सलीबियों के हलीफ़ बन गए , उनमें से कोई भी नुस्रानीयों से टकराने का हौसला ना रखता था।

3:एक साल में तीन सलीबी हुकूमतों का क़ियाम
इस सूरत-ए-हाल में सलीबियों का मुस्लमान मुल्कों में दाख़िला आसान तर बनता गया, यहां तक कि सिर्फ एक साल और चंद माह के मुख़्तसर अर्से में इस हस्सास इस्लामी खित्ते में इन सलीबियों की मुंदरजा ज़ैल तीन सलीबी हुकूमतें मारज़ वजूद में आ गईं ।

।१ "रहा की हुकूमत जो १० मार्च १०९८-ए-को क़ायम की गई।
।२ "अनिता किया "की हुकूमत :इसी साल ही "हुज़ैर उन में क़ायम हुई जिसने "अल-क़ूदस "शहर पर क़बज़ा कर लिया। फिर १०९९-ए-में "अल-क़ूदस शहर में इस हुकूमत को मुंतक़िल कर दिया गया।फिर ये शहर सलीबियों के हाथों ही में चलता आया।यहां तक कि (८८बरस बाद)सलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह ने ११८७-ए-मैं उनसे वापिस लिया।
।३ "तरह बुल्स की हुकूमत :ये ११०९-ए-में बनाई गई।

सलीबियों की इस तेज़ रफ़्तारी से हुकूमतें बना लेने में हमें ज़्यादा हैरानी नहीं होनी चाहीए क्योंकि हम गुज़शता पशेमान कण और ज़िल्लत आमेज़ अस्बाब देख चुके हैं ।और इस से बढ़कर ये हालत देखते हैं कि हमारे उन क़िलों के वालियों और शहरों के उमरा-ए-में से चंद एक तो उन हमला आवरों से बाक़ायदा तआवुन भी किया करते थे ।अपने माल और अपनी औलाद उनके सामने हाज़िर ख़िदमत कर दिया करते थे , इस हाल में कि वो अल-क़ूदस "शहर पर क़बज़ा करने वाले थे ।जैसा कि "शीज़र में बनू मुन्क़िज़ ने किया और तरह बुल्स "में बनू अम्मार ने ये गुदारा ना काम किया।और उनमें कुछ और भी हैं , जवान के नक़श-ए-क़दम पर चले , जो अपनी हक़ीर, कमीनी और ज़लील हुकूमतों को बचाने के इव्ज़ इस क़ौमी ख़ियानत और ज़िल्लत पर राज़ी हो बैठे थे ।

4:बेदारी का ज़माना
तक़रीबन चालीस साल तक आलम-ए-इस्लाम पर जुमूद तारी रहा, फिर यकायक उन साकित लहरों में जिहादी इज़तिराब पैदा होना शुरू हो गया।ये बिलकुल नहीं हो सकता था कि मुस्लमान इन्ही हालात में से गुज़रते चले जाएं ।इन मायूसियों के बाद उम्मत का शऊर बेदार होना शुरू हुआ, उनसे नजात पाने और रिहाई हासिल करने के लिए सोचें प्रवान चढ़ने लगें , क्योंकि मसलमानबावजोद इन कठिन हालात के जवान पर छाए हुए थे फिर भी क़ुरान-ए-पाक, संत नबवी सिल्ली अल्लाह अलैहि वसल्लम और सीरतनबवी सिल्ली अल्लाह अलैहि वसल्लम की बरकत से अपने दिलों में , अपने वजूद के रोईं रोईं में (और रेशे रेशे में )इन इस्लामी अक़ाइद-ओ-तालीमात को जगह देते आए हैं ।

5:इमादा उद्दीन ज़ंगी के हाथों सलीबियों की ठुकाई
इन कर्बनाक हालात में अल्लाह ताला ने एक तुर्की नौजवान "इमादा उद्दीन ज़ंगी को इस काम के लिए हौसला बख़्शा, यहां तक कि५२१हमें मूसिल की छोटी सी रियासत उस के हाथ लग गई।फिर उसने बुतो फेक इलाही अपनी शान अबक़री, जुर्रत-ओ-हिम्मत, जज़बा ईमानी और ग़ैरत इस्लामी के जज़्बों से सरशार हो कर, मुस्लमानों की आरज़ूओं और तमन्नाओं पर लब्बैक कहते हुए इस मुश्किल काम का बीड़ा उठाया।अपनी मुख़्तसर सी स्टेट को इस तरह वसीअ किया कि हलब, हमाৃ और हुम्मस के इलाक़े अपने साथ मिला लिए ।जिससे एक छोटा सा "मुत्तहदा इस्लामी बलॉक "बन गया, फिर देखते ही देखते इस जिहाद की बरकत से "अलरहा का इलाक़ा सलीबियों सेवा गुज़ार करवा लिया और ५३९ह बमुताबिक़ ११४४-ए-में ईसाईयों की इस हुकूमत को ख़त्म कर दिया, तो मुस्लमानों ने किसी हद तक राहत-ओ-इतमीनान का सांस लिया।उनकी ख़ुद-एधतिमादी पलट आई उन्होंने "अलरहा शहर पर अपने दुबारा क़बज़े को "फ़तह अलफ़तोह का नाम दिया।
इमादा उद्दीन ज़ंगी के पै दरपे हमलों ने ईसाई दुनिया फ़ातहीन के दिमाग़ से तमाम इस्लामी दुनिया को ज़ेर-ए-नगीं करने का ख़्याल रुख़स्त कर दिया और वो फ़लस्तीन और शाम की मक़बूज़ात के दिफ़ा को अपनी बड़ी कामयाबी समझने लगे ताहम इमादा उद्दीन ज़ंगी रहिमा अल्लाह ने उनकी ये ख़ामख़यालीभी दूर कर दी और हुस्न बारीन, "बालबक और "रिहा के अहम मराकज़ उनके क़बज़े से आज़ाद करा लिए ।
फिर वो इस इस्लामी बलॉक की तौसीअ में मुसलसल कोशां रहा।उसने अपनी जिहादी यल्ग़ारों को जारी रखा।यहां तक कि उसने उन दख़ल अंदाज़ ग़ासिब सलीबियों के नापाक वजूद को हिला कर रख दिया बिलआख़िर ५४१हमें "जाबिर नामी क़िले के मुहासिरे के दौरान उम्मत मुस्लिमा का ये अज़ीमसिपहसालार और मुजाहिद शहीद कर दिया गया (अना लिल्लाह वाना एलिया राजावन)

6:नूरा लदेन महमूद रहिमा अल्लाह और इस के जिहादी अज़ाइम
फिर उस के होनहार सपूत नूर उद्दीन महमूद रहिमा अल्लाह ने इस इलम को उठाया, अल्लाह ताला ने उसे सलीबियों के साथ जिहाद का सच्चा जज़बा अता फ़रमाया।इस ने कितने ही क़िले और शहर सलीबियों के क़बज़े से वापिस लिए ।अल्लाह ताला भी उसे उस की ख़ुलूस-ए-नीयत और रफ्तार-ए-अमल-ए-जिहाद की निसबत से अपनी मदद ख़ास से नवाज़ता रहा।यहां तक कि उसने "अल-क़ूदस शहर सलीबियों से छुड़वाने का मुसम्मम इरादा कर लिया, यहां तक ही नहीं बल्कि उसने "बैतुल-मुक़द्दस "में रखवाने के लिए एक मिंबर भी बनवाया, कारीगरों को इंतिहाई महारत और दिलचस्पी से बनाने का हुक्म दिया।बढ़ई हज़रात को यूं समझाया कि "हमने उसे "बैतुल-मुक़द्दस "की ज़ीनत बनाना है लिहाज़ा अपने फ़न की महारतों की इंतिहा-ए-कर दो चुनांचे कारीगरों ने कई सालों की मेहनत-ए-शाक़ा से उसे तैयार किया।इमाम इबन अलासीर "अलका मिल "में इस पर यूं रक़मतराज़ हैं :
((अफ़्जा-ए-अली नहव , लिम यामल फ़ी उल-इस्लाम मसला))
कि ये ऐसा कारनामा है जो इस से क़बल कोई मुस्लमान अंजाम ना दे सका था
इन कोशिशों के साथ साथ उसने इस्लामी बलॉक को मुत्तहिद और बेदार रखने की काविशें भी तेज़-तर कर दें , जिनके नतीजे में अल्लाह ताला ने उसे बिखरी हुई , छोटी छोटी मन पसंद क़िलों और शहरों की हुकूमतों की बजाय एक ताक़तवर जिहाद को जारी रखने वाली सलतनत अता फ़रमाई , जज़ीरৃ फ़र्रअतिया, सूर्य (यानी शाम)अरदन मिस्र , हिजाज़ और यमन इस सलतनत के मज़बूत पाएतख़्त समझे जाने लगे ।
सुलतान नूर उद्दीन ज़ंगी रहिमा अल्लाह ने सलीबियों से जिहाद का इलम सँभाल लिया, और अपने मुसलसल हमलों से तमाम दुनियाए ईसाईयत को बदहवास कर दिया और यूं महसूस होने लगा कि नूर उद्दीन ज़ंगी की क़ियादत में मुस्लमान जल्द या बदीर बैतुल-मुक़द्दस को बाज़याब करा लेंगे , इस ख़तरे को भाँप कर जर्मनी के बादशाह को नराद सालस और फ़्रांस के ताजदार लोई हफ़तुम ने मुशतर्का तैयारी के साथ एक टिड्डी दल लश्कर तर्तीब दिया और ५४२ह ११४७-ए-में आलम-ए-इस्लाम पर चढ़ाई कर दी।सुलतान नूर उद्दीन ज़ंगी रहिमा अल्लाह ने मोमिनाना शुजाअत और ग़ैरमामूली इस्तिक़ामत के साथ दो साल तक उनका भरपूर मुक़ाबला किया और उन्हें इबरतनाक शिकस्त दे कर वापिस लौटने पर मजबूर कर दिया।ईसाई हमला आवरों की इस दूसरी मुशतर्का यलग़ार को तारीख़ में दूसरी सलीबी जंग के नाम से याद किया जाता है ।
चंद साल बाद सुलतान नूर उद्दीन ज़ंगी ने एक ज़बरदस्त मार्के में दस हज़ार सलीबी जंगजूओं कोता तेग़कर के उनके अहम मर्कज़ क़िला हारम पर क़बज़ा कर लिया, बादअज़ां दुनियाए ईसाईयत के मुक़ाबले में मज़बूत मोर्चे तैयार करने के लिए उन्होंने दमिशक़ और मिस्र को भी ज़ेर-ए-नगीं कर लिया।रमयात और सिकंदरीया की बंदरगाहों पर तसल्लुत के बाद उन्होंने यूरोप के बहरी रास्ते से शाम और बैतुल-मुक़द्दस के ईसाईयों की कुमक का रास्ता बंद कर दिया।सुलतान नूर उद्दीन ज़ंगी रहिमा अल्लाह बैतुल-मुक़द्दस की आज़ादी के लिए अपनी तैयारीयों को आख़िरी शक्ल दे रहे थे कि उनका वक़्त मौऊद आ गया।
काश !ज़ात बारी ताला इसे पूरे आलम-ए-इस्लाम को मुत्तहिद करने के लिए कुछ मोहलत और दे देती !।वजूद इस्लामी के एक एक रग-ओ-रेशे में रूह इस्लाम को सरायत हो लेने देती !।अल-क़ूदस शहर को फ़तह हो लेने दीतीमसजदाक़सा में इस मिंबर को नसब हो लेने देती।
अफ़सोस !कि मौत ने ए मोहलत ना दी और फिर मौत भी इस हालत में कि ५६९हमें क़िला दमिशक़ के एक मामूली से कमरा में ये अल्लाह का मुजाहिद-ओ-आजिज़ बंदा अल्लाह रब अलाज़त की बारगाहअक़्दस में मसरूफ़ इबादत था।अभी उसने अपनी उम्र की साठ बहारें ही देखें थीं ।
अना लिल्लाह वाना एलिया राजावन!

6:नूरा लदेन महमूद रहिमा अल्लाह और इस के जिहादी अज़ाइम
फिर उस के होनहार सपूत नूर उद्दीन महमूद रहिमा अल्लाह ने इस इलम को उठाया, अल्लाह ताला ने उसे सलीबियों के साथ जिहाद का सच्चा जज़बा अता फ़रमाया।इस ने कितने ही क़िले और शहर सलीबियों के क़बज़े से वापिस लिए ।अल्लाह ताला भी उसे उस की ख़ुलूस-ए-नीयत और रफ्तार-ए-अमल-ए-जिहाद की निसबत से अपनी मदद ख़ास से नवाज़ता रहा।यहां तक कि उसने "अल-क़ूदस शहर सलीबियों से छुड़वाने का मुसम्मम इरादा कर लिया, यहां तक ही नहीं बल्कि उसने "बैतुल-मुक़द्दस "में रखवाने के लिए एक मिंबर भी बनवाया, कारीगरों को इंतिहाई महारत और दिलचस्पी से बनाने का हुक्म दिया।बढ़ई हज़रात को यूं समझाया कि "हमने उसे "बैतुल-मुक़द्दस "की ज़ीनत बनाना है लिहाज़ा अपने फ़न की महारतों की इंतिहा-ए-कर दो चुनांचे कारीगरों ने कई सालों की मेहनत-ए-शाक़ा से उसे तैयार किया।इमाम इबन अलासीर "अलका मिल "में इस पर यूं रक़मतराज़ हैं :
((अफ़्जा-ए-अली नहव , लिम यामल फ़ी उल-इस्लाम मसला))
कि ये ऐसा कारनामा है जो इस से क़बल कोई मुस्लमान अंजाम ना दे सका था
इन कोशिशों के साथ साथ उसने इस्लामी बलॉक को मुत्तहिद और बेदार रखने की काविशें भी तेज़-तर कर दें , जिनके नतीजे में अल्लाह ताला ने उसे बिखरी हुई , छोटी छोटी मन पसंद क़िलों और शहरों की हुकूमतों की बजाय एक ताक़तवर जिहाद को जारी रखने वाली सलतनत अता फ़रमाई , जज़ीरৃ फ़र्रअतिया, सूर्य (यानी शाम)अरदन मिस्र , हिजाज़ और यमन इस सलतनत के मज़बूत पाएतख़्त समझे जाने लगे ।
सुलतान नूर उद्दीन ज़ंगी रहिमा अल्लाह ने सलीबियों से जिहाद का इलम सँभाल लिया, और अपने मुसलसल हमलों से तमाम दुनियाए ईसाईयत को बदहवास कर दिया और यूं महसूस होने लगा कि नूर उद्दीन ज़ंगी की क़ियादत में मुस्लमान जल्द या बदीर बैतुल-मुक़द्दस को बाज़याब करा लेंगे , इस ख़तरे को भाँप कर जर्मनी के बादशाह को नराद सालस और फ़्रांस के ताजदार लोई हफ़तुम ने मुशतर्का तैयारी के साथ एक टिड्डी दल लश्कर तर्तीब दिया और ५४२ह ११४७-ए-में आलम-ए-इस्लाम पर चढ़ाई कर दी।सुलतान नूर उद्दीन ज़ंगी रहिमा अल्लाह ने मोमिनाना शुजाअत और ग़ैरमामूली इस्तिक़ामत के साथ दो साल तक उनका भरपूर मुक़ाबला किया और उन्हें इबरतनाक शिकस्त दे कर वापिस लौटने पर मजबूर कर दिया।ईसाई हमला आवरों की इस दूसरी मुशतर्का यलग़ार को तारीख़ में दूसरी सलीबी जंग के नाम से याद किया जाता है ।
चंद साल बाद सुलतान नूर उद्दीन ज़ंगी ने एक ज़बरदस्त मार्के में दस हज़ार सलीबी जंगजूओं कोता तेग़कर के उनके अहम मर्कज़ क़िला हारम पर क़बज़ा कर लिया, बादअज़ां दुनियाए ईसाईयत के मुक़ाबले में मज़बूत मोर्चे तैयार करने के लिए उन्होंने दमिशक़ और मिस्र को भी ज़ेर-ए-नगीं कर लिया।रमयात और सिकंदरीया की बंदरगाहों पर तसल्लुत के बाद उन्होंने यूरोप के बहरी रास्ते से शाम और बैतुल-मुक़द्दस के ईसाईयों की कुमक का रास्ता बंद कर दिया।सुलतान नूर उद्दीन ज़ंगी रहिमा अल्लाह बैतुल-मुक़द्दस की आज़ादी के लिए अपनी तैयारीयों को आख़िरी शक्ल दे रहे थे कि उनका वक़्त मौऊद आ गया।
काश !ज़ात बारी ताला इसे पूरे आलम-ए-इस्लाम को मुत्तहिद करने के लिए कुछ मोहलत और दे देती !।वजूद इस्लामी के एक एक रग-ओ-रेशे में रूह इस्लाम को सरायत हो लेने देती !।अल-क़ूदस शहर को फ़तह हो लेने दीतीमसजदाक़सा में इस मिंबर को नसब हो लेने देती।
अफ़सोस !कि मौत ने ए मोहलत ना दी और फिर मौत भी इस हालत में कि ५६९हमें क़िला दमिशक़ के एक मामूली से कमरा में ये अल्लाह का मुजाहिद-ओ-आजिज़ बंदा अल्लाह रब अलाज़त की बारगाहअक़्दस में मसरूफ़ इबादत था।अभी उसने अपनी उम्र की साठ बहारें ही देखें थीं ।
अना लिल्लाह वाना एलिया राजावन!

7:सुलतान सलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह इलम जिहाद थामते हैं
फिर उस के पीछे उस के शागिर्द-ए-रशीद नासिर यूसुफ़ सलाह उद्दीन ने बैतुल-मुक़द्दस और फ़लस्तीन को आज़ाद करवाने के लिए फिर से इस इलम जिहाद को उठा लिया सलाह उद्दीन की शख़्सियत में तक़रीबन तमाम इस्लामी मुहासिन-ओ-ख़साइल कोट कोट कर भर दीए गए थे ।इस में बुर्दबारी-ओ-परहेज़गारी इरादे की पुख़्तगी-ओ-पेशक़दमी, दुनिया से बे र्गुबती और सख़ावत, महारत सयासी-ओ-तदबीर अमली, हमावक़त जिहाद के लिए कमर-बस्ता, इलम दोस्ती और उल्मा की क़द्र-दानी जैसी आला सिफ़ात क़ाबिल रशक थीं ।यक़ीनन जिनको अल्लाह ताला अपने दीन की सर-बुलंदी, अपने दुश्मनों की सरकूबी के लिए चुन लेता है उनमें ये सिफ़ात लाज़िमन मौजूद होती हैं , जो अपना हिस्सा डाल कर तारीख़ इस्लाम का रुख सही जानिब मोड़ देते हैं ।
सुलतान सलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह की शख़्सियत इस्लामी तारीख़ में एक नाक़ाबिल फ़रामोशमुक़ाम रखती है ।उनकी ज़िंदगी का हर लम्हा जिहाद-ए-मुसलसल से इबारत था, उन्होंने देन मुबय्यनकी सर-बुलंदी, कुफ़्र से जिहाद और बैतुल-मुक़द्दस की बाज़याबी के लिए अनथक जद्द-ओ-जहद की और अल्लाह बुज़ुर्ग-ओ-बरतर ने उन्हें उनके इरादे में कामयाब किया।
सुलतान सलाह उद्दीन अय्यूबी का ताल्लुक़ कुरद क़ौम से था जो शाम , इराक़ और तुर्की की जुनूबी सरहदों में पाई जाती है ।उनके वालिद नजम उद्दीन अय्यूब मशरिक़ी आज़रबाईजान के एक गांव "वदीन के रहने वाले थे , बाद में वो शाम आकर इमादा उद्दीन ज़ंगी की फ़ौज में शामिल हो गए ।उनके भाई "असद उद्दीन शेर कोह भी उनके साथ थे ।दोनों ने अपनी सलाहीयतों की बिना पर नुमायां तरक़्क़ी की।नजम उद्दीन अय्यूब के बेटे होने की हैसियत से सलाह उद्दीन अय्यूबी के लिए भी तरक़्क़ी के रास्ते खुल गए ।सुलतान नूर उद्दीन ज़ंगी ने उनकी क़ाबिलीयत देखते हुए मिस्र की फ़तह के लिए उन्हें असद उद्दीन शेर कोह का दस्त रास्त बना कर रवाना किया।मिस्र पर क़बज़ा के कुछ अर्से बाद जब शीरकोह ने वफ़ात पाई तो नूर उद्दीन ज़ंगी के नायब की हैसियत से सलाह उद्दीन अय्यूबी ने वहां की हुकूमत सँभाल ली।५५९हमें सुलतान नूर उद्दीन ज़ंगी की वफ़ात के बाद सलाह उद्दीन अय्यूबी मिस्र के ख़ुद-मुख़्तार हाकिम बन गए ।बादअज़ां उन्होंने दमिशक़ और शाम की चंद दीगर छोटी छोटी कमज़ोर मुस्लिम रियास्तों को भी अपनी तहवील में लेकर एक अज़ीमुश्शान सलतनत क़ायम की जो सलीबीहुकमरानों की मुत्तहदा ताक़त का मुक़ाबला करने और उन्हें इस्लामी मक़बूज़ात से निकालने की भरपूर सलाहीयत रखती थी।
इस से क़बल सुलतान की ज़िंदगी एक आम सिपाही की सी थी मगर हुकमरान बनते ही उनकी तबीयत में अजीब तबदीली पैदा हुई।उन्होंने राहत-ओ-आराम से मुँह मोड़ लिया और मेहनत-ओ-मशक़्क़त को ख़ुद पर लाज़िम कर लिया।उनके दिल में ये ख़्याल जम गया कि अल्लाह को उनसे कोई बड़ा काम लेना है जिसके साथ ऐश-ओ-आराम का कोई जोड़ नहीं ।वो इस्लाम की नुसरत-ओ-हिमायत और जिहाद फ़ी सबील अल्लाह के लिए कमरबस्ता हो गए , अर्ज़-ए-मुक़द्दस को सलीबी जंगजूओं के वजूद से पाक करना उन्होंने अपनी ज़िंदगी का मक़सद बना लिया।
सलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह ने अपनी ज़िंदगी के आख़िरी बरसों के दौरान इसी काम के करने की कोशिश की।इस की शख़्सियत में मौजूद ख़साइस-ओ-कमालात का भी यही तक़ाज़ा था कि तारीख़इस्लाम में हमेशा बाक़ी रहने वाले कुछ शानदार और आलीशान कारनामे सरअंजाम दे ले ।तो क़िस्सा मुख़्तसर अब लीजिए !उस के कुछ ऐसे ही आमाल और कारनामों का बयान भी मुलाहिज़ा हो:
हितेन में सलीबियों पर क़हर-ओ-ग़ज़ब
हितेन बहीरा तबरीह के मग़रिबी जानिब वाक़्य है , जो अब मक़बूज़ा फ़लस्तीन में है ।ये एक सरसब्ज़ शादाब बस्ती है जिसमें पानी की फ़रावानी भी है ।इस में जैसा कि ज़बान ज़द आम है ।कि शुऐबअलैहिस-सलाम की क़ब्र भी मौजूद है ।इस बस्ती के क़रीब ही सुलतान सलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह का सलीबियों से एक खूँरेज़ मार्का हुआ था, वो किस तरह हुआ था ?अभी तारीख़ के औराक़पलटते हैं ।
५८३हमें माह रबी उलअव्वल की २४ तारीख़ को बरोज़ हफ़्ता ये मार्का बपा हुआ।इस मार्का से क़बलसलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह की हालत मज़बूत, क़ुव्वत-ए-बाज़ू तवाना, लश्कर-ए-जर्रार, और लोगों का जम-ए-ग़फ़ीर उस के एक इशारा पर आबरू इस्लाम पर जानिसार होने को तैयार था।सुलतान सलाह उद्दीन ने अल्लाह ताला की अता करदा इन तमाम नेअमतों और कुव्वतों को सलीबियों के मुक़ाबले में करना चाहा ताकि उनकी ईंट से ईंट बजा दी जाये ।

8:प्यास की शिद्दत का अज़ाब ऊपर से मुजाहिदीन की यलग़ारें
उन्हें ये ख़बर मिली थी कि , , सफ़ोरीৃ की चरागाह में सलीब के पुजारी अपने लाओ लश्कर समेत अखटे हो रहे हैं ।सुलतान अपने लश्करों समेत हितेन के इलाक़े बहीरा तबरीह के ग़र्बी पहाड़ पर उनके क़रीब ही ख़ेमा-ज़न हुआ।उसने सलीबियों को उभारा और उन्हें वहां से निकाल कर ऐसे इलाक़े में लाने में कामयाब हो गया जहां पानी ना था।रास्तों में जो चंद चश्मे और तालाब थे उनको भी मुस्लमान मुजाहिदीन ने नाक़ाबिल इस्तिमाल बनादिया था।
जब मुस्लमान और सलीबी एक दूसरे के क़रीब हुए तो शिद्दत प्यास से सलीबी बहुत तंग हुए ।इस के बावजूद वो और मुस्लमान डट कर लड़ते रहे , बहादुरी और सब्र से दाद-ए-शुजाअत देते रहे , मुस्लमानों के मक़दमৃ उल-जैश यानी सिपाह के अगले दस्ते बुलंदी पर चढ़ने में कामयाब हो गए ।जिसके बाद उन्होंने इन अल्लाह के दुश्मनों पर तीरों की बोछाड़ से वो बारिश बरसाई कि वो मुंतशिर टिड्डी दिल का हमला हो, इस से दुश्मन के इन-गिनत घोड़ सवार वासिल जहन्नुम हुए ।इस दौरान सलीबियों ने बारहापानी वाली जगह की तरफ़ बढ़ने की कोशिशें कीं क्योंकि वो समझ बैठे थे कि सिर्फ शिद्दत प्यास ही की वजह से वो कसीर तादाद में मर रहे हैं ।इस बेदार मग़ज़ क़ाइद वसपा सालार ने उनके इरादों को भाँप लिया तो वो उनके और उनकी मतलूबा चीज़ यानी पानी के दरमयान हाइल रहा और ऐसे ही उनकी शिद्दत प्यास को बरक़रार रखा

9:जोश जिहाद और तलब शहादत के ठाठें मारते समुंद्र
फिर ख़ुद बनफ़स नफ़ीस तूफ़ानी मौजों की तरह मुस्लमानों के पास पहुंच पहुंच कर उन्हें उभारता रहा, जो इस शहादत के सिले में उन्हें अल्लाह के पास मिलने वाला था, उस की रग़बत दिलाता रहा शौक़ जिहाद पैदा करता रहा।इन साबिर और सादिक़ मुजाहिदीन के अल्लाह की तैयार शूदा नेअमतों को याद दिलाता रहा तो मुस्लमानों की हालत दीदनी बन गई कि वो मौत यानी मर्तबा शहादत के हुसूल के लिए दीवाना-वार आगे बढ़ने लगे ।जूँ-जूँ अपने सालार की हालत को देखते और इस की ईमान अफ़रोज़ बातों को सुनते तो ज़ाहिरी ज़िंदगी से दस्त कश हो कर जन्नत की तरफ़ लपकने लगे गोया कि अपनी ज़बान-ए-हाल से यूं पुकार रहे हूँ कि हमें इन सलीबियों की सफ़ों के पीछे जन्नत मिल रही है ।

10:अचानक एक नौजवान बिजली की तरह तलवार लिए निकलता है
चशमज़दन में एक नौजवान मुस्लमानों की सफ़ों से बिजली की तरह नमूदार हुआ, और सलीबियों की सफ़ों के सामने सेना ताने खड़ा हो गया, जैसे "मौत पर बैअत "करने वाले लड़ते हैं , ऐसी बेजिगरी से लड़ा कि दुश्मन हैरान-ओ-शश्दर रह गया।फिर दुश्मन इस पर टूट पड़े और उसे शहीद कर दिया।इस का शहीद होना किया था कि पैट्रोल के ख़ज़ानों में आग सुलगा दी गई हो।मुस्लमान तैश में आ गए , उनके सीनों में जोश इंतिक़ाम का तूफ़ान ठाठें मारने लगा।लिहाज़ा उन्होंने ऐसा नारा तकबीर बुलंद किया, कि जिसे कायनात के किनारों ने सुना होगा और आफ़ाक़ आलम ने जिसका जवाब दिया होगा।फिर मुस्लमानों ने सलीबियों पर वो पर ख़ुलूस फ़दाईआना और जा नसारा ना हमले किए जिन्हों ने सलीबियों की सफ़ों को तितर्रबितर कर के रख दिया, सलीबी फ़ौज के सरबराह "अल्को निसाररीमोनड का दिल मायूसी और नाउम्मीदी से भर गया, उसने मैदान-ए-जंग से फ़रार होने की कोशिश की, लेकिन ये कैसे हो सकता था?उसने अपना एक घोड़सवार दस्ता अखटा किया और क़रीबी मुस्लमानों पर हमला-आवर हुआ ताकि भागने के लिए कोई रास्ता बना सके ।लेकिन इस जानिबसुलतान सलाह उद्दीन अय्यूबी का भतीजा तक़ी उद्दीन उम्र मुक़र्रर था, जब उसने देखा कि वो एक मुसीबतज़दा और मायूस आदमी के हमला करने की तरह हमला-आवर हैं , कोई राह-ए-फ़रार चाहते हैं , तो उसने उन्हें भागने की राह दे दी।उन्होंने जान की अमान में ही आफ़ियत जानी और दम दबा कर भाग निकले ।वो ऐसे भाग रहे थे कि पलट कर भी ना देखते थे , क्योंकि उनकी मतलूब एक ही चीज़ थी कि भागो भागो और जान बचाओ।

11:आग का बतौर जंगी हथियार इस्तिमाल
और ये भी इत्तिफ़ाक़ की बात थी कि वो इलाक़ा ऐसा था जहां ख़ुशक घांस और ख़िज़ाँ-ज़दा ख़ुशक दरख़्त बकसरत मौजूद थे और वो दिन भी इंतिहाई ज़्यादा गर्मी वाले , लूओ चलने के अय्याम थे , मुस्लमानों ने इस में आग लगा दी, आग बढ़ी , शोले उठे , हुआ का रुख भी सलीबियों की तरफ़ था।तो इस तरीक़े से सलीबियों पर कई हरारतें हमला-आवर थीं यानी आग की हरारत, धोईं की हरारत।प्यास की हरारत क़िताल की हरारत और मौसम की हरारत।सबकी सब इकट्ठी हो गईं थीं ।इस से क़बलउन्होंने ऐसा हाल कभी ना देखा होगा(क्योंकि ये सलीबी अक्सर सर्द और बर्फ़ानी इलाक़ों के रहने वाले थे )

12:इबरतनाक और हसरतनाक मौत का यक़ीन
उन्हें इस बात का यक़ीन हो गया था कि कोई रास्ता उन्हें मौत से बचा नहीं सकेगा सिवाए उस के कि अपने "अक़ीदा का। ख़ाह वो कैसा भी है ।दिफ़ा करने वाले की तरह बहादुरी के जोहर दिखाते हुए मौत की तरफ़ ही बढ़ा जाये ।उधर इन मुस्लमानों का क्या जोश और वलवला होगा जो अपने सच्चे अक़ीदे के साथ लड़ रहे थे , जिनके घर-बार लूट लिए गए थे जिनके इलाक़े छीन लिए गए थे ।
सलीबी एक-बार फिर जमा हुए , मुस्लमानों पर कई हमले किए , क़रीब था कि मुस्लमानों को उनकी जगहों से हटा देते अगर उन पर अल्लाह ताला की ख़ास इनायत ना होती।बस ये होता रहा कि हर बार सलीबी जब हमले से वापिस पलटते तो मक़्तूलीन और मजरूहीन की तादाद में इज़ाफ़ा ही पाते यहां तक कि कमज़ोर से कमज़ोर तुरही बनते गए ।इमाम इबन अलासीर के बाक़ौल :मुस्लमानों ने उन्हें दायरे के मुहीत की तरह घेरे में ले लिया, कुछ बाहर बच्चे तो वो हितेन की एक जानिब एक टीले पर चढ़ने में कामयाब हो गए , वहां उन्होंने अपने खे़मे नसब करने चाहे तो मुस्लमान उन पर चारों तरफ़ से टूट पड़े , अक्सर को वासिल जहन्नुम किया फिर भी वो एक ख़ेमा नसब करने में कामयाब होहि गए और वो भी अपने बादशाह का ख़ेमा

13:सलीब आज़म पर मुजाहिदीन का क़बज़ा
मुस्लमानों ने दरीं असनाए उनसे इस सलीब आज़म "को छीन लिया जिसको "सलीब अलसलबोत कहते थे । इस सलीब का मुस्लमानों के क़बज़ा में आ जाना उनके लिए सबसे बड़ी परेशानी बन गई।ऊपर से अल्लाह का लश्कर यानी मुस्लमान उन्हें तह-ए-तेग़ किए जा रहे थे और बेशुमार को क़ैदी भी बना रहे थे , यहां तक कि इस टीले पर बादशाह के ख़वास और बहादुर तक़रीबनडेढ़ सद घोड़ सवार बाक़ी रह गए ।

14:सलीबी बादशाह के खे़मे की तबाही और सजदा में शुक्राना के आँसू
यहां से हम सलाह उद्दीन के बेटे सुलतान अफ़ज़ल की बात आपके सामने रखते हैं जो उसने मार्का के इस मरहला से मुताल्लिक़ अपनी ऐनी शहादत के तौर पर बयान की है , वो बताता है कि "में भी इस मार्का में अपने अब्बू के हमराह था।इन फ़िरंगियों ने अपने मद्द-ए-मुक़ाबिल मुस्लमानों पर एक बारगीएक बड़ा ख़तरनाक हमला किया, यहां तक कि उन्हें मेरे अब्बू के क़रीब तक ले आए ।मैंने अपने अब्बू जान की तरफ़ निगाह उठाई तो चेहरे पर परेशानी और ग़ुस्से के आसार देखे , उन्होंने अपनी रीश-ए-मुबारक को पकड़ा और नारा तकबीर बुलंद करते हुए दुश्मन पर टूट पड़े ।मुस्लमानों ने उनकी पैरवी की।फ़रंगी शिकस्त खा कर पीछे हटे और एक टीले तक पहुंच कर पनाह गज़ीं हुए ।मैं इस दम ज़ोर ज़ोर से चला रहा था : हमने उन्हें हरा दिया, हमने उन्हें शिकस्त दे दी !! फ़रंगी दुबारा पलटे , दूसरी बार फिर हमला-आवर हुए ।उन्होंने अपने सामने वाले मुस्लमानों को फिर मेरे अब्बू तक पहुंचा दिया।मेरे अब्बू जान ने दुबारा पहले की तरह किया, मुस्लमान भी उनके साथ ही झपटे और यूं दुबारा उन्हें इस टीले तक पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।
दरअसल सुलतान सलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह अपना ये फे़अल-ओ-अमल इस अंदाज़ से कर रहे थे जिस अंदाज़ से रसूल अल्लाह सिल्ली अल्लाह अलैहि वसल्लम ने यौम बदर में किया था।जैसा कि सय्यदना अली बिन अबी तालिब रिवायत बयान करते हैं : जब लड़ाई अपने जोबन पर होती, आँखें जोश इंतिक़ाम में सुर्ख़ हो चुकी होतीं तो लोग आपके पास आकर अपने आपको बचाया करते थे , लड़ाई की इस हालत में आप दुश्मन के क़रीब-तर हुआ करते थे । ये बात कोई काबिल ताज्जुब भी नहीं ।बल्कि ऐसे मरहले में एक हक़ीक़ी मोमिन सिपहसालार को जो सलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह जैसा हो, उसे रसूल की पैरवी ही करनी चाहिए ।
जब मुस्लमान दूसरी मर्तबा इफ़रंगीयों पर झपटे अफ़ज़ल फिर चिल्लाने लगा : हमने उन्हें शिकस्त दे दी।हमने उन्हें हरा दिया।!!तो इस का बाप(सुलतान )उस की तरफ़ पल्टा और उसे कहा : चुप हो जा जब तक इस ख़ेमा को उखाड़ ना लें हमने उन्हें शिकस्त नहीं दी "ये सलीबी बादशाह के इस खे़मे की तरफ़ इशारा करते हुए कहा जो टीले पर नसब किया गया था।सलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह ने अभी अपना ये जुमला पूरा भी ना किया था कि मुजाहिदीन की तरफ़ से इस खे़मे को ज़मीन बोस किया जा चुका था।सुलतान ने ये देखते ही अपने घोड़े से नीचे उतरा वर बारगाह इलाही में सजदा शुक्र अदा किया।इस के साथ ही, जो अल्लाह ने मुस्लमानों पर इनाम फ़रमाया था, आपके गंदुमगूं रुख़्सारों पर ख़ुशी वानबसात के आँसू मोती बन कर बह रहे थे ।अल्लाहु-अकबर !ये यादगार मार्का फ़लस्तीन की सलीबी रियास्तों के मुकम्मल ख़ातमे और बैतुल-मुक़द्दस की आज़ादी का पेश-ख़ेमा साबित हुआ।इस मार्का के मुताल्लिक़ मग़रिबी मुअर्रिख़ लेन पोल लिखता है : कटे हुए सर ख़र बोज़ों की फ़सल की मानिंद हर तरफ़ बिखरे पड़े थे ।

15:मुस्लमानों के सबसे बड़े दुश्मन की गिरफ़्तारी
मुस्लमान टीले पर चढ़ गए , तमाम फ़िरंगियों को क़ैदी बना लिया।उनमें बैतुल-मुक़द्दस का बादशाह "जान नूर जियान और "कर्क क़िला का मालिक "अल्बर नस उरनात भी शामिल था।तमाम फ़िरंगियों में इस से बढ़कर मुस्लमानों का कोई दुश्मन ना था मुस्लमानों ने उनमें सबसे अज़ीम एल्मर तिब्बत बुरी फ़ौज के कमांडर इन चीफ़ "जीरारडी रैड फोर्ट को भी गिरफ़्तार कर लिया।मुस्लमानों ने उनके बहुत से सरकरदा लीडरों को भी क़ाबू कर लिया था।उनके इलावा बुरी फ़ौज और सहराई-ओ-ब्याबानी फ़ौज के दस्तों को भी गिरफ़्तार कर लिया गया था।
ख़ुलासा ये कि उनमें वासिल जहन्नुम भी बकसरत हुए और बकसरत ही गिरफ़्तार हुए ।जो कोई उनके मक़्तूलों को देखता तो ये ख़्याल करता कि कोई एक भी गिरफ़्तार ना हुआ होगा (यानी सब के सब वासिल जहन्नुम हो गए हैं )जो कोई उनके क़ैदीयों पर निगाह डालता तो ये ख़्याल करता कि कोई भी क़तल नहीं हुआ होगा(यानी सब के सब क़ैदी बना लिए गए हैं ।यानी वो इस कसरत से मक़्तूल और क़ैदीहुए थे )उन ज़ालिमों को जब से (४९१ह /१०९७म )से ये उन इस्लामी ममालिक में घुसे हैं , इतना बड़ा नुक़्सान बर्दाश्त नहीं करना पड़ा था इस मार्का में ईसाई मुअर्रिख़ मचाड इस जंग में ईसाईयों के नुक़्सान की तरफ़ इशारा करते हुए तफ़सील से लिखता है :
"फ़तह मुस्लमानों की तरफ़ माइल हो चुकी थी लेकिन रात ने दोनों फ़ौजों को अपने तारीक पर्दे में छिपा लिया, और फ़ौजें इसी तरह हथियार पहने हुए जहां थीं सुबह के इंतिज़ार में पड़ रहीं ।ऐसी रात में आराम किस को नसीब हो सकता था।सुलतान तमाम रात फ़ौजों को जंग के लिए बरअंगेख़्ता करता रहा।निहायत पर जोश अलफ़ाज़ में उनकी हिम्मत और हौसलों को बढ़ाने की कोशिश की।तीर अंदाज़ों में चार चार-सौ तीर तक़सीम कर के उनको ऐसे मुक़ामात पर मुतय्यन किया कि ईसाई फ़ौज उनके अहाता से ना निकल सके ।

16:तीस हज़ार सलीबी फ़ौजी मुजाहिदीन के हाथों कटते हैं !
ईसाईयों ने तारीकी से ये फ़ायदा उठाया कि अपनी सफ़ों को क़रीब क़रीब यकजा कर लिया, लेकिन उनकी ताक़त सिर्फ़ हो चुकी थी।दौरान जंगबाज़ औक़ात वो एक दूसरे को मौत की परवाह ना करने की तालीम देते थे और बाज़-औक़ात आसमान की तरफ़ हाथ उठा कर अल्लाह ताला से अपनी सलामतीकी दुआएं मांगते थे ।किसी वक़्त वो इन मुस्लमानों को जवान के नज़दीक थे धमकीयां देते थे ।और अपने ख़ौफ़ को छिपाने के लिए सारी रात फ़ौज में ढोल और नफ़ीरी बजाते रहे ।
आख़िर-ए-कार सुबह की रोशनी नमूदार नमूदार हो गई जो तमाम ईसाई फ़ौज की बर्बादी का एक निशान थी।ईसाईयों ने जब सलाह उद्दीन की तमाम फ़ौज को देखा और अपने आपको सब तरफ़ से घर हुआ पाया तो ख़ौफ़ज़दा और मुतअज्जिब हो गए ।दोनों फ़ौजें कुछ देर तक एक दूसरे के सामने अपनी अपनी सफ़ों में आरास्ता खड़ी रहीं ।सलाह उद्दीन हमला का हुक्म देने के लिए उफ़ुक़ पर रोशनी के अच्छी तरह नमूदार हो जाने का इंतिज़ार कर रहा था।जब सलाह उद्दीन ने वो मोहलिक लफ़्ज़ पुकार दिया तो मुस्लमान सब तरफ़ से यक-बारगी हमला कर के ख़ौफ़नाक आवाज़ें बुलंद करते हुए (जिससे अंग्रेज़ मुर्ख़ की मुराद नारा तकबीर अल्लाहु-अकबर है )टूट पड़े ।ईसाई फ़ौज कुछ देर तक तो जान तोड़ कर लड़ी मगर उनकी क़िस्मतें उनके दिनों को ख़त्म कर चुकी थीं ।उनकी बाएं जानिब कोह हितेन वाक़्य था।तलवारों और नेज़ों के साया में पनाह ना देखकर वो हितेन की तरफ़ बढ़े कि इसी को अपना अपना पनाह-गाह बना लें लेकिन तआक़ुब करने वाले मुस्लमान वहां उनसे पहले पहुंचने वाले थे ।यही मुक़ाम इस अज़ीम और मुहीब ख़ूँरेज़ी की यादगार होने (बनने )वाला था। सलीब की लक्कड़ी जो "इक्का के पादरी के हाथ में थी, पादरी के कट कर गिर जाने पर "लज़ा के पादरी ने संभाली मगर वो मा सलीब के मुस्लमानों के हाथों में क़ैद हो गया।सलीब को छुड़ाने की कोशिश करना बाक़ी ईसाई फ़ौज की मौत का बाइस हो गया।हितेन की ज़मीन कुश्तों से भर गई।ख़ून का दरिया बह निकला।एक रिवायतके मुताबिक़ तीस हज़ार ईसाई फ़ौज के ख़ून से रंगी गई और तीस हज़ार ही मुस्लमानों की क़ैद में आ गए ।मुस्लमानों की फ़ौज के नुक़्सान का कोई सही अंदाज़ा बयान नहीं किया गया मगर ऐसी फ़तहआसानी से नहीं हो सकती थी।ईसाई नाइट और सवार सर से पांव तक लोहे की ज़िरहों वग़ैरा में ऐसे छिपे हुए होते थे कि सिवाए आँख के उनके जिस्म का कोई मुक़ाम खुला नहीं होता था और कोई हथियार आसानी से उन पर कारगर नहीं हो सकता था।
17:जब चालीस चालीस सलीबी क़ैदी खे़मे की एक रस्सी से बाँधे गए !
एक मुस्लमान मुर्ख़ इस अमर को बतौर अजीब वाक़िया बयान करते हुए जिहादी अज़मत के हक़ायक़ का इन्किशाफ़ करते हुए लिखता है कि:, , ईसाई सवार सर-ता-पा लोहे से ढके हुए थे और उनके जिस्म पर नेज़ा और तलवार से ज़ख़म लगाना मुश्किल होता था।इसलिए पहले घोड़े को क़तल कर के सवार को ज़मीन पर गिराना पड़ता था और फिर उस को मारा जाता था।इसी सबब से बेशुमार मिला ग़नीमत में कोई घोड़ा मुस्लमानों के हाथ ना आया।ईसाई मक़्तूलों के सख़्त हैबतनाक नज़्ज़ारे मुर्ख़ों ने बयान किए हैं ।उनकी सफ़ों की सफ़ें कटी पड़ी थीं और जिधर नज़र जाती थी।इसी तरह ईसाई की तादाद भी अज़ीमथी।एक एक रस्सी में तीस तीस चालीस चालीस ईसाई बांध दिए गए और सौ-सौ और दो दो सौ क़ैदीयों को एक जगह बंद किया गया, जिन पर एक ही मुस्लमान मुहाफ़िज़ था।एक शख़्स अपना चशमदीदवाक़िया बयान करता है कि एक मुस्लमान सिपाही अकेला ४० ईसाई क़ैदीयों को ख़ेमा की रस्सी से बांध कर हाँकता हुआ ले जा रहा था।दमिशक़ में तीन दीनार को एक एक ईसाई क़ैदी फ़रोख़त हुआ।और एक सिपाही ने जिसके पास जूता ना था, अपने हिस्सा के एक ईसाई क़ैदी को एक कफ़्शदोज़ (मोची)के हाथ जूते के बदले में फ़रोख़त किया।माल-ए-ग़नीमत की तक़सीम से हर एक ग़रीब सिपाही भी मालदार हो गया।
ग़रज़ इस किस्म के हालात हैं जो बयान किए गए हैं ।जिससे ज़ाहिर होता है कि हितेन की शिकस्त ने ईसाईयों की ताक़त को जड़ से उखेड़ दिया था और इस से ज़्यादा अबतरी और तबाही क्या हो सकती है कि ईसाईयों की सलीब, ईसाईयों का बादशाह, हर एक ईसाई अमीर और नामवर शख़्स मुस्लमानों के हाथ में क़ैद हो गया था।उमरा-ए-और नामवर वालियाँ मुल्क ईसाईयों में सिर्फ एक शख़्स रेमंड साहिब तरह बुल्स जो फ़ौज के पिछले हिस्सा पर मुतय्यन था, मैदान-ए-जंग से जान बचा कर भाग सका, मगर मौत ने वहां भी इस का पीछा ना छोड़ा और तरह बुल्स में पहुंच कर दिल-शिकनी से या ज़ात अलजनब के मर्ज़ से मृगया।
18:सुलतान के ख़ेमा में
सुलतान सलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह का ख़ेमा नसब किया गया, वो अल्लाह ताला की इन नेअमतों पर शाकिर, क़ाबिल रशक हालत में ख़ेमा में बैठा हुआ था।लोग इन क़ैदीयों को और उनके रुस्वा-ए-ज़माना बड़े बड़े ओहदेदारों को, जिनको गिरफ़्तार करने में कामयाब हुए थे , बारी बारी सुलतानके सामने ला रहे थे ।इस फ़ातिह सुलतान ने सलीबियों के बादशाह यरूशलम गाई और "अल्बर नसउरनात (रेजी नालड)को अपने ख़ेमा में तलब किया, बादशाह को एक तरफ़ बिठा दिया गया, उस की हालत ये थी कि शिद्दत प्यास से जाँ-ब-लब था, बस मिरा ही चाहता था, उसे थोड़ा सा ठंडा अर्क़ गुलाब पेश किया, जिसे उसने पिया, और फिर "बुर्नुस उरनात को भी पिलाया।सलाह उद्दीन ने तर्जुमान से कहा कि उसे बतला दो कि "तो ने पानी पी लिया है जब कि मैंने अभी तक मुँह से भी नहीं लगाया।क्योंकि ये मुस्लमान जरनैलों की शुरू से आदत चली आ रही है कि जब उनके क़ैदी, गिरफ़्तार करने वालों के सामने कुछ खा पी लेते हैं तो उन्हें दिल्ली सुकून मिल जाता है
19:वक़्त हिसाब आन पहुंचा
जी हाँ , हिसाब की घड़ी आन पहुंची थी, लेकिन किस का हिसाब?इस उरनात (रेजी नालड)का हिसाब जो मुस्लमानों को अज़ीयतें और तकालीफ़ पहचाने (उनको बुरी तरह तड़पा तड़पा कर मारने )और उनकी बद ख़्वाही-ओ-दुश्मनी में तमाम सलीबी उमरा-ए-में से पेश पेश रहता था।जो मुस्लमानों से फ़राड करने , धोका देने और वाअदे तोड़ने में बहुत गहिरा आदमी था।
सलाह उद्दीन और उरनात(रेजी नालड)के माबैन एक मुआहिदा तै पाया था।जिसके मुताबिक़ हाजियों और ताजिरों के क़ाफ़िले सहरा-ए-अरदन से उरनात के क़िले "कर्क के क़रीब से बड़े इतमीनान से बुला ख़ौफ़ गुज़रते रहे मिस्र और शाम के दरमयान भी एक रास्ता बराए आमद-ओ-रफ़त बन चुका था। ये दोनों शहर इस तरक़्क़ी पज़ीर बेदार इस्लामी बलॉक के दो अहम बाज़ू थे जिसे नूर उद्दीन ने मुनज़्ज़मकिया था।जिसका बाद में सलाह उद्दीन वारिस बना था, जैसा कि हम पहले ज़िक्र कर आए हैं
एक-बार ऐसे हुआ कि एक बहुत बड़ा क़ाफ़िला उम्दा साज़-ओ-सामान लिए मिस्र से बजानिब शाम रवाँ-दवाँ था।इन नफ़ीस, उम्दा तरीन और बेश-बहा गिरांमाया इश्याय पर नज़र पड़ते ही उरनात की राल टपकने लगी।उसने तमाम वादों को पसेपुश्त डाल कर, क़ौल-ओ-क़रार को तोड़ कर, क़ाफ़िले को लौटा और सब अहल क़ाफ़िला को गिरफ़्तार कर के क़ैदी बना लिया।और फिर उनसे यूं कहने लगा: (क़ूओलूवा लिमुहम्मदिकुम युख़लिसुकुम)कि अपने नबी मुहम्मद से कहो कि वो यहां आए और तुम्हें छुड़ा कर ले जाये "।
५७७ह बमुताबिक़ ११८१-ए-को मौसिम-ए-गर्मा में उरनात अपनी फ़ौजों को लेकर निकला, बिलाद अरब में आगे बढ़ते बढ़ते शीमा-ए-के इलाक़े तक आन पहुंचा "अलमदीना अलमनोरा "फिर "मकৃ अलमकरमৃ तक चढ़ाई करने की इस की नीयत बन चुकी थ्यास के लिए वो पर तौल ही रहा था कि फ़रोग़ शाह सलाह उद्दीन के भतीजे ने , जो दमिशक़ पर इस की तरफ़ से क़ाइम मक़ाम था, अरदन पर हमला करने में फुर्ती से काम लिया, जिसकी वजह से उरनात अपने "तख़्त सलतनत कर्क को बचाने के लिए वापिस पलटने पर मजबूर हो गया।
इस के उन्ही ज़ुलम-ओ-जौर पर मबनी अफ़आल और वादों को तोड़ कर करने वाली हरकतों की वजह से सलाह उद्दीन ने क़सम उठा रखी थी अगर अल्लाह ताला ने उसे "उरनात पर कामयाबी अता फ़रमाई तो वो उसे अपने हाथ से वासिल जहन्नुम करेगा
20:सलीबी गुस्ताख का कर्बनाक अंजाम
अब जबकि हिसाब का वक़्त क़रीब आन पहुंचा था, अल्लाह ताला "उरनात को जंगी क़ैदी की सूरत में सुलतान के पास ला चुका था तो सुलतान सलाह उद्दीन उसे उस की एक एक हरकत और करतूत याद दिलाने लगा उसे कहने लगा: तो कितनी बार कसमें उठाता रहा और कितनी ही बार उन्हें तोड़ता रहा मैंने भी तुम्हारे मुताल्लिक़ दो मर्तबा क़सम खाई थी।एक मर्तबा जब तू ने मक्का और मदीना के मुक़द्दसशहरों पर क़बज़ा करने की कोशिश की थी।दूसरी मर्तबा उस वक़्त तो ने धोके से हाजियों के क़ाफ़िले पर हमला किया था और किया तो ने ये बकवास ना की थी कि "अपने नबी मुहम्मद()से कहो कि तुम्हें छुड़ा कर ले जाये "हाँ !अब वो वक़्त आन पहुंचा है कि मैं मुहम्मद के लिए बदला ले रहा हूँ ।
इस के बाद उसे इस्लाम क़बूल करने की दावत दी जिसे उसने ठुकरा दिया, फिर उस वक़्त सुलताननासिर सलाह उद्दीन ने एक तलवार नुमा ख़ंजर को, दरमयान से पकड़ कर उसे मारा।फ़रास (सुलतान)के किसी साथी ने इस मलऊन का काम तमाम कर दिया, फिर उसे घसीटा गया।मशहूर-ओ-मारूफ़ क़ैदीयों को दमिशक़ की तरफ़ चलाया गया और एक क़िले में उन्हें बंद कर दिया गया।इबन शद्दाद के बाक़ौल ":मुस्लमानों ने वो रात इंतिहाई ज़्यादा मुसर्रत-ओ-फ़र्हत और कमाल दर्जे की ख़ुशीयों में बसर की।अल्लाह रब अलाज़त सुबूह वक़दोस की तारीफों और शुक्राने के जुमलों से फ़िज़ा गूंज रही थी।अल्लाहु-अकबर और लाअलाआ इल-लल्लाह की सदाओं में इतवार की सुबह तलूअ हुई।
21:सलीबियों पर सलाह उद्दीन की मेहरबानीयां
आख़िर रबी अलाख़र ५८३हिज्री के चहार शंबा के रोज़ सुलतान ने "इक्का की तरफ़ कूच किया।ये मशहूर बंदरगाह जो ताजिरों और सौदागरों से भरी हुई थी और जिसने बाक़ौल मुर्ख़ मचाड के "पिछले ज़माना में मग़रिब की निहायत ताक़तवर फ़ौजों के हमलों का तीन बरस तक मुक़ाबला किया था "दो रोज़ भी सुलतान के मुक़ाबले में ना ठहरसकी।सुलतान ने अहल-ए-शहर को अमान और आज़ादी दी कि अपने सबसे क़ीमती अस्बाब जो ले जा सकें लेकर वहां से चले जाएं ।जुमा के रोज़ सुलतान शहर में दाख़िल हुआ क़ाज़ी फ़ाज़िल भी इस मौक़ा पर मिस्र से आ गए और सबसे पहले नमाज़-ए-जुमा साहिल के इलाक़ा "इक्का में पढ़ी गई।इस के बाद नॉबलस, हैफा, केसार ये, सफ़ोरीह, नासिरा यके बाद दीगरे बहुत जल्द बग़ैर किसी मुज़ाहमत के फ़तह कर लिए गए और इसी सिलसिला फ़ुतूहात में तमाम साहिल को चंद ही माह में सुलतानी अफ़्वाज ने मुसख़्ख़र कर लिया।
एक मुर्ख़ ने उनमें से बाअज़ मशहूर मुक़ामात के नाम ब-तरतीब जे़ल यकजा लिख दिए हैं :
तबरीह, इक्का, जे़ब, माल्या, असकंदरो ना, ततययन, नासिरा, अविर, सफ़ोरीह, फूला, जिनियस, अरईन, देवरिया, असरबला, बयान, मबसतीह, नॉबलस, लुजोन, अरीहा, सनजल, बीरा, याफ़ा, अरसोफ़, केसार ये, हैफा, सरफुद्, सैदा, बेरूत क़िला, अबी उल-हसन, जबील, नजदल याबा, मजदल हुबाब, दारोम, अज़ा, अस्क़लान, तिल साफ़िया, तिल अह्मर, उतरो, बैत जरील, जबल अलख़ील, बैत अललहम, लाब, रेला, क्रेता, अल-क़ूदस, सूबा, हुर्मुज़ सुलह, इज़वा, शक़ीफ़।
इन मुक़ामात में से अक्सर तो सुलतान ने अमन और मुसालहत के साथ ले लिए ।उनके बाशिंदों को अपना माल वासबाब लेकर अमन से चले जाने की इजाज़त दी।मसाले मुल्की के लिहाज़ से सुलतानअपनी नरमी और मुलातिफ़त के सुलूक में ग़लती कर रहा था कि वो मुतफ़र्रिक़ बाशिंदों और उनकी परेशान ताक़तों को यकजा जमा हो जाने और इस जमईयत से एक मज़बूत ताक़त पैदा कर लेने का मौक़ा दे रहा था।इस ख़तरनाक ग़लती का उस को आख़िर ख़मयाज़ा उठाना पड़ा मगर कोई इस किस्म का ख़्याल उस को इस एहसान और मुरव्वत करने से बाज़ ना रख सका।वो तमाम ईसाईयों को अमन-ओ-अमान देने और सुलह के साथ इताअत कराने के लिए तैयार रहा।बाअज़ मुक़ामात के लोग इस से मुक़ाबला करने पर तैयार हुए मगर उनको भी अमान देने के लिए जब वो अमान मांगें वो हरवक़त तैयार था।मसलन अस्क़लान के लोगों ने जो एक निहायत मज़बूत और साथ ही निहायत मुफ़ीद मुक़ाम था, क्योंकि मिस्र के साथ बराह-ए-रास्त आमद-ओ-रफ़त के ताल्लुक़ात क़ायम करने का एक महफ़ूज़ और कार-आमद ज़रीया था, मुक़ाबला किया और जब सुलतानी फ़ौज ने क़िला को तोड़ कर शिगाफ़ डाला और सुलतान ने बाशिंदों को इस वक़्त भी अमन क़बूल करने के लिए कहा तो उन्होंने इनकार किया और मुक़ाबला के इरादा को ना छोड़ा।लेकिन गोई बादशाह यरूशलम ने जो सुलतान की क़ैद में सुलतान के हमराह था, अहल अस्क़लान को समझाया कि तुम अपने बचाओ की बेफ़ाइदा कोशिश में अपने अहल-ओ-अयाल की जानों को ख़तरा में ना डालो।इस पर उन्होंने सुलतान के पास आकर सुलह और अमन की दरख़ास्त की और सुलतान ने बाक़ौल मचाड: उनकी शुजाअत की दाद देने में जो शराइत उन्होंने पेश कीं मंज़ूर कर लें और अपने बादशाह की निसबत उनकी मुहब्बत के ख़्यालात से मुतास्सिर हो कर बादशाह को एक साल के इख़तताम पर आज़ाद कर देने के लिए रज़ामंद हो गया।
22:दस हज़ार मुस्लमान क़ैदीयों की सलीबियों के ज़ुलम से रिहाई
सुलतान को इन तमाम अलतादाद मुस्लमान क़ैदीयों के आज़ाद करने का मौक़ा मिला।एक शहर फ़तहकरने के बाद जो काम सबसे पहले सुलतान करता था, वो क़ैदीयों की ज़ंजीरीं तोड़ता और उनको आज़ाद करना और कुछ माल-ओ-मता देकर रुख़स्त कर देना होता था।इस साल में सुलतान ने दस (१०)हज़ार से ज़्यादा मुस्लमान क़ैदी आज़ाद किए जो मुख़्तलिफ़ मुक़ामात पर ईसाईयों की क़ैद में थे ।
साहिल के तमाम मलिक के फ़तह हो जाने पर सिर्फ सूर और बैतुल-मुक़द्दस ईसाईयों के हाथ में और काबिल-ए-फ़तह रह गए थे , और ये सब कुछ बैतुल-मुक़द्दस के वास्ते था जो किया गया था।ये नूर उद्दीन रहिमा अल्लाह की उम्र-भर की आरज़ू थी जिसके पूरा ना करने पर सुलतान ने इस को अपनी ज़िंदगी का मक़सद और तमन्ना क़रार दिया था और इसी एक बड़े मुद्दा को पेश-ए-नज़र रखकर अपने तमाम कामों की इल्लत ठहराया था।इसी ग़रज़ से मुस्लमानों हुकूमतों को मुंतशिर ताक़तों और परेशान अजज़ा को जमा कर के एक मुत्तहदा ताक़त बनाने के लिए एक अरसा-ए-दराज़ तक लगा रहा और सर तोड़ कोशिशें की थीं , और यही दिन थे जिनका इंतिज़ार उसने ऐसे सब्र और तहम्मुल के साथ किया था और जिनके वो अब इस क़दर क़रीब पहुंच गया था।


23:जिहादी जज़्बों में आग लगा देने वाला शोला बयान ख़िताब
फ़तह अस्क़लान के बाद सुलतान ने तमाम लश्करों को जो अतराफ़-ओ-जवानिब में मुंतशिर हुए थे , बैतुल-मुक़द्दस की तरफ़ कूच करने के लिए जमा किया और उल्मा-ओ-फुज़ला-ए-और हर फ़न और इलम के अहल-ए-कमाल को जो इस अरसा में सुलतान की कामयाबी की ख़बरें सुनकर मुख़्तलिफ़ममालिक-ओ-देर से इस के पास जमा हो गए थे , साथ लिया और अल्लाह ताला से फ़तह-ओ-नुसरत की दुआएं मांगते हुए इस मुक़द्दस घर की तरफ़ राही हुए ।बैतुल-मुक़द्दस के क़रीब पहनने पर जब ईसाईयों की फ़ौज के एक दस्ता से मुस्लमान लश्कर की एक बढ़ी हुई जमात से मुड़भेड़ हो गई तो सुलतान ने तमाम अरकान-ए-दौलत, अहल शुजाअत, शाहज़ादगान वाला मर्तबत, बिरादरान आली हिम्मत और तमाम उमरा-ए-और मुसाहिबीन और अहल लश्कर का एक दरबार मुरत्तिब किया और उन सबसे सलाह-ओ-मश्वरा लिया और ख़ातमा पर इन सबको ख़िताब कर के एक पर-असर तक़रीर की और कहा कि :
"अगर अल्लाह ताला की मदद से हमने दुश्मनों को बैतुल-मुक़द्दस से निकाल दिया तो हम कैसे सआदत-मंद होंगे और जब वो हमें तौफ़ीक़ बख़्शेगा तो हम कितनी बड़ी भारी नेअमत के मालिक हो जाऐंगे ।बैतुल-मुक़द्दस ९१ बरस से कुफ़्फ़ार के क़बज़ा में है और इस तमाम अरसा में इस मुक़द्दसमुक़ाम पर कुफ़्र और शिर्क होता रहा है एक दिन बल्कि एक लम्हा भी अल्लाह वाहिद की इबादत नहीं हुई।इतनी मुद्दत तक मुस्लमान बादशाहों की हिम्मतें उस की फ़तह से क़ासिर रहें , इतना ज़माना इस पर फ़िरंगियों के क़बज़ा का गुज़र गया है ।बस अल्लाह ताला ने इस फ़तह की फ़ज़ीलत ऑल अय्यूब के वास्ते रखी थी कि मुस्लमानों को उनके साथ जमा करे और उनके दलों को हमारी फ़तह से रज़ामंद करे ।बैतुल-मुक़द्दस की फ़तह के लिए हमें दिल और जान से कोशिश करनी चाहीए और बेहद सई और सरगर्मी दिखानी चाहीए ।बैतुल-मुक़द्दस और मस्जिद उकसा जिसकी बुना तक़्वा पर है जो अनबया-ए-अलैहिम अस्सलाम और औलिया-ए-का मुक़ाम और परहेज़गारों और नेकोकारों का माबद और आसमान के फ़रिश्तों की ज़यारत गाह है ।ग़ज़ब की बात है कि वहां कुफ़्फ़ार का क़बज़ा है ।काफ़िरों ने इस को अपना तीर्थ बना रखा है ।अफ़सोस, अफ़सोस !अल्लाह के प्यारे बंदे जौक़ दर जौक़ उस की ज़यारत को आते हैं ।इस में वो बुज़ुर्ग पत्थर है जिस पर जनाब रसूल अल्लाह के मेराज पर जाने का मिनहाज बतौर यादगार बना हुआ है जिस पर एक बुलंद क़ुब्बा ताज की मानिंद तैयार किया हुआ है , जहां से बिजली की तेज़ी के साथ बुराक़ बरक़रफ़तार सय्यद एल्मर सिलीन सवार हो कर आसमान पर तशरीफ़ ले गए और इस रात ने सिराज अलावलया-ए-से वो रोशनी हासिल की जिससे तमाम जहान मुनव्वर हो गया।इस में सय्यदना सुलेमान अला नबीना अलैहिस-सलाम का तख़्त और सय्यदना दाऊदअलैहिस-सलाम की महिराब है ।इस में चशमा सलवान है जिसके देखने वाले को हौज़-ए-कौसर याद आ जाता है ।ये बैत अल-क़ूदस मुस्लमानों का पहला क़िबला है ।और मुबारक घरों में से दूसरा और दो हरमैन शरीफ़ैन से तीसरा है ।वो इन तीन मस्जिदों में से एक से एक मस्जिद है , जिसके बारे में रसूल पाक ने फ़रमाया है कि "उनकी तरफ़ सफ़र किया जाये और लोग अरादतमनदी से वहां जाएं । कुछ अजीब नहीं कि अल्लाह ताला वो पाक मुक़ाम मुस्लमानों के हाथ में दे दे कहा स का ज़िक्र उसने कलाम पाक में अशर्फ़ अलानबया-ए-के साथ मुफ़स्सिल बयान फ़रमाया है :
?सुबहअन अलज़ी असराई बिअबदिह-ए-लेना मअन अलमसजिद-ए-अलहरअम-ए-अले अलमसजिद-ए-अलाक़सय>उस के फ़ज़ाइल और मनाक़िब बेशुमार हैं ।इसी से रसूल ख़ातिम अलानबया-ए- को मेराज हुई।इस की ज़मीन-ए-पाक और मुक़द्दस कहलाई।किस क़दर पैग़म्बरों ने यहां उमरें गुज़ारें ।औलिया-ए-और शुहदा और उल्मा-ओ-फुज़ला-ए-और सलिहा-ए-को तो कुछ ज़िक्र ही नहीं ।ये बरकतों की सरचश्मा और ख़ुशीयों की परवरिश गार है ।ये वो मुबारक सखरा शरीफा और क़दीम क़िबला है जिसमें ख़ातिम अलानबया-ए- तशरीफ़ लाए और आसमानी बरकतों का नुज़ूल मुतवातिर इस मुक़ाम पर हुआ।इस के पास रसूल मक़बूल ने तमाम पैग़म्बरों की इमामत की जनाब रूह अलामीन हमराह थे , जब नबी ने यहीं आला अलययन को सऊद फ़रमाया।इसी में सय्यदा मर्यम अलैहा अस्सलाम की वो महिराब है जिसके हक़ में परवरदिगार आलमीन फ़रमाता है :?कुल्लमअ दखल अलयहअ ज़िक्र-ए-यह अलमिहरअब वज्द इनधअ रिज़क़ौआ> अल्लाह के नेक बंदे इस में तमाम दिन इबादत करते और रातों को बेदार रहते हैं ।ये वही मस्जिद है जिसकी बिना सय्यदना दाऊद अलैहिस-सलाम ने डाली और सय्यदना सुलेमान अलैहिस-सलाम उस की हिफ़ाज़त की वसीयत कर गए ।इस से बढ़कर उस की बुजु़र्गी की दलील क्या हो सकती है कि परवरदिगार आलमीन ने इस की तारीफ़ को ?सुबहअन अलज़ी>से शुरू किया।सय्यदना उम्र रज़ी अल्लाह ने कमाल सई से इस को फ़तह किया था क्योंकि उस की तारीफ़ में अल्लाह तबारक-ओ-ताला ने एक बुज़ुर्ग सूरा को शुरू किया और क़ुरआन का नसफ़ भी वहीं से शुरू होता है ।पस ये मुक़ाम किया है बुज़ुर्ग और आलीशान है और ये मस्जिद कैसी आलीक़द्रऔर अकरम है , जिसका वस्फ़ बयान नहीं हो सकता।अल्लाह ताला उस के उलुव्व शान को इस तरह बयान करता फ़रमाता है :?अलज़ी बअरकनअ हौलहु> यानी ये वो मुक़ाम है जिसके इर्दगिर्द को हमने बरकत बख़शी और अपनी कमाल क़ुदरत की आयात अपने नबी क़व्वास मुक़ाम पर য৒ब दिखाएंगे ।इसी मुक़ाम के फ़ज़ाइल हमने नबीसे सुने हैं जो बज़रीया रिवायत हम तक पहुंचे हैं ।
ग़रज़ सुलतान ने एक ऐसी मोस्सर और दिलकश तक़रीर की कि सामईन ख़ुश हो गए और ख़ातमा तक़रीर पर सुलतान ने अल्लाह ताला की क़सम उठाई कि जब तक बैतुल-मुक़द्दस पर इस्लाम के झंडे नसब ना करूँ और रसूल मक़बूल के क़दम की पैरवी ना करूँ और सखरा मुबारक पर क़ाबिज़ ना हो जाऊं अपनी कोशिश के पांव को ना हटाऊं का और इस किस्म के पूरा करने तक लड़ोंगा ।
मुस्लमान और ईसाई मुर्ख़ इस अमर में मुत्तफ़िक़ हैं कि यरूशलम में इस वक़्त एक लाख से ज़्यादा मुतनफ़्फ़िस मौजूद थे जिनमें बाक़ौल एक मुस्लमान मुर्ख़ ६०हज़ार ईसाई जंग करने के लायक़ थे "शिकस्त हितेन के बाद कोई ईसाई अमीर या सरदार सिवाए बितरीक़ यरूशलम के वहां ना रहा था।बालियाँ एक ईसाई सरदार भी हितेन की शिकस्त से भाग कर सूर में जा कर पनाह गज़ीन हुआ था।वहां से (बाक़ौल मुर्ख़ आर्चर)उसने सुलतान से इजाज़त मांगी कि इस को अपनी बीवी और बच्चे यरूशलम में पहुंचा देने के लिए वहां से एक दिन के लिए जाने दिया जाये और पुख़्ता इक़रार किया कि अगर इजाज़त दे दी गई तो एक शब से ज़्यादा वहां ना ठहरेगा ।सुलतान ने अज़ राह अख़लाक़-ओ-मुरव्वत उस को इजाज़त मतलूबा दे दी, लेकिन जब यरूशलम में पहुंच गया तो लोगों ने उसे वहीं रह जाने की तरग़ीब दी और बितरीक़ हरीकली उसने भी फ़तवा दे दिया कि इस इक़रार का पूरा करना बमुक़ाबला उस को तोड़ने के बड़ा गुनाह होगा।चुनांचे वो बिदादी कर के वहां रहने को रज़ामंद हो गया और इस तरह एक ईसाई सरदार यरूशलम में मौजूद हो गया।बितरीक़ और दूसरे सरगर्म ईसाईयों ने मौजूद ईसाईयों के दरमयान जोश और सरगर्मी पैदा करने की हर एक तदबीर की।उनके दरमयान निहायत पर जोश तक़रीरें कीं ।उनकी हिम्मत और दिलेरी को बढ़ाया और शहर की हिफ़ाज़त करने पर आमादा किया।



फ़तह बैतुल-मुक़द्दस

हितेन में कामयाब-ओ-कामरान होने के बाद अल-क़ूदस की जानिब रास्ता बिलकुल वाज़िह हो चुका था, अब ये बात मुम्किन थी कि सलाह उद्दीन उस का क़सद करता और क़दरे कोशिश कर के इस को अपने क़बज़े में ले लेता।लेकिन उसने अस्करी नुक़्ता निगाह से इस को देखा और यही बात उस की आला शख़्सियत और शान अबक़रीत को नुमायां कर रही है ।उसने ये सोचा कि "अल-क़ूदस तो कई शहरों के दरमयान वाक़्य है और साहिल समुंद्र पर सलीबियों के कई मराकज़ क़ायम हो चुके हैं , जहां से वो बैरूनी दुनिया के साथ ताल्लुक़ात बड़ी आसानी से क़ायम कर सकते हैं ।ख़ुसूसन ईसाईयों के वो ममालिक जो अर्ज़ फ़लस्तीन में , , सलीबी नापाक वजूद को ला खड़ा करने में चश्मों की हैसियत रखते थे , इसी लिए उसने पहले साहिली सलीबी मराकज़ से ख़लासी पाने और दूसरे सलीबी क़िलों और पनाह गाहों पर क़बज़ा करने का पुख़्ता प्रोग्राम बनाया।इस के बाद वो अल-क़ूदस की तरफ़ पेशक़दमी कर के उसे फ़तह कर लेगा, जब कि इस "सलीबी नापाक वजूद की ज़िंदगी की शरयानों को वो पहले ही काट चुका होगा, उस के इलावा "इक्का और दूसरे साहिली सलीबी क़िलों पर क़बज़ा करना भी मिस्र और शाम के माबैन रास्ता भी बना देगा, जो उस के मलिक के दोनों बाज़ू शुमार होते थे ।
उसने अपने प्रोग्राम की तकमील के लिए अस्करी एतबार से हर तरह की तैयारी कीं , मुजाहिदीन को अपने हमराह लिया और अपने ज़हन में खींचे हुए ख़ुतूत को ज़मीन पर खींचने के लिए चल पड़ा, हितेन की कामयाबी के बाद सिर्फ़ चंद माह ही गुज़रने पाए थे कि अल्लाह ताला ने उसे मुंदरजा ज़ैल शहरों और क़िलों पर फ़त्हा नसीब फ़र्मा दी।
इक्का, केसार ये, हैफा, सफ़ोरीह, माल्या, शक़ीफ़, अलग़ोला, अलतोर, सबतीह, नॉबलस, मजद लिया ना, याफ़ा, तबनीन, सैदा, जबील, बेरूत हरफ़नद, अस्क़लान, अलरमला, अलदारोम(वीरालबलह)ग़ज़ा, यबनी, बैत लहम, बैत जिब्रील और उनके इलावा हर वो चीज़ जवान सलीबी बरी फ़ोर्सिज़ के पास थी।
जैसा कि हम पहले बता चुके हैं कि ये सब अज़ीम कामयाबियां और बड़ी बड़ी फ़ुतूहात मार्का हितेन के बाद ५८३हिज्री में सिर्फ चंद महीनों के दौरान ही पूरी हो गई थीं ।इस तरह "बैतुल-मुक़द्दस को फ़तहकरने के लिए फ़िज़ा मुकम्मल तौर पर साज़गार थी, काम को मज़बूत बुनियादों पर उस्तिवार करने के लिए सुलतान ने मिस्र से इस्लामी बहरी बेड़े भी मंगवा लिए , जो हुसाम उद्दीन ललठ इलहा जब (चमकदार अबरू वाला)की ज़ेर क़ियादत पहुंचे ।जो अपनी जुर्रत वबसालत और अज़ीम, ख़तरनाककामों में बुला ख़ौफ़-ओ-ख़तर कूद जाने में मशहूर-ए-ज़माना था, और साइब अलमशोरा भी था।उसने "बहर मुतवस्सित में चक्कर लगाने शुरू कर दिए , ख़ुसूसन इस बात का ख़्याल रखते हुए कि कहीं (यूरोप के )इफ़रंगी साहिल फ़लस्तीन तक पहुंचने में कामयाब ना होने पाइं ।
५८३हिज्री /१५रजब एल्मर जब को बरोज़ इतवार अल-क़ूदस के क़रीब आन इतरा, अब उसने बैतुल-मुक़द्दस में महसूर ईसाईयों से कहा कि बग़ैर ख़ूँरेज़ी और किशत-ओ-ख़ून कि जिस कि वो ऐसे मुक़द्दसमुक़ाम में पसंद नहीं करता, इताअत क़बूल कर लें । लेकिन जब उन्होंने उस के जवाब में मतकबराना इनकार पेश किया तो फिर सुलतान हमला कर के और नक़ब लगा कर उस को फ़तह करने की तदाबीर करने लगा।इस मक़सद के लिए पाँच दिन सिर्फ इसी काम में गुज़र गए ।वो बज़ात-ए-ख़ुद शहर की दीवारों के इर्दगिर्द चक्कर लगाता रहा ताकि उस का कोई कमज़ोर पहलू तलाश कर के वहां से हमला-आवर हो सके ।बिलआख़िर फ़ैसला ये हुआ कि शुमाली जिहत से हमला कर ही दे ।चुनांचे २० रजब को उसने अपने लश्कर को इस जानिब मुंतक़िल कर दिया, उसी रात मनजनीक़ीं नसब करवानी शुरू कर दें , सुबह होने से क़बल मनजनीक़ीं लग चुकी थीं बल्कि अपना काम करने के लिए भी मुकम्मल तौर पर तैयार थीं , लू !अब उन्होंने अपना काम शुरू कर दिया।
दूसरी तरफ़ फ़िरंगियों ने फ़सील के ऊपर अपनी मजानीक़ को नसब कर लिया, दोनों तरफ़ से पथराओ शुरू हो गया था।फ़रीक़ैन के माबैन सख़्त तरीन लड़ाई हो रही थी।इमाम इबन अलासीर के बाक़ौल।एक देखने वाले ने देखा कि हर एक फ़रीक़ इस लड़ाई को "दीन समझ कर लड़ रहा है , और ये बात भी ऐसे ही, कि देन ही वो चीज़ है जो इन्सान के अंदर को मुतहर्रिक करती है , मौत को उसे महबूब बना देती है , अपना सब कुछ इस पर लिटा देना उस के लिए आसान तरीन बना देती है , लोगों को इस बात की ज़र्रा बराबर भी ज़रूरत ना थी कि उन्हें लड़ने , मरने , मौत के दरिया में कूदने पर उभारा जाये , बल्कि शायद उन्हें ज़बरदस्ती भी रोका जाये तो रोके ना जा सकें
24:यक-बारगी ज़ोरदार हमला
फिर उन्ही जिहादी-ओ-कुत्ता ली अय्याम में से , एक अमीर इज़ उद्दीन ईसा बिन मालिक जो मुस्लमान क़ाइदीन और मुत्तक़ीन में से एक था, वो शहीद हो गया, तो उस के जाम-ए-शहादत नोश करते ही मुस्लमानों के जोश और वलवले में एक नया रंग पैदा हो गया, तो उन्होंने यकबारगी ऐसा हमला किया कि फ़िरंगियों के क़दम उखड़ गए , कुछ मुस्लमान ख़ंदक़ उबूर कर के फ़ैसल तक पहुंचने में कामयाब हो गए ।दीवार तोड़ने वाले निक़ाबों ने शहर-पनाह को तोड़ना शुरू कर दिया, इस दौरान दुश्मन को दूर रखने के लिए मजानीक़ बिलातवक़्कुफ़ पथराओ कर रही थीं और तीर-अंदाज़ मुसलसल तीरों की मूसलाधार बारिश बरसा रहे थे , ताकि ये निक़ाब (दीवार तोड़ने वाले )अपने मक़ासिद को हासिल करने में कामयाब हो सकें (यानी ये उनके लिए कवर फ़ायर था)
25:जान बख़शी की दरख़ास्तें
तो जब इन फ़िरंगियों के दिफ़ा करने वालों ने , मुस्लमानों के हमले की शिद्दत, उनके इरादों की सदाक़त, और अल-क़ूदस रसूल मुअज़्ज़म की सब मेराज की आरिज़ी क़ियामगाह को छुड़वाने की ख़ातिर, मौत को सीने लगाने के जज़बात को देखा, तो उन्हें अपनी हलाकत-ओ-बर्बादी का यक़ीन हो गया और सिवाए अमान तलब करने के कोई चारा ना देखा तो वो मुज़ाकरात करने के लिए माइल हुए ।दुनिया में काफ़िर क़ौमों से मुज़ाकरात का तरीक़ा भी यही है कि जिहाद जारी रखा जाये और अल्लाह के दुश्मनों का घेरा तंग किया जाये कि वो मुज़ाकरात की अपील करें ये ना हो कि मुस्लमान कमज़ोरी दिखाते हुए ख़ुद मुज़ाकरात की दावत दें , और वो भी मग़्लूबाना जमहूरी अंदाज़ में कि जिस तरह आजकल हो रहा है , पहले मुस्लमानों पर ज़ुलम किया जाता है , उनको ज़लील किया जाता है और फिर मुज़ाकरात की साज़िश कर के उनको नाम निहाद मुआहिदों के जाल में फाँस कर बेबस कर दिया जाता है ।
इसी तरह मग़्लूब ईसाईयों के मोअज़्ज़िज़ीन जमा हो कर सुलतान के पास अमान तलब करने की ग़रज़ से आए और सलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह से इस शर्त पर अमान के तलबगार हुए कि "बैतुल-मुक़द्दस उस के हवाले किए देते हैं तो आख़िर सुलतान ने उनकी तलब को मान लिया और "बैतुल-मुक़द्दस "लेकर उन्हें "अमान नामा "देने पर राज़ी हो गया।
26:माफियां जान बख़शीयाँ और जज़बा की थैलियां

सुलतान ने इस शर्त पर अमान दे दी कि ईसाई बाशिंदों में से तमाम मर्द फी कस दस दीनार और औरतें फी कस ५ दीनार और बच्चे फी कस २ दीनार जुज़्य दे सकें , अपना ज़रूरी अस्बाब और जानें लेकर चले जाएं और जो इस फ़िद्या यानी ज़र तलाफ़ी को अदा ना कर सकें वो बतौर ग़ुलामों के मुस्लमानों के क़बज़े में रहेंगे ।ईसाई इस शर्त पर रज़ामंद हो गए। और बालियाँ बिन बारिज़ अन्न और बितरीक़ आज़मऔर दावीह (टमपलरस)और इस्तिबार ये(हासपटलरस)के रईस इस रक़म के अदा करने के ज़ामिन हुए ।बालियाँ ने ३०हज़ार दीनार मुफ़लिस लोगों के वास्ते अदा किए और इस जुज़्य के अदा करने वाले तमाम लोग अमन के साथ शहर से निकल गए ।एक बहुत बड़ी तादाद लोगों की बग़ैर जुज़्य अदा करने के हर एक मुम्किन ज़रीया से यानी दीवारों से लटक कर और दूसरे तरीक़ों से निकल गई और बाक़ीयों की निसबत भी जो जुज़्य अदा नहीं कर सकते थे सुलतान ने ऐसी फ़य्याज़ी रखी जिसकी नज़ीर दुनिया में बहुत कम मिलेगी।मलिक आदिल की दरख़ास्त पर और अपने बेटों और अज़ीज़ों की दरख़ास्तों पर बेशुमार लोग जो जुज़्य अदा नहीं कर सकते थे , आज़ाद कर दिए ।फिर बालियाँ और बितरीक़ आज़मकी दरख़ास्त पर भी एक बड़ी जमात को आज़ादी दी और सब के बाद एक बड़ी जमात अपने नाम पर छोड़ दी।ईसाई मलिका कोमा अपनी तमाम दौलत और बेशुमार माल वासबाब और ज़र-ओ-जवाहर के अपने मुलाज़िमों और मुताल्लिक़ीन समेत अपने खाविंदों के पास जाने की इजाज़त दी, और किसी शख़्ससे ख़ाह वो कितनी ही दौलत और माल लेकर निकला सिवाए जुज़्य की मुईन रक़म के कुछ ज़ाइद तलब या वसूल करने की किसी मुस्लमान ने परवाह नहीं की।
जब ईसाईयों के घोड़े मुस्लमानों के ख़ून में घुटनों तक चलते रहे सुलतान का ये सुलूक जो उसने ईसाईयों के साथ किया इस्लामी फ़य्याज़ी और तहम्मुल और एहसान और सुलूक की एक ऐसी मिसाल है जिस पर ख़ूँख़ार और दरिन्दा ख़सलत ईसाई दुनिया को इस्लाम और मुस्लमानों पर ख़ूँरेज़ी के इल्ज़ाम लगाने और इस्लाम को ख़ूँरेज़ी का मुतरादिफ़ क़रार देने के बजाय उस के रूबरू शर्मिंदा होना चाहीए । यही शाम की सरज़मीन और वो एक सदी से ज़्यादा अरसा के वाक़ियात जो दोनों क़ौमों की दुनिया ने देखे , इस अमर का फ़ैसला करने के लिए काफ़ी हैं ।ईसाईयों ने फ़तह बैतुल-मुक़द्दस के वक़्त जिस ख़ूँरेज़ी को रूह रखा और जो ज़ुल्मोसितम बेगुनाह मुस्लमानों पर किया और जो बे इंतिहा-ए-और बे-हिसाब ख़ून मर्द, औरतों और बच्चों का गिराया, वो तारीख़ के सफ़्हों से पोंछ नहीं डाला गया।गॉड फ़्री और रेमंड वग़ैरा फ़ातहीन बैतुल-मुक़द्दस ने जो ख़त उस वक़्त पोप को फ़तह बैतुल-मुक़द्दस की निसबत लिखा था इस में फ़तह की ख़बर लिखने के बाद लिखा कि :
"अगर तुम मालूम करना चाहते हो कि हमने इन दुश्मनों के साथ जिनको हमने शहर में पाया , क्या-किया?तो तुमको बताया जाता है कि रुवाक़ सलीहान और गिरजा में हमारे घोड़े तक मुस्लमानों के नापाक ख़ून चलते रहे (तारीख़ मचाड:जलद सोम ज़मीमा स ३६२)
27:सलीबियों को बैतुल-मुक़द्दस से निकालने के जिहादी मुनाज़िर
अमान नामा पर दस्तख़त हो जाने के बाद तमाम जंग करने वाले लोगों को जो यरूशलम में थे सूर या तरह बुल्स चले जाने की इजाज़त मिल गई।फ़ातिह ने बाशिंदों को उनकी जानें बख़्शें और उनको चंद दीनारों पर मुश्तमिल हक़ीर सी रक़म के बदले अपनी आज़ादी ख़रीदने की इजाज़त दे दी।तमाम ईसाईयों को बासतसनाए यूनानियों और शामी ईसाईयों के चार दिन तक यरूशलम से चले जाने का हुक्म दिया गया।(शामी और यूनानी ईसाईयों के साथ क़तई रियाइत की गई और उनको हर एक आज़ादी दी गई।ये सुलतान का एक और एहसान था)ज़र मख़लिसी (जुज़्य)की शरह दस दीनार हर एक मर्द के वास्ते , पाँच औरत और दो दीनार बच्चे के लिए मुक़र्रर किए गए और जो अपनी आज़ादी ख़रीदना सके ग़ुलाम रहने के पाबंद थे ।इन शराइत पर ईसाईयों ने पहले बहुत ख़ुशी मनाई लेकिन जब वो तय-शुदा दिन क़रीब आ पहुंचा जिस पर उन्होंने यरूशलम से रुख़स्त होना था, बैतुल-मुक़द्दस को छोड़ने के सख़्त रंज और ग़म के सिवा उनको कुछ नहीं सूझता था।उन्होंने मसीह की क़ब्र को अपने आँसूओं से तर कर दिया और मुतास्सिफ़ थे कि वो क्यों उस की हिफ़ाज़त करने में ना मर गए ।उन्होंने का लोरी और गिरजाओं को जिनको वो फिर कभी नहीं देखने वाले थे , रोते और चलाते हुए जा कर देखा।बाज़ुओं में एक दूसरे को गले लगाया और अपने मोहलिक इख़तिलाफ़ात पर आँसू बहाए और ग़मकिया।
आख़िर वो मोहलिक दिन आ गया जब ईसाईयों को यरूशलम छोड़ना था।दाऊद के दरवाज़े के सिवाए जिसमें लोगों को बाहर गुज़रना था सब दरवाज़े बंद कर दीए गए ।सलाह उद्दीन एक तख़्त पर बैठा हुआ ईसाईयों को बाहर जाते देख रहा था।सबसे पहले बितरीक़ बह मय्यत जमात पा दरम्यान आया, जिन्हों ने मुक़द्दस ज़रूफ़ (या तस्वीरें वग़ैरा )मसीह की मुक़द्दस क़ब्र के गिरजा के जे़वरात या अस्बाब ज़ेबाइशऔर वो खज़ाने उठाए हुए थे जिनकी निसबत एक अरब मुर्ख़ लिखता है कि उनकी क़ीमत-ओ-मालियत इतनी ज़्यादा थी अल्लाह ताला ही उनकी क़ीमत को जानता था उनके बाद यरूशलम की मलिकानवाबों (बैरनस)और सवारों (नाईटस)के हमराह आई।मलिका के हमराह एक बहुत बड़ी तादाद औरतों की थी जो गोदियों में अपने बच्चों को उठाए हुए थीं और बहुत दर्दनाक चीख़ें मार रही थीं ।उनमें से बहुत सी सलाह उद्दीन के तख़्त के क़रीब गईं और इस से यूं इल्तिजा की :
"ए सुलतान तुम अपने पांव में इन जंग आवरों की औरतें , लड़कीयां और बच्चे देखते हो जिनको तुमने क़ैद में रोक लिया है हम हमेशा के लिए अपने मलिक को जिसको उन्होंने बहादुरी से बचाया है छोड़ती हैं वो हमारी ज़िंदगीयों का सहारा थे उनको खो देने में हम अपनी आख़िरी उम्मीदें खो चुकी हैं (यानी अगर हमारे मर्द आपकी क़ैद में चले गए और हमसे बिछड़ गए तो हमारी ज़िंदगी की आख़िरी उम्मीद और सहारा भी ख़त्म हो जाएगा(अगर तुम उनको हमें दे दो (यानी आज़ाद कर दो )तो।हमारी जिलावतनी की मुसीबतें कम हो जाएँगी।और हम ज़मीन पर बे-यार-ओ-मददगार ना होंगे ।
सुलतान उनकी इस दरख़ास्त से मुतास्सिर हुआ, और इस क़द्र-ए-दिल शिकस्ता ख़ानदानों की मुसीबतों को दूर कर देने का वाअदा किया।उसने बच्चे उनकी माओं के पास पहुंचा दीए और ख़ावंद आज़ाद कर के उनकी बीवीयों के पास भेज दीए जो कि उनकी क़ैदीयों में गिरफ़्तार थे , जिनकी ज़र मख़लिसी (फ़िद्या या जुज़्य)अदा नहीं की गई थी।बहुत से ईसाईयों ने अपने निहायत क़ीमती माल वासबाब छोड़ दिए थे और बाअज़ के कंधों पर ज़ईफ़-उल-उमर वालदैन थे और दूसरों ने कमज़ोर या बीमार दोस्तों को उठा लिया था।इस नज़ारा को देखकर सुलतान का दिल भर आया लिहाज़ा उसने अपने दुश्मनों के औसाफ़ की तारीफ़ कर के उनको क़ीमती तहाइफ़ और इनामात दिए ।उसने तमाम मुसीबतज़दा पर रहम किया और हासपटलर (फ़िर्क़ा इस्तिबार ये के लोगों )को इजाज़त दी कि शहर में रह कर ईसाई हाजियों की ख़बर-गेरी और ख़िदमत करें , और ऐसे लोगों की मदद करें जो सख़्त बीमारी के बाइसयरूशलम से जा नहीं सकते हैं ।
28:क़ैदीयों की रिहाई और रहमदलाना सुलूक
जब मुस्लमानों ने शहर का मुहासिरा शुरू किया उस वक़्त बैतुल-मुक़द्दस में एक लाख से ज़्यादा ईसाई थे ।उनके बहुत बड़े हिस्से में ख़ुद अपनी आज़ादी ख़रीदने की क़ाबिलीयत मौजूद थी और बलीटो जिसके पास शहर की हिफ़ाज़त के वास्ते ख़ज़ाना मौजूद था, उस के बाशिंदों के एक हिस्सा की आज़ादीहासिल करने में सिर्फ किया।मलिक आदिल सुलतान के भाई ने २ हज़ार क़ैदीयों को फ़िद्या (ज़र मख़लिसी या जुज़्य ख़ुद अपने पास से (अदा किया।सलाह उद्दीन ने इस की मिसाल की पैरवी की और ग़रीबों और यतीमों की एक बहुत बड़ी तादाद को ज़ंजीरों से आज़ाद कर दिया।वहां क़ैद में सिर्फ चौदह हज़ार के क़रीब सलीब के पुजारी रह गए जिसमें चार या पाँच हज़ार कमसिन बच्चे थे जो अपनी मसाइबसे बे-ख़बर थे लेकिन जिनकी क़िस्मत पर ईसाई इस अमर के यक़ीन से और भी ज़्यादा नालां थे कि ये जंग के बेगुनाह मज़लूम (मआज़-अल्लाह)मुहम्मद की बुतपरस्ती में परवरिश पाएँगे ।
इन हालात के क़लम-बंद करने के बाद फ़्रांसीसी मुर्ख़ लिखता है कि:
"बहुत से जदीद मुर्ख़ों या मुसन्निफ़ों ने सलाह उद्दीन के इस फ़याज़ाना सुलूक को इन नुसरत अंगेज़वाक़ियात के साथ जो पहले क्रूसेड रों से यरूशलम में दाख़िल होने के वक़्त पैदा किए गए थे , मुक़ाबलाकिया है , लेकिन हमको नहीं भूलना चाहीए कि ईसाईयों ने शहर को हवाला कर देने की दरख़ास्त की थी और मुस्लमान मजनूनाना हट के साथ अरसा-ए-दराज़ तक महसूर रहे थे और गॉड फ़्री के हम-राहियों ने जो एक नामालूम सरज़मीन में मुआनिद क़ौमों के दरमयान थे , बेशुमार ख़तरात बर्दाश्त कर के और तमाम किस्म की मुसीबतें उठा कर शहर को मुक़ाबला से फ़तह किया था।लेकिन हमारी इलतिमास ये है कि इस बात के कहने से हम ईसाईयों को हक़बजानिब नहीं बयान करना चाहेंगे और ना उन तारीफों को ज़ईफ़ करना चाहते हैं जो सलाह उद्दीन की तारीख़ के ज़िम्मा हैं और जो उसने उन लोगों से भी हासिल की हैं जिनको उसने फ़तह किया था।(तारीख़ मचाड जलद अव्वल स:४३०ता ४३२)
बावजूद इस तंगदिली के जो फ़्रांसीसी मुर्ख़ की बजा तारीफ़ में मज़ाइक़ा करने से ज़ाहिर करता है आख़िर-ए-कार वो उनके तस्लीम करने में मजबूर हो जाता है ।एक जदीद ज़माना का अंग्रेज़ी मुर्ख़ अपनी मुख़्तसर तारीख़ में इस से ज़्यादा इन्साफ़ से सुलतान के इन एहसानात को तस्लीम करता है ।वो लिखता है कि :
"ग़रीब ईसाईयों की आज़ादी ख़रीदने की हर एक कोशिश करने और हर एक बाज़ार में टैक्स लगाने और बादशाह इंग्लिस्तान का ख़ज़ाना जो अस्पताल में इसी मुश्तर्क फ़ंड में दाख़िल कर देने के बाद भी एक बड़ी तादाद उन लोगों की रह गई जो कोई फ़िद्या )जुज़्य )अदा नहीं करसकता, जिनकी क़िस्मत में इस सूरत में दाइमी गु़लामी या मौत थी।उनकी दर्दनाक हालत पर रहम कर के सलाह उद्दीन का बहादुर और फ़य्याज़ दिल भाई आदिल सुलतान के पास गया और शहर के फ़तह करने में अपनी ख़िदमात याद दिला कर अर्ज़ की कि "इस के हिस्सा ग़नीमत में एक हज़ार ग़ुलाम उस को दे दिया जाये । सलाह उद्दीन ने दरयाफ़त क्या : वो किस ग़रज़ के लिए उन्हें तलब करता है ? आदिल ने जवाब दिया: जो सुलूक वो चाहेगा उनके साथ करेगा। इस के बाद बितरीक़ ने जा कर ऐसी ही दरख़ास्त की और सात सौ आदमी पाए और इस के बाद बालियाँ को ५०० और मिले ।तब सलाह उद्दीन ने कहा: मेरे भाई ने अपनी ख़ैरात की है ।बितरीक़ और बालियाँ ने अपनी अपनी की है ।अब में अपनी भी करूँगा, और इस पर हुक्म दिया कि तमाम मुअम्मर आदमी जो शहर में थे आज़ाद कर दीए जाएं ।, , ये वो ख़ैरात थी जो सलाह उद्दीन ने बे तादाद ग़रीब आदमीयों को छोड़ देने से की। (तारीख़ आर्चर:स २८०)
मुर्ख़ लेन पोल लिखता है :
"हम जब सुलतान के इन एहसानात पर ग़ौर करते हैं तो वो वहशयाना हरकतें याद आती हैं जो सलीबियों ने फ़तह बैतुल-मुक़द्दस के मौक़ा पर की थीं ।जब गॉड फिरे और तनकीरड बैतुल-मुक़द्दस के बाज़ार से इस हाल में गुज़र रहे थे कि वो मुस्लमानों की लाशों से भरा हुआ था और जाँ-ब-लब ज़ख़मीवहां तड़प रहे थे , जब सलीबी बेगुनाह और लाचार मुस्लमानों को सख़्त अज़ीयतें देकर क़तल कर रहे थे , ज़िंदा आदमीयों को जिला रहे थे और अल-क़ूदस की की छत पर पनाह लेने वाले मुस्लमानों को तीरों से छलनी कर के नीचे गिरा रहे थे ।बेरहम ईसाईयों की ख़ुशक़िसमती थी कि सुलतान सलाह उद्दीन के हाथों उन पर रहम-ओ-करम हो रहा था।

29:सुलतान सलाह उद्दीन बैतुल-मुक़द्दस में दाख़िल होता है
अब रहा उनका मुआमला जो "अहल क़ुदस में से इस के बरख़िलाफ़ मार्का आरा रहे तक़रीबन सत्तर हज़ार की तादाद में मस्जिद उकसा में दाख़िल हो गए ।नजाबत, समाजत, मेहरबानी और शराफ़त में जिनकी यादें ज़रब अलामसाल बन चुकी हैं इस पर कोई ताज्जुब की बात नहीं क्योंकि ये तो सलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह जैसे मुस्लिम जरनैल की सिफ़ात में सिर्फ एक "सिफ़त चशमा नुमा की हैसियत रखती है

30:ईसाईयों के निशानात मिटाने का हुक्म होता है
सलाह उद्दीन ने बैतुल-मुक़द्दस की फ़तह के बाद सलीबियों के निशानात को ख़त्म करना शुरू कर दिया , और इस में इस्लामी तौर अत्वार वापिस लाने शुरू किए ।
इमाम इबन अलासीर के बाक़ौल : यहां इस्लाम यूं पलट आया जैसे मौसम-ए-बिहार में किसी सूखी शाख़ में तर-ओ-ताज़गी पलट आती है और ये , , निशान बुलंद यानी बैतुल-मुक़द्दस की फ़तहसय्यदना उम्र बिन अलख़ताब रज़ी अल्लाह अन्ना के बाद सिवाए सलाह उद्दीन अय्यूबी के किसी का मुक़द्दर ना बनी।और उनकी अज़मत-ओ-रिफ़अत और सर-बुलंदी के लिए यही कारनामा ही काफ़ी है मस्जिद उकसा की हालत ईसाईयों ने ऐसी बिगाड़ दी थी कि बहुत कुछ तबदीली और दुरुस्ती के बग़ैरइस में नमाज़ नहीं पढ़ी जा सकती थी।सबसे पहले सुलतान ने इस की दुरुस्ती का हुक्म दिया।

31:महिराब की रौनक़ें वापिस लोटती हैं
फ़िर्क़ा दावीह (टमपलरस)के ईसाईयों ने मस्जिद के क़दीम महिराब को बिलकुल छिपा दिया था। इस के मग़रिब की तरफ़ एक जदीद इमारत गरजा बना कर महिराब को इस के अंदर दाख़िल कर दिया था और महिराब दीवारों में ग़ायब हो गई थी महिराब के नसफ़ हिस्सा पर दीवार बना कर उन बदबख़्तों ने बैत उल-खुला बना दिया था, और नसफ़ को अलैहदा कर के वहां ग़ल्ला भरने की जगह बनाई थी।सुलतान के हुक्म से ये जदीद दीवारें और मग़रिबी तरफ़ का गिरजा वग़ैरा गिरा दीए गए और महिराब की असली सूरत निकाल कर जहां उस की मुरम्मत और दुरुस्ती की ज़रूरत थी कर दी गई।
32:सदाए अज़ान की गूंज और जमाৃ उल-मुबारक का रूह-परवर नज़ारा 
मस्जिद को इस की असली हालत में ला कर उस को अर्क़ गुलाब से जो दमिशक़ से लाया गया था, धोया गया और साफ़ कर के नमाज़ पढ़ने के लिए पाक और आरास्ता की गई।मिंबर रखा गया और महिराब के ऊपर क़ंदीलें लटकाई गईं ।क़ुरआन शरीफ़ की तिलावत शुरू की गई और वहीं नमाज़ पढ़ी जाने लगीं और नाक़ूस की सदा की बजाय अल्लाह वाहिद की अजानें कही जाने लगीं ।४ शाबान को दूसरे जुमा का दिन जो नमाज़ अदा करने के वास्ते पहला जुमा था, एक अजीब-ओ-ग़रीब शान-ओ-शौकत का दिन था।ख़तीबों ने ख़ुत्बे तैयार किए थे और हर एक की ये ख़ाहिश थी कि इस को ख़ुतबा पढ़ने की इजाज़त दी जाये ।बेशुमार लोग हर एक दर्जा और रुत्बा के और हर एक दैर-ओ-मलिक के उल्मा-ओ-फुज़ला-ए-जो सुलतान के साथ रहते थे और हर एक इलम-ओ-हुनर के नामवर आदमी बैतुल-मुक़द्दस में पहली नमाज़-ए-जुमा अदा करने के लिए जमा हुए ।एक ग़ैरमामूली जोश सब के चेहरों से अयाँ था और दिलों पर रिक़्क़त तारी थी।अज़ान कहे जाने के बाद सुलतान ने क़ाज़ी मुही उद्दीन अबी उलमा ली मुहम्मद बिन ज़की उद्दीन क़ुरैशी की तरफ़ मिंबर पर चढ़ने के लिए इशारा किया।ख़तीब ने मिंबर पर चढ़ कर इस फ़साहत और बलाग़त से ख़ुतबा पढ़ना शुरू किया कि लोग नक़्श-ए-दीवार की साकितऔर ख़ामोश हो गए , सामईन के दिल दहल गए और उनकी आँखों में आँसू डुबडुबा आए ।बैतुल-मुक़द्दस की तक़दीस और मस्जिद उकसा की बिना से शुरू कर के इस के फ़तह के हालात तक वाक़ियात को कमाल ख़ूबसूरती और इख़तिसार के साथ बयान किया और अल्लाह क्रीम की मिन्नत और एहसान बयान कर के बादशाह बग़दाद और सुलतान के दुआ की और ?इन इल्लल्लाह यामुरुकुम बिअलअदल-ए-वालइहसअन-ए->पर ख़त्म किया।
फिर मुस्लमानों ने शाबान की चार तारीख़ को आने वाला जुमा सलाह उद्दीन की मय्यत में बैतुल-मुक़द्दस ही में अदा किया।इबन अलज़की क़ाज़ी दमिशक़ ने ये पहला ख़ुतबा इस मस्जिद उकसा में इरशाद फ़रमाया, बाद उस के कि माज़ी के उठासी बरसों से ख़ुतबात और जमात इस मस्जिद से ग़ायब हो चुके थे ।इन सलीबी ग़ासिबों ने ज़लील वरसवा हो कर उसे छोड़ा और इंशाॱएॱ अल्लाह हर ज़ालिम ग़ासिबआसिम का यही अंजाम होगा जो मुस्लमानों को दुख देकर अपनी रातें गुज़ारता है ।जब ये मुस्लमान सही सिम्त पै गामज़न होंगे , और अल्लाह के हुज़ूर अपने जिहाद , अपने अज़ाइम और अपनी नीयतों में सच्चे हो जाऐंगे ।
33:बैतुल-मुक़द्दस की फ़तह के बाद शुक्राने के आँसू और हिचकियाँ
ख़ुतबा ख़त्म करने के बाद मिंबर से उतर कर इमामत की और अदाए नमाज़ के बाद सुलतान के ईमा से ज़ैन इला बदीन अबुलहसन अली बिन नज्जा वाज़ करने के लिए खड़ा हुआ और निहायत ख़ुश-अल्हानी और तलाक़त लिसानी से ख़ौफ़ और रजा-ए-, सआदत वसक़ावत, हलाकत-ओ-नजात के मज़ामीन पर ऐसा उम्दा और मोस्सर वाज़ कहा कि सामईन ढाड़ीं मार मार कर रोय और सब पर अजीब सी हालत तारी हो गई और बादअज़ां सब सुलतान की दवाम नुसरत के वास्ते दुआएं मांगें ।
34:सुलतान नूर उद्दीन का बनाया मिम्बर-ए-मेहराब बैतुल-मुक़द्दस की ज़ीनत बनता है
इस रोज़ जिस मिंबर पर ख़ुतबा पढ़ा गया था वो एक मामूली मिंबर था।सुलतान नूर उद्दीन का मिंबर उस के बाद वहां ला कर रखा गया।सुलतान नूर उद्दीन महमूद बिन ज़ंगी ने इस वाक़िया से तीस बरस बेशतरबैतुल-मुक़द्दस की इस अज़ीमुश्शान मस्जिद में रखने और बाद फ़तह इस पर ख़ुतबा पढ़े जाने के लिए एक आलीशान मिंबर जिसको निहायत सनअत और कारीगरी से बड़े बड़े सुनाऊं (कारीगरों )की अरसा-ए-दराज़ की मेहनत और सिर्फ ज़र कसीर के बाद बनवाया था और इस को अपने ख़ज़ाना में महफ़ूज़रखा था (कि जब मैं बैतुल-मुक़द्दस को फ़तह करूँगा तो उसे उस के महिराब की ज़ीनत बना कर अपना दिल ठंडा करूँगा)मगर सुलतान रहिमा अल्लाह की ये आरज़ू फ़तह बैतुल-मुक़द्दस की पूरी ना हुई और मिंबर इसी तरह पड़ा रह गया।सुलतान सलाह उद्दीन ने इस को मंगवा भेजा और मस्जिद उकसा के महिराब में रखकर बुज़ुर्ग नूर उद्दीन की इस तमन्ना को पूरा किया जो वो हसरत की तरह अपने दिल में लेकर दुनिया-ए-फ़ानी से चल बसा था।बैतुल-मुक़द्दस की इमारात और अकमना मतबरका और दूसरे कवाइफ़ में तबदीलीयां और दुरुस्तीयाँ की गईं ।
35:सलीबियों की दिलख़राश जसारतें
इस्लामी शआर को ख़त्म कर के सलीबी तहज़ीब और रंग को ग़ालिब करने की जसारतों की निक़ाबकुशाई करते हुए इमादा लिखता है कि:सखरा मुक़द्दसा पर फ़िरंगियों ने एक गरजा तामीर कर लिया था, जो शक्ल-ओ-सूरत उस की मुस्लमानों के वक़्त में थी उस को बदल डाला था और नई इमारतों में इस को बिलकुल छिपा दिया था।इस के ऊपर बड़ी बड़ी तस्वीरें लटका दी थीं और सखरा को खोद कर इस में भी ख़नाज़ीर वग़ैरा की तस्वीरें बनाई थीं ।क़ुर्बान गाह को बिलकुल बर्बाद कर डाला था।इस में ग़लत इश्याय भर दी थीं ।वहां भी तस्वीरें लगाई गई थीं और पादरीयों के रहने के मकान और इंजीलों का कुतुबख़ाना बना हुआ था।(इन सलीबी जसारतों का तदारुक कर के )इन सबको सुलतान ने उनकी असली शक्ल में तबदील (बहाल)कर दिया।
36:मुक़ाम कदम-ए-मसीह
एक जगह पर जिसको मुक़ाम क़दम मसीह कहते हैं , एक छोटा सा क़ुब्बा तामीर कर के इस पर सोना चढ़ाया हुआ था।सलीबियों ने इस के गर्द सतून खड़े कर के उन पर एक बुलंद गरजा तामीर किया था, जिसके अंदर वो क़ुब्बा छिप गया था और कोई उस को देख नहीं सकता था सुलतान ने इस हिजाब को उठवा क्रास पर एक लोहे के तारों का पिंजरा बनवा दिया।इस के इर्दगिर्द क़ंदीलें लगाऐं जिनसे वो मुक़ाम रात को रोशनी से जगमगाता जाता था।वहां हिफ़ाज़त के वास्ते पहरा मुक़र्रर था।
37:बुत तोड़े जाते हैं
संगमरमर के कसीर-उल-तादाद बुत जो उस के अंदर से निकले थे तुड़वा कर फेंक दीए गए ।मुस्लमानों को इस अमर के देखने से बहुत रंज हुआ कि ईसाई सखरा शरीफ़ से टुकड़े काट कर क़ुस्तुनतुनिया को ले गए थे , जिनको वो वहां सोने के बराबर फ़रोख़त करते थे और इस के बुत बनवाते थे ।सुलतान ने सखरा की हिफ़ाज़त का इंतिज़ाम कर के इस पर इमाम मुक़र्रर कर दिया और बहुत सी अराज़ी और बाग़ात और मकानात बतौर वक़्फ़ के इस के लिए जागीर मुक़र्रर कर दीए और क़लमी क़ुरआन शरीफ़मोटे हुरूफ़ में लिखे हुए लोगों के पढ़ने के लिए वहां रखवा दीए ।
38:मसाजिद वमदारस का क़ियाम अमल में आता है
महिराब दाऊद अलैहिस-सलाम मस्जिद उकसा से बाहर एक क़िला में शहर के दरवाज़ा के पास एक निहायत रफ़ी उल-शान इमारत थी और इस क़िला में वाली बैतुल-मुक़द्दस रहा करता था।सुलतान ने इस की भी मुरम्मत कराई।दीवारें साफ़ और सफ़ैद कराईं और फाटक और दरवाज़ों को दरुस्त करवा दिया और इमाम मुअज़्ज़न वहां रहने को मुक़र्रर किए और मसाजिद की तामीर कराई और जूजू ज़रूरीयातलोगों की थीं उनको पूरा कर दिया।इस क़िला में जो सय्यदना दाऊद अलैहिस-सलाम और सय्यदना सुलेमान अलैहिस-सलाम के घर थे और ज़यारत गाह थे , दरुस्त कर दीए ।फ़क़हाए शाफ़ईह के लिए एक मुदर्रिसा क़ायम किया और सलहाए किराम के लिए एक मेहमान ख़ाना बनाया।दूसरे उलूम की तालीम वतदरीस के लिए बहुत से और मदारिस क़ायम किए और मुअल्लिमों और तालिब-ए-इल्मों के लिए उनकी तमाम ज़रूरीयात का इंतिज़ाम कर दिया।ग़रज़ बैतुल-मुक़द्दस की बुजु़र्गी एक फ़य्याज़ और आली हिम्मत मुस्लमान बादशाह से जिस एहतिमाम की ख़ाहिश कर सकती थी इस से ज़्यादा एहतिमामसुलतान ने किया और बैतुल-मुक़द्दस के साथ सुलतान की ये फ़याज़ाना और इस्लामी दिलचस्पी सिर्फ उस की ज़ात तक मख़सूस-ओ-महिदूद नहीं रही।इस के बाद उस के भाई आदिल और इस के बेटों और जांनशीनों ने बैतुल-मुक़द्दस की अज़मत-ओ-बुजु़र्गी और शान-ओ-शौकत के बढ़ाने के वास्ते इस से भी बड़े बड़े काम किए और अपने इस ना मोराना ताल्लुक़ को इस मुक़द्दस मुक़ाम के साथ आख़िर तक निबाह दिया।
इस मुबारक फ़तह के लिए सुलतान के पास तमाम मुस्लमान फ़रमां रवाओं के पास से और हर तरफ़ से क़ासिद मुबारकबाद के ख़ुतूत लाए ।दरबार बग़दाद से एक ग़लतफ़हमी के बाइस कुछ कशीदगी सी पैदा हो गई जो बहुत जल्द रफ़ा हो गई।शारा-ए-ने इस की तारीफ़ में बेशुमार क़साइद लिखे जो बजा-ए-ख़ुद एक दफ़्तर अज़ीम हैं ।
39:फ़तह बैतुल-मुक़द्दस के बाद फिर जिहादी मैदान सजते हैं
सुलतान एक अर्से तक बैतुल-मुक़द्दस में मुक़ीम रह कर मुआमला-ए-मुल्की की तदाबीर में मसरूफ़रहा और मेहनत के इस मुबारक और मीठे फल को खाता और हज़ोज़ा-ओ-लज़्ज़ात रुहानी हासिल करता रहा।मशहूर और मज़बूत मुक़ामात में से सूर का क़िला ईसाईयों के क़बज़ा में रह गया था और सुलतान को इस के फ़तह करने की फ़िक्र थी।सैफ उद्दीन अली बिन अहमद शफ़ोब ने जो सूर के क़रीब सैदा और बेरूत में सुलतान का नायब था सुलतान को ख़त लिख कर मुहासिरा सूर की तरग़ीब दिलाई।सुलतान २५ शाबान को जुमा के रोज़ वहां पहुंच गया और सूर का मुहासिरा शुरू कर दिया।क़िला सूरको पानी ने मुहासिरीन के हमले से बहुत कुछ बचाया, ताहम सुलतान तीरा-रोज़ तक मुहासिरा डाले पड़ रहा।इन दिनों में समुंद्र में ईसाईयों और मुस्लमानों के जहाज़ों में मुक़ाबला जारी रहता था और एक दूसरे की हार जीत होती रहती थी।मुहासिरा ने तूल खींचा तू तो लोग सामान की रसद की कमी और शिद्दत-ए-सुरमा(यानी शदीद किस्म की सर्दी)से तंग आ गए और सुलतान से मुहासिरा उठाने के लिए अर्ज़ करने लगे ।सुलतान की और बाअज़ उमरा-ए-मसलन फ़क़ीह ईसा और हुसाम उद्दीन-ओ-इज़ उद्दीन जरदीक की ये राय थी कि जब क़िला की फ़सील टूट चुकी है और बहुत मेहनत और ज़र सिर्फ हो चुका है बग़ैरफ़तह क़िला को ना छोड़ना चाहीए ।मगर अक्सर लोग बददिल हो गए थे और सुलतान ने आख़िर-ए-कारमुहासिरा उठा लेना मुनासिब समझा।आख़िर-ए-कार शवाल में शदीद सर्दी की हालत में वहां से कूचकिया।मुहासिरा सूर के ज़माना में होनीन फ़तह हो चुका था।सुलतान ने बदर उद्दीन बलारम को वहां हाकिम कर के भेज दिया और ख़ुद इक्का में इंतिज़ाम और रिफ़ाह-ए-आम के कामों में कुछ मुद्दत मसरूफ़ रहा।


40:सुलतान की आमद का सुनकर हमला-आवर फ़रंगी भाग उठे
५८४हिज्री के आग़ाज़ में यानी वस्त माह मुहर्रम में सुलतान इक्का से हुस्न कौकब की तरफ़ रवाना हुआ और वहां पहुंच कर उस का मुहासिरा शुरू किया, मगर इस मुद्दा की दुशवारी ने बिलफ़ाल इस से इस को मुल्तवी करा दिया।वहीं बाअज़ वालियाँ मलिक के सफ़ीरों ने इस से मुलाक़ात की और इस के बाद वो दमिशक़ को चल दिया और ६ रबी उलअव्वल को वहां पहुंचा सुलतान चौदह माह के बाद दमिशक़को वापिस आया और चंद रोज़ क़ियाम करना चाहता था लेकिन पांचवीं ही दिन दफ़्फ़ातन उस को ख़बर पहुंची कि फ़िरंगियों ने जबील पर चढ़ाई की है और इस का मुहासिरा कर लिया है ।इस ख़बर के सुनते हैं इस ने लश्करों को तलब किया और सीधा जबील को निकला लेकिन अभी वो रास्ता ही में था कि फ़रंगी उस की आमद की ख़बर सुनकर वहां से भाग उठे और वापिस कर चले गए ।
सुलतान को इमादा उद्दीन और लश्कर मूसिल और मुज़फ़्फ़र उद्दीन के हलब को, आपकी ख़िदमत में जिहाद के लिए आने की ख़बर मिली।पस वो मुल्क बालाई साहिल के इरादा से हुस्न अलाकराद की तरफ़ चला और इस के मुक़ाबिल में एक बुलंद टीले पर जा उतरा और शाहज़ादा मुल्क ज़ाहिर और मुल्क मुज़फ़्फ़र को कहला भेजा कि दोनों जमा हो कर तेज़ीन पर अनिता किया के मुक़ाबिल जा उतरें और इस तरफ़ से दुश्मन के हमला का ख़्याल रखें ।सुलतान हसन अलाकराद के फ़तह करने की तजावीज़ सोचता रहा मगर कोई तदबीर कारगर मालूम ना हुई।दो दफ़ा उसने तरह बुल्स को तख़्त-ओ-ताराज किया और फिर अहल लश्कर की रुख़स्त के ख़त्म होने पर, उनके फिर जमा होने के वक़्त का इंतिज़ार करने के लिए दमिशक़ को चला आया।और चंद रोज़ तक वहां रह कर अदलेगुस्तरी और इंतिज़ाम मलिक और एहतिमाम जिहाद में मसरूफ़ रहा।


41:जिहादी मैदानों में फ़ुतूहात पर फ़ुतूहात
जब फ़ौजों के जमा होने का वक़्त हो गया तो वो बिलाद बालाई साहिल के फ़तह करने के अज़म से इस तरफ़ रवाना हुआ।रास्ता में इस को ख़बर मिली कि इमादा उद्दीन से बड़े तपाक से मुलाक़ात कर के इस के लश्करों को अपने लश्कर में शरीक कर के हुस्न अलाकराद के क़रीब जा उतरा।क़बाइल अरब भी पहुंच गए तो हुस्न अलाकराद के गर्द के क़िले फ़तह करता चला गया।६ जमादी उलअव्वल को उसने अलतरतोस को जा घेरा और इस को फ़तह कर के जब्ला की तरफ़ बढ़ा।वहां पहुंचते ही शहर पर क़बज़ा हो गया मगर अहल क़िला मुक़ाबला पर आमादा रहे १९ तारीख़ को जब अहल क़िला आजिज़ आ गए तो उन्होंने अमान चाही, जो सुलतान ने दे दी और क़िला पर क़बज़ा हो गया।२३ जमादीउलअव्वल तक वहां ठहर कर सुलतान ने लाज़क़ीह को कूच किया और शब तक उस के क़रीब पहुंच गया।फ़रंगी सुबह को ख़बर पा कर क़िलों में पनाह गज़ीन हो गए । ये तीन क़िला एक बुलंदी पर थे मुस्लमान लश्कर ने नक़ब लगाना शुरू की और क़िला की जड़ों को उखाड़ डाला।तीसरे ही दिन अहलक़िला ने अमान चाही और शहर छोड़ जाने या जुज़्य अदा करने की शर्त पर अमान दी गई।
42:लाज़क़ीह में बुतों और तस्वीरों की शामत
लाज़क़ीह एक निहायत फ़राख़ और आबाद और ख़ूबसूरत शहर था।इमारतें पुख़्ता और रफ़ी उल-शान थीं ।नवाह में बाग़ात निहायत दिलफ़रेब और सरसब्ज़ शादाब थे ।चारों तरफ़ नहरें जारी थीं बड़े बड़े आलीशान गरजे जिनकी दीवारों में संगमरमर लगा हुआ था और उन पर तस्वीरें मुनक़्क़श थीं , मुस्लमानों ने इन तस्वीरों को मिटा दिया।बाअज़ मकानात को भी गिरा दिया जिसका बादअज़ां उनको बहुत अफ़सोस हुआ।
लाज़क़ीह के ईसाईयों ने वतन की उलफ़त के सबब उस को छोड़कर जाना गवारा ना किया और जुज़्य देना क़बूल कर के वहीं रहना पसंद किया।सुलतान जब शहर में दाख़िल हुआ तो उनसे उलफ़त और दिल-दही की बातें कीं और उनकी तसकीन और तश्फ़ी की।शहरों और बाज़ारों की सैर कर के लाज़क़ीह की बंदरगाह को देखने के लिए गया , और ऐसे ख़ूबसूरत शहर के फ़तह होने पर अल्लाह क्रीम का शुक्रिया अदा किया।
सैफ उल-इस्लाम को एक ख़त में लिखता है कि :
"लाज़क़ीह निहायत फ़राख़ और दिलकुशा शहर है ।इस की मनाज़िल ख़ूबसूरत और इमारात दिलकशहैं और गर्द नवाह में बाग़ात और नहरें हैं ।ये शहर साहिल के तमाम शहरों में ख़ूबसूरत और पुख़्ता है और समुंद्र के इस साहिल की बंदरगाहों में ऐसी ख़ूबसूरत बंदरगाह किसी की नहीं है ।जहाज़ों के ठहरने का मुक़ाम निहायत मुनासिब और मौज़ूं है ।
43:हैबतनाक ख़ंदक़ वाले क़िला की फ़तह
२७जमादी उलअव्वल को सुलतान ने लाज़क़ा से सीहोन की तरफ़ कूच किया और२९ को वहां पहुंच कर मुहासिरा शुरू कर दिया।सहीवन का क़िला निहायत पुख़्ता और बुलंद था , गोया आसमान से बातें कर रहा था।इस के गर्द निहायत अमीक़ और हैबतनाक ख़ंदक़ थी जिसका अर्ज़ १२० गज़ था और मालूम होता था कि क़िला मुश्किल से फ़तह होगा।तीन फ़सीलों से शहर-पनाह में था मगर जब मनाजीक़ ने काम शुरू किया तो फ़सील का एक बड़ा क़ता गिर पड़ा और अंदर जाने का रास्ता हो गया।सुलतान ने ख़ुद पेशक़दमी की और लश्कर ने अल्लाहु-अकबर के नारे बुलंद कर के फ़सील पर चढ़ना और जंग शुरू कर दी और ऐसे जान तोड़ कर लड़े कि ईसाईयों की हिम्मत टूट गई और वो अमान मांगने लगे ।सुलतान ने अहल-ए-शहर को उन्हें शराइत पर जो अहल यरूशलम से मुक़र्रर हुई थीं उनको अमान दे दी और क़िला पर क़बज़ा कर के वहां इंतिज़ाम-ओ-इंसिराम के शोबे क़ायम कर के हुक्काम का तक़र्रुरकर दिया।वहां से सुलतान बिकास की तरफ़ रवाना हुआ और बिकास और अशफ़र और सर मान्य को इसी तरह फ़तह कर लिया।
44:मुस्लमान मज़लूम क़ैदीयों पर आज़ादी-ओ-रिहाई के दरवाज़े खुलते हैं
एक मुर्ख़ कहता है कि :
"सुलतान की फ़ुतूहात जब्ला से लेकर सर मान्य तक तमाम हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ से जुमा के दिन हुईं और ये अलामत (शायद) ख़तीबों की दुआओं की क़बूलीयत की(थी)जो वो मिंब्बरों पर सुलतान के लिए मांगा करते थे ।इन मफ़्तूहा मुक़ामात से हर एक जगह एक तादाद मुस्लमान क़ैदीयों की मिलती थी (जो सलीबियों ने ज़ुल्मोसितम का मुज़ाहरा करते हुए क़ैद-ख़ानों में डाले हुए होते थे फ़तह के बाद सुलतानकी तरफ़ से (ये मुस्लमान क़ैदी सबसे पहले आज़ाद कर दिए जाते थे)।
45:पहाड़ की चोटी पर वाक़्य मज़बूत क़िला की तसख़ीर
सुलतान वहां से फ़ारिग़ हो कर हुस्न बज़रीह की तरफ़ चला जो एक बुलंद-ओ-बाला पहाड़ की चोटी पर एक निहायत पुख़्ता और मज़बूत क़िला था।इस की दुशवार गुज़ार राहों और पुख़्तगी के सबब से ये बात अवाम में मशहूर हो चुकी थी कि इस क़िला को कोई फ़तह नहीं करसकता।सुलतान को इन मुश्किलात ने इस की फ़तह करने पर और ज़्यादा हरीस किया, और २५ जमादी अलाख़र को वहां पहुंच कर मनाजीक़ से काम लेना शुरू कर दिया।दो रोज़ तक कोई मुफ़ीद नतीजा ना पैदा हुआ तो लश्कर के तीन हिस्से कर के हर एक को बारी बारी हमला करने का काम सपुर्द कर दिया।पहले रोज़ इमादा उद्दीन वाली सिंजार की बारी थी।बहुत शुजाअत से उसने हमला और लड़ाई की मगर कुछ पेश-रफ़्त ना गई।दूसरे रोज़ सुलतान की अपनी नौबत थी।सुलतान ने लश्कर के दरमयान खड़े हो कर नारा अल्लाहु-अकबर बुलंद किया।और लश्कर ने मुत्तफ़िक़ हो कर यक-बारगी हमला किया और फ़सील पर चढ़ गए और फ़िरंगियों से सख़्त लड़ाई लड़े ।आख़िर-ए-कार ईसाई शिकस्त खा गए और मजबूरन अमान मानने लगे ।इस क़िला की फ़तह के बाद बहुत मख़लूक़ इस में जुज़्य देकर निकली।
वाली क़िला एक ईसाई वाली अनिता क्या का रिश्तेदार था।सुलतान ने इस से नरमी और मुलातिफ़त से सुलूक किया और इस की ख़ाहिश के मुताबिक़ उस के तमाम अज़ीज़ों समेत अनिता किया की तरफ़ इज़्ज़त के साथ रवाना किया।एक दूसरी रिवायत ये है कि क़िला वालिया बुर्नुस साहिब अनिता किया की ज़ौजा थी और क़ैदीयों में वो और इस की बेटी भी गिरफ़्तार हुई थी सुलतान को जब ये मालूम हुआ तो उनको मआ उनके ख़ुद्दाम के आज़ाद कर दिया और तोहफ़े और इनाम देकर अनिता किया रवाना कर दिया और इस के बाद सुलतान के इसी तरह हुस्न, दरबसाक और ब़गरास के क़िलों को फ़तह किया।ये आख़िरी दो क़िले थे जो अनिता किया के नवाह में और इस मुँह पर वाक़्य थे ।उनके फ़तह हो जाने से अनिता किया अकेला अपने आपको सँभालने के वास्ते रह गया, गोया कि अनिता किया के आज़ा कट गए और वो कमज़ोर-ओ-ज़ईफ़ हो गया।
सुलतान अब अनिता किया की फ़सीलों के नीचे पहुंच गया था और थोड़ी सी कोशिश से अनिता किया फ़तह हो जाता लेकिन मुस्लमान फ़ौजें एक अरसा के सख़्त और कठिन काम और मुसलसल लड़ाईयों से दरमांदा हो गई थीं ।वतन की मुहब्बत उनको खींच रही थी।सिर्फ गरबा-ए-की हिम्मतें ही ज़ईफ़ नहीं हुई थीं बल्कि इमादा उद्दीन सिंजार भी बहुत बेक़रारी से रुख़स्त तलब करता था।
46:रमज़ान उल-मुबारक में सुलतान के जिहादी मार्के
अनिता किया के वाली के सफ़ीर सुलतान के पास सुलह की दरख़ास्त करने के लिए आ चुके थे ।सुलतान को मुस्लमान लश्कर के आराम की ज़रूरत ने दरख़ास्त सुलह मंज़ूर कर लेने की तहरीक की और मौसम-ए-सरमा को ८ माह के वास्ते उसने वाली अनिता क्या से सुलह कर ली और एक शर्त ये ठहराई कि तमाम मुस्लमान क़ैदी जो अनिता क्या में हैं रिहा कर दीए जाएं "।इस के दमिशक़ पहुंचने पर माह रमज़ान आ गया।ये एक क़ुदरती तहरीक आराम करने की थी मगर सुलतान की कमाल हिम्मत और शौक़ जिहाद ने इस को आराम करने की तरफ़ माइल ना होने दिया क़रीब के और क़िलों में से होरान के इलाक़ा में सफद और कौकब नाम के दो क़िले अभी ग़ैर मफ़्तूहा बाक़ी थे , उन अय्याम में उनको फ़तह करने का अज़म कर लिया।
47:मक्का और मदीना मुनव्वरा पर हमला करने के ख़ाहिशमंद पर जिहादी ज़रब
जिस ज़माना में सुलतान बिलाद अनिता क्या मैं ईसाईयों के शहरों को फ़तह कर रहा था, मलिक आदिलनवाह कर्क में ईसाईयों से जंग कर रहा था।ख़ास कर्क पर भी उसने अपने ख़ुसर साद उद्दीन कस्बा के मातहत फ़ौज भेज दी थी जिसने आख़िर-ए-कार ईसाईयों को अरसा तक महसूर रखकर तंग कर दिया और वो इमदाद और सामान रसद के पहुंचने से मायूस हो कर निहायत आजिज़ी से मुल्क आदिल से अमान तलब करने पर मजबूर हो गए ।मलिक आदिल ने अमान दे दी और क़िला पर मुस्लमानों का क़बज़ा हो गया।कर्क की फ़तह एक बहुत बड़ी कामयाबी थी जो मुस्लमानों को हासिल हुई।इमादा ने एक ख़त में लिखा कि :
"कर्क पर मुस्लमानों का क़बज़ा हो गया।ये वो क़िला है जिसके वाली ने हिजाज़ (मक्का और मदीना)पर हमला करने और इस को फ़तह करने का इरादा किया था।अल्लाह ने इस को ज़लील किया और हमारे फंदे में ऐसा फंसा कि मुश्किल से जांबर हुआ और मख़लिसी को ग़नीमत समझा।(वाली कर्क जंग हितेन में क़ैद हो गया था और बाद फ़तह कर्क, सुलतान ने इस को छोड़ दिया था)हमने उस को साल की इब्तिदा-ए-में मौत का मज़ा चखा दिया था।अब हम इस क़िला के मालिक हो गए हैं जिसकी निसबत वो इसी साल में बड़े दावे करता था।कुफ़्र आजिज़ हो कर इस्लाम के पांव पर गिरा और इस क़िला के फ़तहहोने से इस्लाम का बोल-बाला हो गया।
48:बारिशों कीचड़ दलदल और पानियों के दरमयान ख़ंदक़ों से घिरे क़िले की तरफ़ पेशक़दमी
फ़तह कर्क के बाद सफद और कर्क दो क़िले मज़बूत बाक़ी रह गए थे ।सुलतान ने माह रमज़ान में आराम करने के बजाय उनको फ़तह के लिए जिहाद करना पसंद किया और शुरू रमज़ान में दमिशक़से सफद को रवाना हुआ।क़िला बुलंद था।अमीक़ ख़ंदक़ों से घिरा हुआ था और शिद्दत बारिश-ओ-बाराँ से मुहासिरा में काफ़ी तरक़्क़ी-ओ-पेशक़दमी नहीं हो सकती थी।ख़ेमों के इर्दगिर्द सब तरफ़ पानी भरा हुआ था।कीचड़ में चलना फिरना दुशवार था मगर सुलतान था कि इस जिहाद में इसी सरगर्मी और शौक़ से मसरूफ़ था।इस तकलीफ़ को वो राहत और मुसीबत को वो इशरत समझता था।कोई मुश्किल उस को अपने इरादा से बाज़ नहीं रख सकती थी और कोई क़ुव्वत उसे थका नहीं सकती थी।दिन-भर फ़ौज के साथ हमले में शरीक रहता था और रात-भर मनजनीक़ों के नसब करने के काम को अपनी हरवक़त खुली रहने वाली आँखों से देखता था।सफद की इमदाद के लिए ईसाईयों ने सूर से कुछ फ़ौज भेजी थी जो घाटियों में छपी हुई थी।एक मुस्लमान अमीर शिकार खेलने को गया।तो इस का सुराग़ ले आया और मुस्लमान फ़ौज के सिपाहीयों ने इन जंगल बाश सलीबियों ही का शिकार कर डाला और एक भी उनमें भाग कर कहीं ना जा सका लेकिन सुलतान ने उनके साथ मुलातिफ़त का बरताव किया और छोड़ दिया।
49:चांद की मंज़िल फ़तह होती है
क़िला सफद फ़तह हो गया और सुलतान क़िला को कब की तरफ़ मुतवज्जा हुआ।ये क़िला बुलंदी मैं सच-मुच कौकब (आसमान का सितारा )ही था, जिसको अरबी मुर्ख़ उनका का आशयाना या चांद की मंज़िल से तशबीया देता है मगर सुलतान की हिम्मत से बावजूद बारिश-ओ-बाराँ की मुसीबत और इसी किस्म की तकालीफ़ के फ़तह हो गया।
फ़तह कौकब ने मुस्लमानों की फ़ुतूहात के तमाम सिलसिले को मिला दिया।चुनांचे इमादा बग़दाद के ख़त में सुलतान की तरफ़ लिखता है कि :
"अब हमारे लिए तमाम ममलकत क़ुदस (बैतुल-मुक़द्दस)की सरहद में अतराफ़ मिस्र अरीश से लेकर ममालिक हिजाज़ तक इधर कर्क से शोबक तक का रास्ता खुल गया जिसमें बिलाद साहलीह आमालीह बेरूत तक शामिल हैं ।इस ममलकत में अब सूर के सिवाए कोई जगह ग़ैर मफ़तूह नहीं रही और इक़लीम अनिता किया के तमाम क़िले जबकि और लाज़क़ीह भी बिलाद लादन तक हमारे क़बज़ा में आ गए हैं ।अब सिर्फ अनिता किया मआ चंद छोटे क़िलों के बाक़ी है ।कोई इलाक़ा नहीं रहा जिसके मुज़ाफ़ात में से सिर्फ जबील फ़तह हुआ है ।अब कुछ अरसा के बाद इस को फ़तह किया जाएगा।इस को अज़ाब इलाही से बचाने वाला कोई नहीं है ।मेरा इरादा इस पर हमला करने का पुख़्ता हो चुका है और इस की हदूद में बैतुल-मुक़द्दस की जानिब जबील से अस्क़लान तक फ़ौजें और सामान जंग और कसीर-उल-तादाद आलात वासलहा जमा कर दिए गए ।मेरा बेटा अफ़ज़ल इस वलाएत की हिफ़ाज़तऔर निगहदाशत पर मुतय्यन है और मेरा छोटा बेटा उसमान मिस्र और इस के नवाह में इंतिज़ाम पर मुक़र्रर है ।
50:सुलतान की बैतुल-मुक़द्दस में ईद उलअज़हा की अदायगी
इन फ़ुतूहात से फ़ारिग़ हो कर सुलतान मुल्क आदिल को हमराह लिए हुए बैतुल-मुक़द्दस को रवाना हुआ और ईद उलअज़हा तक वहीं इंतिज़ाम-ओ-एहतिमाम में मसरूफ़ रहा।इस के बाद अस्क़लान को गया और मलिक के इंतिज़ाम और बंद-ओ-बस्त और रियाया के हालात के तफ़ह्हुस और ज़रूरी अहकाम के इजरा में मसरूफ़ रहा।मलिक आदिल को शाहज़ादा अज़ीज़ उसमान के साथ मिस्र रवाना कर दिया और ख़ुद इक्का के इलाक़ा की तरफ़ गया।लश्करों का जायज़ा लिया।नई फ़ौजें भर्ती कीं और लश्करों को सरहदों की हिफ़ाज़त के लिए मुक़र्रर कर के रवाना किया।इक्का की हिफ़ाज़त और इस्तिहकाम के लिए मुजव्वज़ा इमारात की तरक़्क़ी को जो बहाव उद्दीन क़रा क़ूश के ज़ेर-ए-एहतिमाम बन रही थीं , देखता रहा और ख़ुद दमिशक़ को रवाना हुआ।हुक्काम की तबदीलीयों और तक़र्रीयों की बाबत अहकाम जारी करने और हर एक किस्म की इंतिज़ामी ज़रूरीयात पर मुतवज्जा हुआ।


51:बैतुल-मुक़द्दस पर नसब सलीब आज़म की बग़दाद रवानगी

वस्त माह ५८५हिज्री में दरबार बग़दाद का सफ़ीर सुलतान के पास आया और इस की वापसी पर सुलतान ने अपना सफ़ीर उस के हमराह भेजा और अजीब-ओ-ग़रीब तहाइफ़ और क़ीमती और नादिरइश्याय मआ ईसाई क़ैदीयों और ग़नीमत के बेशक़ीमत अस्बाब और ईसाई बादशाह के ताज और लिबास और सलीब आज़म के जो सखरा मुक़द्दसा पर नसब की हुई थी , बादशाह की ख़िदमत में बैतुल-मुक़द्दस की अज़ीम कामयाबी के निशान के तौर पर रवाना कर दीए ।

52:कुछ मज़ीद अज़ीम जिहादी कारनामे
यहां कुछ और भी अज़ीम कारनामे हैं जिन्हें सलाह उद्दीन रहिमा अल्लाह ने अपनी ज़िंदगी के आख़िरी बरसों के दौरान सरअंजाम दिया, और शायद ये बरस छः से ज़ाइद ना होंगे और ये मुख्तलिफ़-उन-न्नौअकामयाबीयों से भरपूर हैं ।कुछ इलमी , कुछ सयासी और कुछ और उनके इलावा।मैं कुछ बाक़ी अस्करी कामयाबीयों के बालाख़तसार ज़िक्र पर इकतिफ़ा करता हूँ , जिनका अभी थोड़ी देर क़बल मैंने फ़तह उल-मुक़द्दस के ज़िमन में इशारा किया है , और ये हैं :फ़तह तबरीह, अलनासरৃ, अरसोफ़, होनीन, जब्ला, अलतरतोस, उल़्ला ज़किया, नॉबलस, अलबीरৃ, हिस्न अंसरी, हिस्न उलारज़ ये, अलबरज अलाहमर, हिस्न अलख़ील, तिल अलसाफ़ीह, क़िला उल-हबीब अलफ़ोक़ानी, उल-हबीब अलतहतानी, उलहसन अलाहमर, लद, क़लनोसा, अलक़ा कौन, कीमोन, अलकरक, क़िला अलशोबक, क़िला एल्सिला, अलवईरৃ, क़िला अलजमा, क़िला अलतफ़ीला, क़िला अलहरमज़, सफद, हिस्न बाज़ोर, हिस्नअसकंदरो ना सूर और इक्का के दरमयान), क़िला अबी उल-हसन, बालाई साहिल पर एक शहर , एल्मर क़ैद, हिस्न यहमूर (जब्ला और मुरक्कब के माबैन) बलनयास, सहीवन, बलातनस, हिस्न अलजमा हीर, क़िला अलीज़ो, बिकास, अलशग़र, बक्सर ऑयल, अल्सर मान्य, क़िला बर्ज़ ये, दरबसाक, (अनिता किया के क़रीब)बिफरास, (अर्ज़ बेरूत में )अलदामोर , (सैदा के नज़दीक )अल्सो फ़ंद।
सलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह और इस के उस्ताज़ नूर उद्दीन रहिमा अल्लाह से क़बल सलीबियों ने दरयाए अरदन और बहर अब्यज़ के दरमयान सब इलाक़ों पर क़बज़ा जमा लिया था।हत्ता कि मुस्लमानों के पासा यक मुहक़्क़िक़ के बाक़ौल दरयाए अरदन के ग़र्बी किनारे एक मुरब्बा सेंटीमीटर जगह भी ना रही थी।बल्कि उस के बरअक्स दरिया के शर्क़ी किनारे सलीबियों के क़िले और मज़बूत मुक़ामात मौजूद थे जैसे कि करकोक और अलशोबक वग़ैरा।सलाह उद्दीन रहिमा अल्लाह ने हिम्मत से काम लिया।अल्लाह के फ़ज़ल-ओ-करम और अपनी इस्लामी शख़्सी ख़ूबीयों की बदौलत कि उन्हें , , सूर और याफ़ा के दरमयान साहिल पर ही छोटे छोटे दायरों में महसूर कर दिया।अगर अल्लाह ताला उसे कुछ और मोहलत दे देता , और ५७९हिज्री में वफ़ात ना पाता तो और भी हैरत-अंगेज़ कारनामे सरअंजाम देता।इंशाॱएॱ अल्लाह लेकिन फिर भी जो उसने क्या हक़ अदा कर दिया।यक़ीनन सलाह उद्दीन रहिमा अल्लाह मुस्लिम क़ाइद इन हमला आवरों और मुल्क पर क़ाबिज़ ग़ासिबों कुमलकसे निकालने पर इन समुंद्री आमद-ओ-रफ़त पर और उन्हें उनके मुल्क यूरोप तक वापिस धकेलने जैसे अहम मसाइल पर अक्सर सोचता रहता था, ताकि वो ये इलाक़े इस्लामी तालीमात से मुनव्वर और जाहिलियत की ज़ुलमात से पाक साफ़ करसके एक-बार वो अपने वज़ीर इबन शद्दाद से जब कि वो दोनों मुजाहिदीन की जमात के हमराह एक साहिली मुहिम पर जा रहे थे , यूं हमकलाम हुआ : क्या मैं तुझे एक बात बताऊं ?, , इबन शद्दाद ने कहा: हाँ ज़रूर! तो सलाह उद्दीन रहिमा अल्लाह कहने लगा:
"मेरे दिल में ये बात आती है कि साहिल के बक़ीया इलाक़े अल्लाह ताला कब फ़तह करवाएगा !!में जब पूरे मुल्क में बंज़र ग़ाइर देखता हूँ तो दिल में ये बात उठती है कि लोगों को ख़ैर बाद कहूं , घने घने जंगलात तक पहुँचूँ समुंद्र की पुश्त पर सवार हो कर एक एक जज़ीरे तक पहुँचूँ ।ज़मीन का एक एक चप्पा तलाश करूँ रोय ज़मीन में अल्लाह के साथ कुफ़्र करने वालों को (ज़िंदा) बाक़ी ना छोड़ूँ या फिर मैं ख़ुद शहीद हो जाऊं । अल्लाहु-अकबर!
53:सलाह उद्दीन रहिमा अल्लाह का मुजाहिदाना तर्ज़-ए-ज़िदंगी
यूं लगता है कि ज़िंदगी के इन आख़िरी बरसों में अल्लाह ताला ने इस के दिल से दुनिया की हर रग़बतऔर मर्ग़ूब-ओ-पसंदीदा चीज़ को निकाल दी था और जिहाद को इस के लिए ऐसा महबूब मशग़ला बना दिया था कि सिर्फ जज़बा जिहाद ही उस के दिल-ए-पर छा गया और जी पर ग़ालिब आ गया था।अल्लाह ताला ने मुश्किलात-ओ-शदाइद को इस पर आसान फ़र्मा दिया था।कि इस की ज़िंदगी के ये बरस जिहादी ख़ेमों में या फिर घोड़ों की पुश्तों पर ही गुज़ार दीए दुश्मन से लड़ते हुए या उनका मुहासिरा करते हुए या फिर उनके क़िलों और पनाह गाहों को फ़तह करते हुए जो आदमी मुल्क-ए-शाम और इस की मौसम सुरमा में सर्दी की शिद्दत यानी इस मौसम सुरमा के वोलों , बर्फ़ों , पहाड़ों की बर्फ़ बारियों , यख़-बस्ता हवाओं , आंधीयों और बारिशों से आश्ना है , वो अच्छी तरह समझ सकता और तजज़ियाकरसकता है कि सलाह उद्दीन ने किस वलवला अंगेज़ जज़बा और ईमानी हौसले से अपने रब की रज़ाजोई और दीन को ग़ालिब देखने के लिए , इन हालात में ज़िंदगी बसर की होगी।
हम इबन शद्दाद से सलाह उद्दीन की ज़िंदगी के बारे में ये एक वाज़िह तरीन मिसाल भी तो सुनते हैं , वो कहता है : ५८४हिज्री रमज़ान उल-मुबारक के महीने के अवाइल ही में सुलतान दमिशक़ से बजानिब "सफद चल पड़ा।उसने इस माह-ए-मुबारक में अपने बीवी बच्चों , घर-बार और वतन की तरफ़ कोई इलतिफ़ात तक ना किया, मुड़ कर भी ना देखा हालाँकि इस माह में इन्सान जहां कहीं भी गया हो अपने घर वालों के साथ इकट्ठे रहने के लिए लौट आता है ए अल्लाह !उसने ये सब कुछ तेरी रज़ा के लिए बर्दाश्त किया है , उसे अज्र अज़ीम अता फ़र्मा।(आमीन)
इसी मुबारक माह में अल्लाह का ये शेर "सफद तक पहुंचा, हालाँकि वो एक ऐसा महफ़ूज़ मज़बूत और महफ़ूज़ क़िला था जिसे तमाम अतराफ़ से वादीयों ने भीर रखा था उस के बावजूद उसने वहां पहुंच कर मनजनीक़ नसब कर दें बारिश अपने जोबन पर , वादीयों में कच्ची ज़मीन की धँसन बहुत ज़्यादा (यानी गा रासा, जिसमें पांव रखते ही आदमी धँस जाये )बारिशों के साथ ज़ाला बारी भी शदीद तरीनलेकिन ये सब कुछ , उस की यलग़ार के सामने और फ़ौजों की सफ़ बंदी करने में , जिनका मौक़ा महल मुतक़ाज़ी था, ज़र्रा बराबर भी रुकावट ना बन सके ।
इस एक रात, में ख़ुद भी आपके हमराह था कि आपने बनफ़स नफ़ीस पाँच मनजनीक़ों को नसब करने के लिए मुख़्तलिफ़ मुक़ामात का मुआइना किया।इसी रात यूं फ़रमाने लगे : इन पांचों को नसब करने से पहले हमें सोना नहीं होगा  लिहाज़ा एक एक जमात को एक एक मनजनीक़ हवाले की और क़ासिद मुसलसल उस के और मनजनीक़ नसब करने वालों के माबैन आते-जाते रहे , एक एक लम्हा की ख़बर देते रहे , यहां तक कि आप (रहिमा अल्लाह )की ख़िदमतगुज़ारी और अमीर की इताअत शआरी में हमें सुबह हो गई।मनजनीक़ गाड़ी (नसब)की जा चुकी थीं , तो मैंने आपसे एक हदीस मुबारका बयान की और इसी के हवाले से आपको बशारत और ख़ुशख़बरी सुनाई, वो हदीस नबवी ये है :
((अयनअन लिऐ तमस्सहुउमअ अलन्नअरु ईनो बअतत तहरुसु फी सबील-ए-अलल-ए-वअयनौ बक्त मन ख़शयऩ-ए-अलल-ए-))
"दो आँखें हैं जिन्हें दोज़ख़ की आग छू ना सकेगी , एक आँख जिसने अल्लाह की राह में पहरा देते हुए जागते हुए गुज़ारी, दूसरी आँख जिसने अल्लाह के डर से आँसू बहा दीए "।
फिर सफद के इन सलीबियों से लड़ाई जारी रही यहां तक कि वो सुलतान के हुक्म के सामने मुतीअ हो गए ।
54:मोहलिक बीमारी भी घोड़े की पुश्त से नीचे ना उतार सकी
आपको दर्दों "का मर्ज़ भी लाहक़ था, उस के बावजूद मैदान-ए-जंग की चीख़-ओ-पुकार और पकड़ धक्कड़ में रहे , तो ये सिर्फ़ बारगाह इलाही से सूब चाहते हुए था।वो सब्र-ओ-सबात के सिले में जो कुछ अल्लाह रहीम-ओ-करीम के पास है उसे चाहते हुए किया करते थे ।
हम इबन शद्दाद से इस के सब्र-ओ-सबात के बारे में एक और पहलू भी सुनते हैं जब कि सलाह उद्दीन रहिमा अल्लाह साठ सत्तर बरस की उम्र के दरमयान थे , वो वाक़िया बयान करते हुए कहता है :
"मैंने आप रहिमा अल्लाह को "इक्का की चरागाह मैं ख़ुद देखा कि सुलतान की मर्ज़ की तकलीफ़इंतिहा-ए-को पहुंच चुकी थी जो उसे जिस्मानी फोड़ों की वजह से लाहक़ हुई थी।इस मर्ज़ ने इस के जिस्म के दरमयानी हिस्से को माऊफ़ कर दिया था, जिससे इस से बैठा भी ना जा सकता था।वो ख़ेमा में अपने एक पहलू पर टेक लगाए हुए था, और इसी हालत ही में खाना खा रहा था, जब कि वो उस वक़्त ख़ेमा में होने के बावजूद दुश्मन के भी क़रीब तरीन था।ये मर्ज़ इसे , दुश्मन से लड़ने के लिए अपने लश्कर के मैमना (दाएं तरफ़ का लश्कर)मयस्सरा और क़लब उल-जैश (लश्कर का वस्त)तर्तीब देने से ना रोक सका।इस मर्ज़ की शिद्दत के बा-वस्फ़ वो इब्तदाए नमाज़ (सुबह )से सलाৃ ज़ुहर तक और फिर अस्रता मग़रिब घोड़े की पुश्त पर भी बैठता, अपने लश्कर के मुख़्तलिफ़ दस्तों और यूनिटों के पास पहुंचता, उऩ्हें हुक्म देता, उन्हें जिहाद-ओ-क़िताल से मुताल्लिक़ मुनहियात से रोकता, उनमें फ़ी सबीलअल्लाह फ़िदा-ए-होने और जाम-ए-शहादत नोश करने की रूह को तड़पाता और गर्माता।और इस की अपनी हालत ये होती कि शिद्दत अलम और फोड़ों की टीस को बर्दाश्त किए हुए था।हमें उस की हालत पर हैरत और ताज्जुब हुआ करता, तो वो यूं कहा करता: कि घोड़े की पुश्त से नीचे उतरने तक ये दर्द महसूस ही नहीं होता।बिलाशक इस पर अल्लाह ताला की ये ख़ास इनायत थी, और इस इस्लामी हुक्म की बरकत थी जिसकी ख़ातिर वो जिहाद कर रहा था।अल्लाह ताला ख़ुद फ़रमाते हैं जिसे उस के रसूल मुअज़्ज़म ने अपने रब से हदीस क़ुदसी में बयान किया है :
((वला यज़ाल अबदी यतक़रब अली बालनवा फ़ुल हती अहिब्बा फ़ाज़ा अहबबता कंत समा अलज़ी यसमा बह वबसरा अलज़ी यबसर बह वेद ह इल्लती यबतश भा-ओ-रजुला इल्लती यमशी भा विलन सुनलनी लाअतीना विलन उस्ताज़नी लाईज़ता))
"मेरा बंदा लगातार नवाफ़िल की अदायगी से मेरा क़ुरब हासिल करता रहता है यहां तक कि मैं उसे अपना महबूब बना लेता हूँ ।तो जब में इस से मुहब्बत करता हूँ , तो में इस का वो कान बन जाता हूँ जिससे वो सुनता है , इस की वो आँख बन जाता हूँ जिससे वो पकड़ता है , इस की वो टांग बन जाता हूँ जिससे वो चलता है ।अगर वो मुझसे मांगे तो मैं ज़रूर अता फ़रमाता हूँ और अगर वो मुझसे पनाह मांगे तो मैं ज़रूर उसे पनाह भी देता हूँ ।
और वो अल्लाह क़ुरआन में यूं भी फ़रमाता है :
?वाल-ए-यन जअहदूवा फ़ीनअ लनहदीन्नहुम सुबुलनअ व इन इल्लल्लाह लमअ अलमुहसिनीन>
"और जिन लोगों ने हमारे लिए कोशिश की (या जिहाद किया, काफ़िरों से लड़े )हम उनको ज़रूर अपने (क़ुरब के ) रस्ते दिखलाएँगे और बे-शक अल्लाह (अपनी मदद से )नेक लोगों के साथ है ।
55:सुलतान सलाह उद्दीन की वफ़ात
जिहाद की पर मशक़्क़त ज़िंदगी और मुसलसल बे आरामी ने सुलतान को मुस्तक़िल मरीज़ बना दिया था, मर्ज़ की शिद्दत में रमज़ान के कई रोज़े क़ज़ा हो गए मगर जिहाद ना छोटा।अब जो मौक़ा मिला तो क़ज़ा रोज़े अदा करना शुरू कर दिए ।मुआलिज ने उनकी तकलीफ़ का लिहाज़ करते हुए इस से मना किया मगर सुलतान ने ये कह कर कि "ना मालूम आइन्दा क्या हालात पेश आएं "तमाम क़ज़ा रोज़े पूरे किए ।
वस्त सिफ़र ५८९हिज्री में मर्ज़ शिद्दत इख़तियार कर गया और वफ़ात से तीन रोज़ क़बल ग़शी की सी हालत तारी हो गई , मालूम होता था कि बीस साल का थका मांदा मुजाहिद तकान उतार रहा है ।२७ सिफ़र की सुबह का सितारा उफ़ुक़ पर नमूदार हुआ तो सुलतान सलाह उद्दीन की नब्ज़ें डूब रही थीं ।शेख़ अब्बू जाफ़र रहिमा अल्लाह ने सुकरात मौत के आसार महसूस कर के सूरत हश्र की तिलावत शुरू की जब आयत ?होव अलज़ी ला इलाह ए-ए-लिऐ होव अअलिमु अलग़यब-ए-वालश्शहअदऩ-ए-> पर पहुंचे तो यकायक सुलतान ने आँखें खोल दीं , मुस्कुराए और तबस्सुम रेज़ लहजे में कहा: सच्च है । ये कह कर हमेशा के लिए आँखें बंद कर लें ।सुलतान के ग़म में हर आँख अशकबार नज़र आती थी, सलीबी दुनिया के छक्के छुड़ा देने वाले इस बतल जलील का इंतिक़ाल इस हाल में हुआ कि तर्के में कोई गांव , बाग़ और मकान ना छोड़ा था।
56:दुनिया से बे र्गुबती और क़िल्लत सरमाया
शायद ये भी मुनासिब ही रहे कि मैं (इबन शद्दाद) आप रहिमा अल्लाह के ज़ोहद-ओ-तक़्वा और दुनियावी माल-ओ-मता की क़िल्लत की तरफ़ इशारतन बात कर दूं ।मुझे इतना कहना ही काफ़ी है कि उसने अपने मौला से इस हाल में मुलाक़ात की कि विरसा में कोई महल छोड़ा और ना कोई दुनियावीसरमाया, बल्कि इतनी भी रक़म नहीं छोड़ी जिसमें ज़कात वाजिब होती, बल्कि वो सारी दौलत जो अपने पीछे छोड़ी वो सिर्फ़ ४७ दिरहम (नासरी)और एक सोने का दीनार (शामी)।अल्लाह ताला ने ऐसे लोगों के आख़िरत में जो नेअमतें तैयार फ़र्मा रखी हैं , वो अता फ़रमाने के लिए सुलतान को दुनियावी रकबों , बाग़ों , बस्तीयों और खेतियों महलात वग़ैरा से बेनयाज़ ही रखा।
अगर आप रहिमा अल्लाह दुनियावी दौलत जमा करने और कोठियाँ बिल्डिंगें बनाने में मशग़ूल हो जाते तो कभी भी अपने इलाक़े आज़ाद करवाने , तारीख़ के रुख को मोड़ने और हमेशा ज़िंदा रहने की इस्तिताअत ना पाते ।गोया कि लक़ीत बिन यूमर अलायादी ने किसी ऐसे ही सपूत को ज़हन में रखकर ये अबयात कहीं हैं :
फ़क़लदवा अमरकम लल्लाआ दर्रकम
रहब एलिज़र आ बॉमर अल-हर्ब मज़तला
"तुम अपने सब मुआमलात इसी के हवाले कर दो , इसी में तुम्हारी बेहतरी है (दोस्ती करने के लिए )खुले बाज़ुओं वाला है (यानी दोस्तों पर मेहरबान है और (दुश्मनी के हवाले से ( जंग की बात के साथ ही दुश्मनों को बोझल कर देने वाला है , उन पर क़ुदरत और ग़लबा पाने वाला है ।
ला मतरफ़ा इन रखा-ए-अलईश साअदऩ
वला इज़ा अज़ मकरूह बह ख़ुशा
"वो दुनियावी नाज़-ओ-नेअमत पर इतराने वाला शेख़ी बघारने वाला भी नहीं है बल्कि ये दुनियावीआसाइशें तो इस की मुआविन-ओ-मददगार होती हैं और ना ही वो ज़र्रा बराबर डरने वाला है जब कोई बड़ी से बड़ी मुसीबत भी इस पर आन पड़े ।
मुसह्हद अललील तान्या अमूद कम
यरोम मुनहा अली अलाउद् ए-ए-मतला
"रातों को बेदार रहने वाला , बेदार मग़ज़ है , तुम्हारी ही सोचें उसे थका देती हैं (तुम्हें तबाह-ओ-बर्बाद करने के लिए सोचता रहता है )फिर दुश्मनों पर हमले करने के नए नए रास्ते तलाश करता है (दुश्मनों को लाचार किए रखता है )
ला यताम अलन्नोम इल्ला देस यबासा
हम यकाद शबाऩ यफ़सम अलज़ला
वो तो नींद का ज़ायक़ा भी थोड़ी देर के लिए चखता है फिर उसे कोई प्रोग्राम ही बेदार कर देता है , क़रीब है (इस का सतही सा ग़ुस्सा ही)दुश्मन की, मद्द-ए-मुक़ाबिल की पसलीयों को तोड़ कर ना रख दे ।(तवा सके मुकम्मल ग़ुस्से की क्या कैफ़ीयत होगी)
वलीस यशग़ला माल बसमरा
इनकम वला वलद यनग़ी ला अलर्रफ़ा
"उस का दुनियावी माल-ओ-मता इकट्ठा करना भी तुम्हारी तरफ़ से मशग़ूल तो ना करसकेगा और ना ही वो नूर चशम साहिबज़ादा ग़ाफ़िल करसकेगा जिसकी रिफ़अत-ओ-मंजिलत का वो तलबगार और ख़ाहिशमंद है ।
अज़ आबा ाइब यवमा फ़क़लत ला
दमित लजनबक क़बल उल-नौम मज़तजा
"अगर कोई ऐबजू किसी रोज़ उस की (बहादुरी के सिलसिले में )ऐब-जोई करे में तो सिर्फ उसे यही कहूँगा कि सोने से क़बल अपने पहलूओं के लिए नरम बिस्तर को नरम-ओ-मुलाइम कर लेना।
फ़सावरोह फ़ालक़ोह नख़ा अलल
फ़ी अल-हर्ब यहतबल अलरतबाल वालस्सबा


57:तारीख़ इस्लाम, सुन्नत अलाहीह की रोशनी में
यहां मैं चाहूँगा कि एक सवाल पूछूँ :कि आलम-ए-इस्लाम, सलीबियों के बिलाद इस्लामीया में नापाक क़दम रखने से क़बल जिस हालत में था, उस की बरअक्स हालत जो हमने अभी देखी, उस की तरफ़ कैसे मुंतक़िल हो गया?जिन हालात के साय तले सलाह उद्दीन इन सलीबियों से फ़लस्तीन आज़ादकरवाने की हिम्मत पा सका सूर और याफ़ा के दरमयान पर छोटे छोटे दायरों में उन्हें धकेलने में कामयाब हो सका इऩ्हीं मज़ीद दूर दराज़ इलाक़ों तक धुतकारने के लिए जिसे मौत ने मज़ीद मोहलत ना दी, यहां तक कि यही शान अल्लाह ताला ने अशर्फ़ ख़लील बिन क़लादोन की क़िस्मत में लिखी, जो ६९०हिज्री बमुताबिक़ १२९१-ए-में सलीबियों के आख़िरी क़िले और पनाह-गाह "इक्का पर क़ाबिज़ हो गया।
शायद कि इस सवाल का यही जवाब है कि तारीख़ भी एक तरह से "माँ "है ।जिससे कुछ अर्से बाद "पैदाइश होती रहती है , जिस पैदाइश के बाद सुन्नत अलाहीह मज़बूत होती है और ये बिलकुल "इन्सानी पैदाइश ही की तरह है , कि जब इस "तारीख़ी पैदाइश  का वक़्त वज़ा क़रीब आ जाता है तो कोई भी "अल्लाह के हुक्म और इस की तक़दीर को रोक नहीं सकता।बे-शक ये भी अल्लाह की संतों यानी हुक्मों का हिस्सा है , उनसे तास्सुब रखने वाला कोई भी नहीं है ।जैसे "औरतों के रहम से "नोमोलूद बच्चे "दुनिया में आते हैं इसी तरह "तारीख़ के रहम से बड़े बड़े "वाक़ियात "जन्म लेते हैं ये वाक़ियात "तारीख़ी रफ़्तार के साथ साथ दूसरे वाक़ियात से जन्म लेते हैं ।
मुस्लमानों के लिए किस हद तक हम पसंद करते हैं कि अल्लाह ताला की इन संतों और उनके तक़ाज़ों की फ़ित्रत से वाक़फ़ीयत और शनासाई हासिल करें , फिर उसी अंदाज़ और इसी नहज परन अपने हालात को ढाल दें जो इन संतों से मुताबिक़त और मुवाफ़िक़त रखते हूँ , नतीजतन, अल्लाह की तौफ़ीक़, से दुनिया की बागडोर फिर उन्हीं के हाथों में होगी।
यक़ीनन ये "कमज़ोर तरीन हालात जिनसे आलम-ए-इस्लाम गुज़र रहा है , इस बात का ऐलान कर रहे हैं कि "सुन्नत अलाहीह "के मुताबिक़ अनक़रीब एक "तारीख़ी विलादत होने वाली है और हम उम्मीद रखते हैं कि वो नई पैदाइश "नया सलाह उद्दीन होगा फिर उस रोज़ हितेन भी वापिस पलट आएगा और अल-क़ूदस और फ़लस्तीन भी वापिस मिल जाऐंगे ।इंशाॱएॱ अल्लाह
?वयौ॒मइज़् यफ़॒रहु अल॒मु॒मिनूओन, बिनस॒र-ए-अलल-ए-यन॒सुरु मिन॒ यशाइउ वेवव अल॒अज़ीज़ु अलर्रहीमु, वअ॒द अलल-ए-ला युख़॒लिफ़ु अलल्लेउ वअ॒देउ वलकिन्न णक॒सर एलन-ए-ला यअ॒लमूओन >
"और इस दिन मुस्लमान अल्लाह ताला की मदद पर ख़ुश हो जाऐंगे , वो जिसकी चाहता है मदद करता है और वो ज़बरदस्त रहम करने वाला।ये अल्लाह का वाअदा है , अल्लाह अपने वाअदा की ख़िलाफ़वरज़ी नहीं करता, मगर अक्सर लोग (ये बात )नहीं जानते ।
सुलतान सलाह उद्दीन अय्यूबी रहिमा अल्लाह की ज़िंदगी के आख़िरी बरसों पर ये हल्की सी मगर वाज़िह झलक है और दरहक़ीक़त यही मौज़ू ही पढ़ने पढ़ाने के ज़्यादा लायक़ है , जो हर पहलू को शामिल भी है और मुकम्मल तरीन भी है ।और ख़ुसूसन उन करब नाक और ग़मनाक हालात-ओ-ज़रूफ़ के तनाज़ुर में जिनका हम मुशाहिदा कर रहे हैं ।यक़ीनन सलाह उद्दीन जैसे "ज़िंदा अफ़राद की तारीख़ पढ़ने से ही ज़िंदगी मिल सकती है , जो अज़ाइम को ज़िंदा करते हैं , और हिम्मतों को तेज़ कर देते हैं , अफ़राद को हम मर्तबा सुरय्या बना देते हैं , और फिर यक़ीनन अफ़राद को "एक फ़ैसलाकुन ज़िंदगी के लिए मार्का करने पर तैयार कर देते हैं ।
वालसलाऩ वस्सलाम अली अलक़दो ऩ् अलमसला लल्ला बत्ताल वालक़ाद ऩ् मुहम्मद-ओ-अली आला-ओ-इसहा बह वातबाअह।
और दुरूद वस्सलाम मुहम्मद पर, आपकी ऑल आपके सहाबा और आपके पैरोकारों पर।वो मुहम्मद जो तमाम बहादुरों और लीडरों के लिए बेहतरीन नमूना हैं ।
व्रहम उल़्ला सलाह उद्दीन वमकन ला फ़ी जवार अलज़ीन इनाम अल्लाह अलैहिम मन अलनबीन वालसीदीक़ीन वालशहदा-ए-वालसालहीन वहसन ओलक रफीक़ा।
और रहमत फ़रमाए अल्लाह ताला सलाह उद्दीन रहिमा अल्लाह पर, और उन लोगों के पड़ोस में उसे जगह नसीब फ़रमाए जिन पर अल्लाह ताला ने इनाम फ़रमाया है , अनबया-ए-, सिद्दीक़ीन, शुहदा और सालहीन में से , उन लोगों की रिफ़ाक़त और सोहबत कितनी ही बेहतरीन है !



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ایوبی کی یلغاریں

فاتح بیت المقدس سلطان صلاح الدین ایوبی رحمہ اللہ

محمد طاہر نقاش
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