मुहम्मद उमर कैरानवी: प्रोफेसर "डाक्टर ज़ियाउर्रहमान आज़मी" - गंगा से ज़मज़म Dr. Zia ur-Rahman Azmi

Wednesday, June 17, 2020

प्रोफेसर "डाक्टर ज़ियाउर्रहमान आज़मी" - गंगा से ज़मज़म Dr. Zia ur-Rahman Azmi

आज़म गढ़ का भारतीय (बांकेलाल) कैसे मदीना यूनीवर्सिटी और मस्जिद नबवी का प्रोफेसर बन गया
-----"डाक्टर लुबना ज़हीर"----
اعظم گڑھ کا ہندو کیسے مدینہ یونیورسٹی اور مسجد نبوی کا معلم بن گیا..ڈاکٹر لبنیٰ ظہیر
https://www.baseeratonline.com/109641

Journey from Hinduism to Islam to professor of Hadith in Madinah .....By: Zakir Azmi
https://saudigazette.com.sa/article/174057

یاسر قاضی کے ساتھ انٹرویو
https://www.youtube.com/watch?v=y2ZI_ykyv8o
यासिर क़ाज़ी के साथ इंटरव्यू yotube
بلریا گنج کے بانکے رام سے مدینہ منورہ کے پروفیسر ضیاء الرحمن اعظمی کے ساتھ ایک خاص گفتگو
=====ازقلم۔ ذاکر اعظمی ندوی ، ریاض=====
क़ुरआन मजीद की इनसाइक्लोपीडिया

https://quranwahadith.com/product/quran-majeed-ki-encyclopedia/

क़ुरआन की शीतल छाया 
https://archive.org/details/QuranKiSheetalChaya

डाक्टर ज़ियाउर्रहमान आज़मी ,लेखक:  हिंदी पुस्तक "क़ुरआन की शीतल छाया में" और "क़ुरआन मजीद की एनसाइक्लोपीडिया" के बारे में जानिये।

ये 2005 का ज़माना था। रोज़नामा नवा-ए-वक़्त में मारूफ़ कालम निगार इर्फ़ान सिद्दीक़ी साहिब का एक कालम बउनवान गंगा से ज़मज़म तक। शाय हुआ। कालम में उन्होंने भारत के एक कट्टर हिंदू नौजवान का तज़किरा किया था। इस्लामी तालीमात से मुतास्सिर हो कर जिसने इस्लाम क़बूल किया। नौजवान पर इस क़दर एहसान इलाही हुआ कि वो दिल-ओ-जान से इस्लामी तालीमात की जानिब राग़िब हो गया। मदीना मुनव्वरा और मिस्र की जमिआत से तालीम हासिल करने के बाद शोबा तदरीस से मुंसलिक हुआ।

सऊदी अरब की मदीना यूनीवर्सिटी में प्रोफेसर और डीन के ओहदे तक जा पहुंचा। रिटायरमैंट के बाद तहक़ीक़ात इस्लामी में जुट गया। अरबी और हिन्दी में दर्जनों किताबें लिख डालीं। इन कुतुब का तर्जुमा दुनिया के मुख़्तलिफ़ ममालिक के दीनी मदारिस के निसाब का हिस्सा है। इस क़दर बा सआदत ठहरा कि मस्जिद नबवीﷺ मैं हदीस का दरस देने लगा।

कुफ़्र के अंधेरों से निकल कर इस्लाम के रोशन रास्तों पर गामज़न होने वाले प्रोफेसर डाक्टर ज़िया अल रहमान आज़मी के सफ़र सआदत के बारे में लिखा गया ये कालम मेरी यादाशत से कभी गायब नहीं हो सका
इस मर्तबा मक्का उमरा पर जाते वक़्त मैंने हज-ओ-उमरा की दुआओं और इस्लामी तारीख़ से मुताल्लिक़ कुछ किताबें अपने सामान में रख ली थीं। एक किताब जो आख़िरी वक़्त पर मैंने अपने हमराह ली वो इरफान सिद्दीक़ी साहिब की मक्का मदीना थी। मदीना मुनव्वरा में आए दूसरा दिन था। मैं होटल के कमरे में मक्का मदीना की वर्क़ गरदानी में मसरूफ़ थी। अचानक पंद्रह बरस क़बल लिखा गया कालम। "गंगा से ज़मज़म तक" आँखों के सामने आ गया। एक-बार फिर मुझे डाक्टर ज़िया अल रहमान आज़मी और उनकी ज़िंदगी का सफ़र याद आ गया।

अम्मी को में उनके क़बूल इस्लाम का क़िस्सा बताने लगी। बा आवाज़ बुलंद कालम भी पढ़ कर सुनाया। कालम पढ़ने के बाद उनके मुताल्लिक़ सोचने लगी। उंगलीयों पर गिन कर हिसाब लगाया कि अब उनकी उम्र कम-ओ-बेश77 बरस होगी। 

ख़्याल आया न जाने अब उनकी सेहत इलमी और तहक़ीक़ी सरगर्मीयों की मुतहम्मिल होगी भी या नहीं। दिल में ख़ाहिश उभरी कि काश मैं उनसे मुलाक़ात कर सिक्कों। एक इलमी-ओ-अदबी शख़्सियत से राबिता किया और ये ख़ाहिश गोश गुज़ार की। 

उनका जवाब सुनकर मुझे बेहद मायूसी हुई। कहने लगे कि आज़मी साहिब उमूमी तौर पर मेल मुलाक़ातों से इंतिहाई गुरेज़ां रहते हैं। ख़वातीन से तो ग़ालिबन बिलकुल नहीं मिलते-जुलते। इंतिहाई मायूसी के आलम में ये गुफ़्तगु इख़तताम पज़ीर हुई। 

लेकिन अगले दिन उन्होंने ख़ुशख़बरी सुनाई कि आज़मी साहिब से बात हो गई है। हिदायत दी कि मैं फ़ोन पर उनसे राबिता कर लूं।

ज़िंदगी में मुझे बहुत सी नामवर दीनी, इलमी, अदबी और दीगर शख़्सियात से मुलाक़ात और गुफ़्तगु के मवाक़े मिले हैं। ख़ुसूसी तौर पर भारी भरकम सयासी शख़्सियात। प्रोटोकोल जिनके आगे पीछे बंधा रहता है। लोग जिनकी ख़ुशनुदी ख़ातिर में बिछे जाते हैं। एक लम्हे के लिए में किसी शख़्सियत से मरऊब हुई, ना किसी के ओहदे, रुतबे और मर्तबे का रोब-ओ-दबदबा मुझ पर कभी तारी हुआ। लेकिन डाक्टर ज़िया अल रहमान आज़मी को टेलीफ़ोन काल मिलाते वक़्त मुझ पर घबराहट तारी थी

दिल की धड़कनें मुंतशिर थीं। उनसे बात करते मेरी ज़बान कुछ लड़खड़ाई और आवाज़ कपकपा गई। अर्ज़ किया कि बरसों पहले एक कालम के तवस्सुत से आपसे तआरुफ़ हुआ था। बरसों से मैं आपके बारे में सोचा करती हूँ। बरसों से ख़ाहिश है कि आपसे शरफ़ मुलाक़ात हासिल हो सके। निहायत आजिज़ी से कहने लगे। मैं कोई ऐसी बड़ी शख़्सियत नहीं हूँ। जब चाहें घर चली आएं।

अगले दिन बाद अज़ नमाज़ इशा मुलाक़ात का वक़्त तै हुआ। निहायत फ़राख़दिली से कहने लगे आपको यक़ीनन रास्तों से आगाही नहीं होगी, कल मेरा ड्राईवर आपको लेने पहुंच जाएगा। शुक्रिया के साथ अर्ज़ किया कि मैं ख़ुद वक़्त मुक़र्ररा पर हाज़िर हो जाऊँगी। इस के बाद में बे-ताबी से अगले दिन का इंतिज़ार करने लगी। इस से क़बल कि में इस मुलाक़ात का अहवाल लिखूँ, क़ारईन के लिए प्रोफेसर डाक्टर ज़िया अल रहमान आज़मी के क़बूल इस्लाम की मुख़्तसर दास्तान बयान करती हूँ।

1943 मैं आज़म गढ़ (हिन्दोस्तान के एक हिंदू घराने में एक बच्चे ने जन्म लिया। वालदैन ने इस का नाम बांके राम रखा। बच्चे का वालिद एक ख़ुशहाल कारोबारी शख़्स था। आज़मगढ़ से कलकत्ता तक उस का कारोबार फैला हुआ था। बच्चा आसाइशों से भरपूर ज़िंदगी गुज़ारते हुए जवान हुआ। वो शिबली कॉलेज आज़म गढ़ में ज़ेर-ए-ताअलीम था। किताबों के मुताले से उसे फ़ित्री रग़बत थी। एक दिन मौलाना मौदूदी की किताब "दीन हक़" का हिन्दी अनुवाद
(सत्य धर्म) उस के हाथ लगा। निहायत ज़ौक़-ओ-शौक़ से इस किताब का मुताला किया। बार-बार पढ़ने के बाद उसे अपने अंदर कुछ तबदीली और इज़तिराब महसूस हुआ। इस के बाद उसे ख़्वाजा हसन निज़ामी का हिन्दी अनुवाद क़ुरआन पढ़ने का मौक़ा मिला।

नौजवान का ताल्लुक़ एक ब्रह्मण हिंदू घराने से था। कट्टर हिंदू माहौल में इस की तर्बीयत हुई थी। हिंदू मज़हब से उसे ख़ास लगाओ था। बाक़ी मज़ाहिब को वो बरसर हक़ नहीं समझता था। इस्लाम का मुताला शुरू किया तो क़ुरआन की ये आयत उस की निगाह से गुज़री। तर्जुमा:
"अल्लाह के नज़दीक पसंदीदा दीन इस्लाम है। "

उसने एक-बार फिर हिंदू मज़हब को समझने की कोशिश की।" अपने कॉलेज के लैक्चरार जो गीता और वेदों के एक बड़े आलिम थे, से रुजू किया। उनकी बातों से मगर उस का दिल मुतमइन नहीं हो सका। शिबली कॉलेज के एक उस्ताद हफ़्ता-वार क़ुरआन का दरस दिया करते थे। नौजवान की जुस्तजू को देखते हुए उस्ताद ने उसे हलक़ा दरस में शामिल होने की ख़ुसूसी इजाज़त दे दी

सय्यद मौदूदी की किताबों के मुसलसल मुताले और दरस क़ुरआन में बाक़ायदगी से शमूलीयत ने नौजवान के दिल को क़बूल इस्लाम के लिए क़ाइल और माइल कर दिया। परेशानी मगर ये थी कि मुस्लमान होने के बाद हिंदू ख़ानदान के साथ किस तरह गुज़ारा हो सकेगा। अपनी बहनों के मुस्तक़बिल के मुताल्लिक़ भी वो फ़िक्रमंद था। यही सोचें इस्लाम क़बूल करने की राह में हाइल थीं। एक दिन दरस क़ुरआन की क्लास में उस्ताद ने सूरत अन्कबूत की ये आयत पढ़ी। तर्जुमा:
"जिन लोगों ने अल्लाह को छोड़कर दूसरों को अपना कारसाज़ बना रखा है, उनकी मिसाल मकड़ी की सी है, जो घर बनाती है और सबसे कमज़ोर घर मकड़ी का होता है। काश लोग इस हक़ीक़त से बाख़बर होते"

इस आयत और इस की तशरीह ने बांके राम को झंजोड़ कर रख दिया। उसने तमाम सहारों को छोड़कर सिर्फ़ अल्लाह का सहारा पकड़ने का फ़ैसला किया और फ़ौरी तौर पर इस्लाम क़बूल कर लिया। इस के बाद उस का बेशतर वक़्त सय्यद मौदूदी की किताबें पढ़ने में गुज़रता। नमाज़ के वक़्त ख़ामोशी से घर से निकल जाता और किसी अलग-थलग जगह पर अदायगी करता। चंद माह बाद वालिद को ख़बर हुई तो उन्होंने समझा कि लड़के पर जिन भूत का साया हो गया है
पंडितों पुरोहितों से ईलाज करवाने लगे। जो चीज़ वो पंडितों पुरोहितों से ला कर देते ये बिसमिल्लाह पढ़ कर खा लेता। ईलाज मुआलिजे में नाकामी के बाद घर वालों ने उसे हिंदू मज़हब की एहमीयत समझाने और दीन इस्लाम से मुतनफ़्फ़िर करने का एहतिमाम किया। जब कोई फ़ायदा ना हुआ तो रोने धोने और मिन्नत समाजत का सिलसिला शुरू हुआ। इस से भी बात ना बन सकी तो घर वालों ने भूक हड़ताल का हर्बा आज़माया। वालदैन और भाई बहन उस के सामने भूक से निढाल पड़े सिसकते रहते। इस के बाद घर वालों ने मार पीट और तशद्दुद का रास्ता इख़तियार किया। अल्लाह ने मगर हर मौक़ा पर उसे दीन हक़ पर इस्तिक़ामत बख़शी।

उसने तमाम रुकावटों और मुश्किलात को नज़रअंदाज किया। हिन्दोस्तान के मुख़्तलिफ़ दीनी मदारिस में तालीम हासिल की। इस के बाद मदीना मुनव्वरा की जामिआ इस्लामीया (मदीना यूनीवर्सिटी) मैं दाख़िल हो गया। जामाता उल-मलिक अबदुलअज़ीज़ जामिआ उम अलकरी। मक्का मुअज़्ज़मा से एम.ए. किया। मिस्र की जामिआ अज़हर क़ाहिरा से पी. ऐच. डी. की डिग्री हासिल की। आज़म गढ़ के कट्टर हिंदू घराने में आँख खोलने वाला ये बच्चा दुनियाए इस्लाम का नामवर मुफ़क्किर, मुहक़्क़िक़, मुसन्निफ़ और मुबल्लिग बन गया।
उन्हें प्रोफेसर डाक्टर ज़िया उर रहमान आज़मी के नाम से पहचाना जाता है। उनकी किताबें हिन्दी, अरबी, अंग्रेज़ी, उर्दू, मिलाई, तुर्की और दीगर ज़बानों में छप चुकी हैं।
क़ुरआन की शीतल छाया
https://archive.org/details/QuranKiSheetalChaya

इंतिहाई सआदत है कि डाक्टर साहिब ने सही अहादीस को मुरत्तिब करने के एक इंतिहाई भारी भरकम तहक़ीक़ी काम का बीड़ा उठाया और बरसों की मेहनत के बाद उसे पाया-ए-तकमील तक पहुंचाया। ऐसा काम जो बड़ी बड़ी जमात और तहक़ीक़ी इदारे नहीं कर सके, एक शख़्स ने तन-ए-तन्हा कर डाला। गुज़श्ता कई बरस से वो मस्जिद नबवी में हदीस का दरस देते हैं।

अल्लाह रब्बुल इज़त ने इस रोय ज़मीन पर बेशुमार नेअमतें नाज़िल फ़रमाई हैं। इन तमाम में सबसे अज़ीम और अनमोल ईमान की नेअमत है। सूरत हजरात में फ़रमान इलाही है कि दरअसल अल्लाह का तुम पर एहसान है कि उसने तुम्हें ईमान की हिदायत की। सूरत इनाम में फ़रमान रब्बानी है। तर्जुमा
"जिस शख़्स को अल्लाह ताला रास्ते पर डालना चाहे, उस के सीने को इस्लाम के लिए कुशादा कर देता है।"

इस शाम में तय-शुदा वक़्त के मुताबिक़ प्रोफेसर डाक्टर ज़िया उर रहमान आज़मी से मुलाक़ात के लिए रवाना हुई, तो क़ुरआन की ये आयात मुझे याद आ गईं। ख़्याल आया कि अल्लाह के इनाम और एहसान की इंतिहा-ए-है कि उसने हिंदू घराने में जन्म लेने वाले को सिराते मुस्तक़ीम के लिए मुंतख़ब किया। उसे बांके राम से प्रोफेसर डाक्टर ज़िया उर रहमान आज़मी बना डाला। मदीना यूनीवर्सिटी और मस्जिद नबवीﷺ मैं हदीस के मुअल्लिम और मुबल्लिग की मस्नद पर ला बिठाया।

डाक्टर साहिब का घर मस्जिद नबवी से चंद मिनट की मुसाफ़त पर वाक़्य है। घर पहुंची तो आज़मी साहिब इस्तिक़बाल के लिए खड़े थे। निहायत शफ़क़त से मिले। कहने लगे आप पहले घर वालों से मिल लीजीए। चाय वग़ैरा पीजिए। इस के बाद नशिस्त होती है। मेहमान ख़ाना drawing room) मैं दाख़िल हुई तो उनकी बेगम मुंतज़िर थीं। मुहब्बत और तपाक से मिलीं। चंद मिनट बाद उनकी दोनों बहूएं चाय और दीगर लवाज़मात थामे चली आएं। कुछ देर बाद उनकी बेटी भी आ गई।

इस के बाद घर में मौजूद तमाम छोटे बच्चे भी। उनकी बेगम ने जामिआ कराची से एम.ए. कर रखा है। कहने लगीं पी. ऐच. डी. में दाख़िला लेने का इरादा था। लेकिन शादी हो गई।
तजस्सुस से सवाल किया कि डाक्टर साहिब हिन्दुस्तानी थे। जबकि आप पाकिस्तानी। शादी कैसे हो गई। कहने लगीं कि मेरे मामूं मदीना यूनीवर्सिटी से मुंसलिक थे। आज़मी साहिब से उनकी मेल-मुलाक़ात रहती थी। बुताने लगीं कि आज़मी साहिब इस क़दर मसरूफ़ रहा करते थे कि मेरे पढ़ने लिखने की गुंजाइश नहीं निकलती थी।

अलबत्ता चंद साल क़बल मैंने हिफ़्ज़ क़ुरआन की सआदत हासिल की। तीनों बच्चे इशाअत दीन की तरफ़ नहीं आए। उनका ख़्याल था कि जितना काम उनके वालिद ने किया है। इस क़दर वो कभी नहीं कर सकेंगे। यही सोच कर वो मुख़्तलिफ़ शोबों में चले गए। फिर कहने लगीं कि आप किसी भी शोबा में हूँ, अल्लाह के बंदों की ख़िदमत कर के अपनी आख़िरत सँवार सकते हैं।

आध पोन घंटा बाद आज़मी साहिब का बुलावा आ गया। उनके लाइब्रेरी नुमा दफ़्तर का रुख किया। इबतिदाई तआरुफ़ के बाद कहने लगे कि मीडीया और दीगर लोग इंटरव्यू वग़ैरा के लिए राबिता करते हैं। मैं अपनी ज़ाती तशहीर से घबराता हूँ। दरख़ास्त करता हूँ कि मेरी ज़ात के बजाय, मेरे तहक़ीक़ी काम की तशहीर की जाये। ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग इस से आगाह और मुस्तफ़ीद हो सकें। फिर अपनी किताबें दिखाने और तहक़ीक़ी काम की तफ़सीलात बताने लगे। उनकी तहक़ीक़ और दर्जनों तसानीफ़ की मुकम्मल तफ़सील कई सफ़हात की मुतक़ाज़ी है।

लेकिन एक तसनीफ़ (बल्कि अज़ीम कारनामा का मुख़्तसर तज़किरा नागुज़ीर है। डाक्टर ज़िया उर रहमान आज़मी ने बीस बरस की मेहनत और जाँ-फ़िशानी के बाद
”الجامع الکامل فی الحدیث ال صحیح الشامل۔“
"अल-जामे अल-कामिल फ़ी अल-हदीस अल-सही अल-शामिल" की सूरत एक अज़ीमुश्शान इलमी और तहक़ीक़ी मन्सूबा पाया-ए-तकमील तक पहुंचाया है।

इस्लाम की चौदह सौ साला तारीख़ में ये पहली किताब है जिसमें रसूल अल्लाहﷺ की तमाम सही हदीसों को मुख़्तलिफ़ कुतुब अहादीस से जमा किया और एक किताब में यकजा कर दिया गया है। अल-जामे अल-कामिल सोला हज़ार सही अहादीस पर मुश्तमिल है। इस के 6 हज़ार अबवाब हैं। इस का पहला ऐडीशन 12 जबकि दूसरा ऐडीशन इज़ाफ़ात के साथ 19 ज़ख़ीम जिल्दों पर मुश्तमिल है।


आज़मी साहिब ने बताया कि कमोबेश 25 बरस में बतौर प्रोफेसर दुनिया के मुख़्तलिफ़ ममालिक के दौरे करता रहा। अक्सर ये सवाल उठता कि क़ुरआन तो एक किताबी शक्ल में मौजूद है। मगर हदीस की कोई एक किताब बताएं, जिसमें तमाम अहादीस यकजा हूँ। जिससे इस्तिफ़ादा किया जा सके।
सदीयों से उलमाए किराम और मुबल्लग़ीन से ग़ैर मुस्लिम और मुस्तश्रिक़ीन ये सवाल किया करते। मगर किसी के पास उस का तश्फ़ी बख़श जवाब ना था। मुझे भी ये सवालात दरपेश रहते। लिहाज़ा मैंने हदीस की एक किताब मुरत्तिब करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने बताया कि दूसरी बार छपने में 99 फ़ीसद सही अहादीस आ गई हैं। सो फ़ीसद कहना इस लिए दरुस्त नहीं कि सद फ़ीसद सही सिर्फ़ अल्लाह की किताब है।
इंतिहाई हैरत से इस्तिफ़सार किया कि इस क़दर दकी़क़ और पेचीदा काम आपने तन-ए-तन्हा कैसे पाया-ए-तकमील तक पहुंचाया। कहने लगे मेरी ये बात गिरह से बांध लीजीए कि किसी काम की लगन और जुस्तजू हो तो वो ना-मुम्किन नहीं रहता।

सवाल किया कि इस क़दर भारी भरकम तहक़ीक़ के लिए आप दिन रात काम में जुते रहते होंगे। कहने लगे। अठारह अठारह घंटे काम किया करता था। सुब्ह-सवेरे काम का आग़ाज़ करता और रात दो अढ़ाई बजे तक मसरूफ़ रहता। बताने लगे कि ये (वसीअ-ओ-अरीज़ घर जो आप देख रही हैं
ये सारा घर एक लाइब्रेरी की मानिंद था। हर जानिब किताबें ही किताबें थीं। यूं समझें कि मैंने एक लाइब्रेरी में अपनी चारपाई डाल रखी थी। जब तहक़ीक़ी काम मुकम्मल हो गया तो मैंने तमाम किताबें अतीया donate) कर दीं।
ख़ानदान का तआवुन मयस्सर ना होता तो मैं ये काम नहीं कर सकता था। कम्पयूटर की जानिब इशारा कर के बताने लगे कि मैं उसे इस्तिमाल नहीं कर सकता। अशरों से मामूल है कि अपने हाथ से लिखता हूँ। कोई ना कोई शागिर्द मेरे साथ मुंसलिक रहता है। वो कम्पोज़िंग करता है।

डाक्टर आज़मी साहिब हिन्दी और अरबी ज़बान में बीसियों किताबें लिख चुके हैं। इन तसानीफ़ के तराजुम दर्जनों ज़बानों में छुपते हैं। सऊदी अरब और दीगर ममालिक की जमिआत और दीनी मदारिस में उनकी कुतुब पढ़ाई जाती हैं।

कहने लगे कि निहायत तकलीफ़-दह बात है कि मुस्लमानों ने हिन्दोस्तान में कम-ओ-बेश आठ सदीयों तक हुक्मरानी की। बादशाहों ने आलीशान इमारात तामीर करवाईं। ताहम ग़लती ये हुई कि उन्होंने अपने हमवतन ग़ैर मुस्लिमीन को इस्लाम की तरफ़ राग़िब करने के लिए इशाअत देन का काम नहीं किया।
हिंदूओं की किताबों का फ़ारसी और संस्कृत में तर्जुमा करवाया। मगर क़ुरआन-ओ-हदीस का हिन्दी तर्जुमा नहीं करवाया। अगर मुस्लमान हुकमरान ये काम करते तो यक़ीन जानें आज सारा भारत मुस्लमान हो चुका होता। (इन दिनों भारत में मुस्लमानों को शहरीयत से महरूम करने की मुहिम उरूज पर थी)।

कहने लगे कि अगर बर्र-ए-सग़ीर के मुस्लमान हुकमरानों ने इशाअत देन का फ़रीज़ा सरअंजाम दिया होता, तो आज ये नौबत ना आती। भारत में 80 करोड़ हिंदू बस्ते हैं। मिशन मेरा ये है कि हर हिंदू घराने में क़ुरआन और हदीस की कुतुब पहुंचे। यही सोच कर में हिन्दी ज़बान में लिखता हूँ।
इस मक़सद के तहत डाक्टर साहिब ने हिन्दी ज़बान में क़ुरआन-ए-मजीद इन्साईक्लो पीडीया की तसनीफ़ फ़रमाई। अरसा दस बरस में ये तहक़ीक़ी काम मुकम्मल हुआ। ये किताब क़ुरान-ए-पाक के तक़रीबन छः सौ मौज़ूआत पर मुश्तमिल है। तारीख़ हिंद में ये अपनी नौईयत की पहली किताब है जो इस मौज़ू पर लिखी गई। ये किताब भारत में काफ़ी मक़बूल है। अब तक उस के आठ ऐडीशन शाय हो चुके हैं। कुछ बरस क़बल उस का अंग्रेज़ी और उर्दू तर्जुमा भी पाया-ए-तकमील को पहुंचा।

सवाल किया कि आपकी किताबों से हिंदू और दीगर ग़ैर मुस्लिम मुतास्सिर होते हैं? कहने लगे जी हाँ इत्तिलाआत आती रहती हैं कि मेरी फ़ुलां फ़ुलां किताब पढ़ने के बाद फ़ुलां फ़ुलां ग़ैर मुस्लिम हल्क़ा-ब-गोश इस्लाम हो गए।
कम-ओ-बेश गुज़श्ता बीस बरस से उन्होंने कोई सफ़र नहीं किया। कहने लगे कि लाइब्रेरी से दूर कहीं आने जाने को जी नहीं चाहता। किताबों से दूर होता हूँ तो घबराहट होने लगती है। मालूम किया कि आजकल क्या मसरुफ़ियात हैं। बुताने लगे कि कुछ तहक़ीक़ी काम जारी हैं। गुज़श्ता आठ दस बरस से मस्जिद नबवीﷺ मैं हदीस का दरस देता हूँ। पहले बुख़ारी शरीफ़ और सही मुस्लिम के दरूस दिए। आजकल सुन्न अबु दाउद का दरस जारी है। बताने लगे कि मैं लैक्चर कुछ इस तरह तैयार करता हूँ कि शरह तैयार हो जाये। ताकि लैक्चरज़ मुकम्मल होने के बाद किताबी शक्ल में छिप सके।

मुख़्तसर ये कि उन्होंने दीन की नशर-ओ-इशाअत को अपना ओढ़ना बिछौना बना रखा है। उनकी हर तालीमी, इलमी और तहक़ीक़ी सरगर्मी के पीछे यही जज़बा-ओ-जुनून कारफ़रमा है।
आख़िर में मुझे अपनी कुछ किताबों का उर्दू तर्जुमा इनायत किया। इन पर मेरा नाम और अरबी ज़बान में दुआइया कलिमात तहरीर फ़रमाए। कम-ओ-बेश अढ़ाई तीन घंटों बाद मैंने वापसी की राह ली। आज़मी साहिब बरामदा porch) तक तशरीफ़ लाए। गाड़ी घर से बाहर निकलने तक वहीं खड़े रहे। होटल वापिस लोटते वक़्त मुझे उन पर निहायत रशक आया। ख़ुद पर इंतिहाई नदामत हुई। ख़्याल आया कि एक में हूँ, जिसे बरसों से दुनिया जहां के बेवुक़त कामों से फ़ुर्सत नहीं। एक ये हैं जो अशरों से हक़ीक़ी फ़लाह और कामयाबी समेटने में मसरूफ़ हैं। दुआ की कि काश मुझे भी अल्लाह का पैग़ाम समझने, इस पर अमल करने और इस की नशर-ओ-इशाअत की तौफ़ीक़ नसीब हो जाये। आमीन

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Dr. Zia ur-Rahman Azmi

 گنج کے بانکے رام سے مدینہ منورہ کے پروفیسر ضیاء الرحمن اعظمی تک
اسلام کی صداقت کے معترف عصر حاضر میں اعظم گڈھ کے در نایاب کے ساتھ ایک خاص گفتگو=================================
Quran Achya Sheetal Chhayet
कुरआनच्या' शीतल छायेत
https://archive.org/details/quranachyasheetalchhayet

پروفیسر دکتور ضیاء الرحمن اعظمی کی علمی خدمات کا مختصر تعارف
داکٹر عبد الحلیم بسم اللہ
(مدرس جامعہ سلفیہ بنارس)
جاری کردہ ؛
کامران عبد العزیز قاضی
متعلم جامعہ اسلامیہ، مدینہ منورہ



URDU: Ittiba-e-Sunnat (Aqaid-o-Ahkam Mein) by Dr Muhammad Ziaur Rahman Al Azmi




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